Monday, July 24, 2023

लंदन ओलंपिक में भारत

 लंदन में ओलिम्पिक खेल चल रहे हैं, भारत के खिलाडिय़ों का एक बड़ा दल इसमें भागीदारी कर रहा है। कल के दिन तक हमारे किसी खिलाड़ी ने स्वर्णपदक नहीं जीता है। कल आठवें दिन तक की पदक तालिका पर नजर डालें तो 36 देशों की इस तालिका में भारत एक रजत और एक कांस्य के साथ सबसे अंत में है। जिन दो खिलाडिय़ों विजय और गगन ने यह दोनों पदक दिलाए वे बधाई के पात्र हैं, उनके योगदान को कम करके आंका नहीं जा सकता। लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि बन्दूक और पिस्टलों का यह निशानेबाजी का खेल आम भारतीय की पहुंच में कितना है-कॉमनवेल्थ खेलों में भी बिन्द्रा ने जब पदक लिया तब भी और आज भी बिना इस पर विचार किये कि भारत जैसे देश के आम आवाम की पहुंच इस सबसे महंगे खेल तक कितनी होगी-मीडिया जश्न का माहौल बनाने में देर नहीं लगाता। यह मुग्धता लगभग बौराने जैसी है जिसमें भारतीय खेलों की असल स्थिति की चिन्ताएं नजरंदाज हो जाती हैं। कल ही जर्मनी से हार कर भारत ओलिम्पिक से बाहर हो गया है-यह वही हॉकी का खेल है जिसका उद्गम भारतीय उपमहाद्वीप से माना जाता है। ऐसे ही वे सभी प्रकार के खेल जिसमें आम मध्यम, निम्न मध्यम और निर्धन भारतीय परिवारों के किशोर-किशोरियां और युवक-युवतियां कुछ कर दिखाने की स्थिति में हो सकते हैं-वे सभी खेल उन खेलसंघों के नियन्ताओं के पक्षपात, राजनीति और अय्याशी के शिकार हो गए हैं। एक-एक खेल संघ पर यह राजनीतिज्ञ या उनके वारिस बिना कोई परिणाम दिये इतने लम्बे समय से काबिज हैं कि शर्म को भी शर्म आने लगे!

जो पदक ले आता है उसकी पोटली को और ठसा-ठस भरने या मीडिया में सुर्खियां पाने को सरकारें और कई व्यापारिक घराने इनामों की घोषणा करने की प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं। लेकिन इनमें से कोई भी इस पर विचार तक नहीं करता कि सवा सौ करोड़ के आत्ममुग्धता से ग्रसित इस भारत की स्थिति अधिकांश खेलों में दयनीय क्यों है? पता नहीं हमारा मीडिया-टीवी और अखबार-इसे अपनी जिम्मेदारी में कब लेगा!

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सिंहासन खाली करो कि....

कल शाम जब अन्ना और उनकी टीम ने अनशन समाप्त किया तो इसकी औपचारिकता पूरी करवाने को वहां सेवानिवृत्त सेनाप्रमुख जनरल वी.के. सिंह उपस्थित थे। इस मौके पर अपने उद्बोधन में जनरल ने दिनकर की वह कविता उद्धृत की जो पिछली सदी के आठवें दशक के जेपी मुवमेंट में खूब सुनाई देती थी-'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।' तब के किशोर-किशोरियों और युवक-युवतियां इसे दोहराते थे। लेकिन लगता है कि इन पंक्तियों का एक शब्द 'सिंहासन' हमारी उस सामन्ती और गुलाम मानसिकता की पुष्टि करता है, जिससे आज के सभी सत्ताधीश और अधिकतर मतदाता ग्रसित हैं। कवि दिनकर में भी कहीं न कहीं गुलामी के सामंती संस्कार घर किये बैठे होंगे-अन्यथा वह अपनी इस कविता पंक्ति में 'सिंहासन' शब्द का प्रयोग नहीं करते।  

—दीपचन्द सांखला

4 अगस्त, 2012

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