Monday, July 17, 2023

जन समस्याएं और राजनीतिक दल

 कहने को तो शहर और देहात दोनों में मुख्य पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के संगठन हैं-पूरी कार्यकारिणी सहित। संगठनों का काम ही जन समस्याओं को समझना, निदान खोजना और फिर उनका स्थाई-अस्थाई या पुख्ता समाधान करवाना हो सकता है। लेकिन इन दिनों शहर को लेकर जो समाचार सुने-देखे जाते हैं उनमें कुछ भाजपाई अपनी पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय हैं। उन्हें रोजाना किसी न किसी विभाग से सम्बन्धित किसी न किसी क्षेत्र या मुहल्ले की समस्या मिल ही जाती है। जो समस्याग्रस्त होते हैं उनमें से कुछ लोग इन नेताओं के साथ जाने का समय भी निकाल लेते हैं-जाते भी हैं। और जब जाते हैं तो कभी आधा-अधूरा तो कभी पूरा आश्वासन लेकर लौटते हैं-देखा यह भी गया है कि कभी-कभार इस तरह के प्रदर्शनों में बदमजगी भी हो जाती है। अकसर तो यही होता है कि पांच-दस लोग जाकर अफसर से बात करते हैं मीडिया वाले वीडियो-फोटो खींचते हैं और इस को घेराव के नाम से दिखवा-छपवा दिया जाता है। इस तरह से मुलाकात और घेराव जैसे शब्दों के अर्थ का अंतर खत्म होता सा लगने लगा है।

गर्मी के इन दिनों में विभिन्न क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्याओं से जूझ रहे शहर के बाशिन्दे जलदाय विभाग के किसी न किसी क्षेत्रीय या मुख्य कार्यालय पहुंचते हैं और अपनी बात रखते हैं-उनमें से कोई बाशिन्दा यदि भरा हुआ है तो वह अपनी भड़ास भी निकाल लेता है।

जैसा कि ऊपर जिक्र किया कि संगठन तो यहां कांग्रेस का भी है। लेकिन खबरों से लगता यही है कि उन्हें जन समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है। या ऐसा कोई नीतिगत निर्णय है कि जिस पार्टी की सरकार हो तो उस पार्टी के पदाधिकारी जन समस्याओं को उठाएंगे ही नहीं-लगता यही है। यह तो हो सकता है कि इन समस्याओं को उठाने का सत्ताधारी पार्टी का तरीका भिन्न हो। लेकिन उठायें ही नहीं तो जनता जुड़ाव कैसे महसूस करेंगी।

जन समस्याओं को लेकर सत्ताधारी पार्टी की किसी तरह की सक्रियता है भी तो उसकी सूचना मीडिया के किसी माध्यम में देखी-सुनी नहीं गई है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की मानसिकता के सिर्फ कांग्रेसी ही शिकार हों-जब भाजपा की सरकार थी तब भाजपाई भी जन समस्याओं को लेकर मौन ही देखे गये। कुछ इस तरह की मानसिकता के चलते ही चुनावों में 'एंटी इनकम्बेंसी' यानी व्यवस्था विरोध का फैक्टर काम करता है। सम्भवत: पिछले कई चुनावी विश्लेषणों में इस 'एंटी इनकम्बेंसी' शब्द की सक्रियता कुछ ज्यादा देखी गई है और शायद इसीलिए ही 'उतर भीखा म्हारी बारी' की तर्ज पर दोनों ही पार्टियां अकसर 'एंटी इनकम्बेंसी' का शिकार होती हैं, और सत्ता खो देती हैं।

—दीपचन्द सांखला

19 जून, 2012

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