Monday, July 24, 2023

"आमजन में डर और अपराधियों में विश्वास"

 कानपुर में हलवाई की एक दुकान है 'ठग्गू के लड्डू'। उसने चालिसेक साल में इतना नाम कमाया जितना दिल्ली के शाही और खानदानी हलवाई 'घंटेवाला' ने दो सौ साल में नहीं कमाया होगा। 'ठग्गू' ने युक्ति निकाली सत्य बोलने की। पहले तो दुकान का नाम ही 'ठग्गू के लड्डू' रखा और फिर जो स्लोगन तय किया वह भी ऐसा ही 'ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं'। व्यापारियों के बारे यह आम धारणा है कि वे ठगते तो हैं ही-खुद व्यापारी भी स्वीकार करते हैं कि थोड़ी-बहुत ठगी के बिना काम ही नहीं चलता। ठग्गू की यह युक्ति और युक्ति से दुकान हिट हो गई।

ऐसे ही अपने राजस्थान पुलिस का ध्येय वाक्य 'सेवार्थ कटिबद्धता' और स्लोगन या नारा है 'आमजन में विश्वास और अपराधियों में डर'। यह स्लोगन बहुत पुराना नहीं है। अभी पिछले कुछ सालों से ही प्रचारित किया गया है। मनोविज्ञान कहता है कि ऐसे नारों की जरूरत तब महसूस की जाती है जब छवि को सुधारने की जरूरत महसूस होती है। इससे यह स्वीकृति हो ही गई कि छवि अच्छी नहीं है। लेकिन नारों से ही यदि छवि बिगड़ती-सुधरती तो कानपुर के हलवाई 'ठग्गू' का दिवालिया निकल गया होता। इसलिए जरूरत अपने लक्षणों में बदलाव लाने की है।

यह बात इसलिए बनी कि अभी पिछले दिनों आदर्श कॉलोनी के एक रेस्टोरेंट में एक मध्यम-बड़े पुलिस अधिकारी जांच के लिए इसलिए पहुंच गये कि उन्हें सूचना हुई होगी कि वहां कुछ गैर कानूनी होता है। अब हो सकता है कि उन्हें फीड बैक गलत मिला हो और इसके चलते उनका खीजना स्वाभाविक था लेकिन यह खीज होनी मातहतों पर चाहिए थी लेकिन निकली रेस्टोरेंट वालों पर। कहा जा रहा है कि इस खीज के चलते ही वहां बैठे ग्राहकों से उन्होंने आईडी प्रूफ मांग लिया। पुलिस ने जिस तरह से असीमित अधिकार 'ऑफ दी रिकार्ड' अपने में समेट लिए हैं उसके हिसाब से तो इस तरह की कार्रवाई को गैर जरूरी नहीं कहा जा सकता लेकिन अटपटा तो कहा ही जा सकता है। अपने मातहतों की गलत सूचना के चलते जैसे पुलिस अधिकारी खीज गये तो उस रेस्टोरेंट के मालिक के पिता को भी इस तरह की कार्रवाई नागवार लगी होगी, क्योंकि वे स्वयं न केवल शहर के एक प्रतिष्ठित नागरिक हैं बल्कि वे राजस्थान के जाने-माने वकील भी हैं। वकील महोदय का यह कहना है कि पुलिस अधिकारी ने खीज में काफी कुछ ऐसा कह दिया जो न केवल उनकी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल था बल्कि नाजायज भी था। अपनी पीड़ा का इजहार करने वे शहर के कुछ मौजिजों के साथ पुलिस महानिरीक्षक के पास पहुंचे तो उन्होंने एसपी के पास भेज दिया। वकील साहब को भी जाना पहले एसपी के पास ही चाहिए था, नहीं सुनते तो आईजी के पास जाते। खैर उनकी न आईजी ने सुनी और न ही एसपी ने। क्योंकि शिकायत राज्य स्तर के पुलिस अधिकारी के खिलाफ है-किसी सामान्य सिपाही और सिपाही भी यदि महिला होती तो यह एसपी भी उसे अपनी औकात बताते देर नहीं लगाते-एक ऑटो रिक्शा चालक से माफी मंगवा देते हैं-चाहे पहली गलती ऑटो रिक्शा चालक की ही क्यों न हो।

रेस्टोरेंट वाले इस मामले में होना यह चाहिए कि उन्हें बिना पुख्ता रिपोर्ट के जाना ही नहीं चाहिए और जायें तो पहले इलाके के थानाधिकारी जायें। सीधे ही वृताधिकारी के जाने का जैसा मामला था क्या? अगर सूचना गलत निकली तो 'आमजन में विश्वास' की तर्ज पर निकल लेते और अपने सिस्टम को ठीक करते। पुलिस अधिकारी की गलती है तो शहर के मौजिजों के बीच बिठाकर सुलह कर लेनी चाहिए इससे महकमें की छवि सुधरेगी और उनका स्लोगन भी कुछ सार्थक होता दिखाई देगा।

—दीपचन्द सांखला

14 अगस्त, 2012

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