Monday, July 24, 2023

बारिश ने कहलवाया बस कर... बस कर...

 बारिश के सन्दर्भ से कैबत तो सावण बीकानेर है। यह कहावतें किसी न किसी आधार पर बनती हैं, अंग्रेजी में भी एक कहावत है-एक्सेप्शन प्रूव्ज द रूल-यानी अपवाद नियम की पुष्टि करते हैं। सो इस बार बजाय सावण के भादौ जम कर बरसा।

बारिश होने की बात करने पर शहर में कई लोग यह कहने से भी नहीं चूकते कि समय पर बारिश न होने से ऊपर-नीचे होने वाले थोड़ी ढंग से बारिश हो जाये तो दोनों हाथ उठा कर तर्जनियां दिखाने लगते हैं। अभी दो दिन लगातार बारिश क्या हुई कि इस बारिश ने टीवी-अखबार की सभी सुर्खियों पर कब्जा कर लिया-नायिका के रूप में कम, खलनायिका के रूप में ज्यादा।

शहरवासी बिना गिरेबां में झांके जहां जगह-जगह रास्ता रोक कर सरकारी अधिकारियों को कोसते नजर आये तो सरकारी अधिकारी अपने लवाजमें के साथ पहुंच कर उन्हें संतुष्ट करते। कहावत यह भी है कि 'रोए बिना मां भी दूध नहीं पिलाती' तो इन सरकारी अधिकारियों से तो उम्मीद ही कैसी!

लेकिन जो व्यवस्थागत ढर्रा बन गया है उसके लिए क्या सरकारी अधिकारी और कर्मचारी ही अकेले जिम्मेदार हैं-नहीं। पानी निकासी के लिए जब सीवर और नाले-नालियों का निर्माण होता है-तब से ही देखें तो पाएंगे कि यह सब हो, इसकी उत्सुकता तो रहती है लेकिन जब निर्माण कार्य चल रहा होता है, तब शायद ही कोई यह देखता है कि योजना सही बनी कि नहीं, ढाल पर्याप्त है कि नहीं-निर्माण की सामग्री यथा पाइप, ईंट, सीमेन्ट सही गुणवत्ता के हैं कि नहीं, सही हैं तो यह भी कि उनका मिश्रण तय मानकों के अनुसार है कि नहीं-यह सब भी ठीक है तो निर्माण को बाद की पूरी तराई-मिल रही है कि नहीं। इस तरह से विचार करने वाले एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका में क्या हम पाते हैं कभी अपने को?

यह सब होने के बाद भी कुछ जिम्मेदारियां शेष रहती हैं, घर-गवाड़ का फूस तो हम नालियों में डालते ही हैं-अलावा इसके छोटे-मोटे टूटे-फूटे सामान को डालने से भी नहीं चूकते। पॉलीथिन पर रोक है-लेकिन उनका बेधड़क उपयोग करते हैं-और नालियों में बहा भी देते हैं। और तो और, घर में छोटी-मोटी मरम्मत के बाद निकले मलबे को इन नालियों में बहाने की नीयत रहती है हमारी। हजारों या लाखों रुपये घर की मरम्मत में लगाएंगे-दो-तीन सौ रुपया मलबा उठाई के देने में जान जाती सी दिखाई देती है। और तो और आये दिन सफाई कर्मचारियों को गली-मोहल्ले की सफाई से एकत्र कचरे को नाले-नालियों में बहाते देखते हैं-कभी ऐसों को हम टोकते भी हैं? नहीं-किस मुंह से टोकें वही सब तो हम भी जो करते हैं! फिर उम्मीद यह कि यह सीवर और नाले-नालियां सुप्रवाहित रहेंगे।

जिम्मेदार नागरिक होने की आदतें छोड़ चुके हैं तभी बड़े हादसे होते हैं और दियातरा में कल रेल की पटरियों के नीचे से जमीन खिसकने की घटनाएं भी। इस रेल लाइन का निर्माण हुए कोई लम्बा अरसा नहीं हुआ-अगर तय मानकों से निर्माण होता और सुरक्षा की सभी सावधानियां बरती गई होतीं तो ऐसा हादसा नहीं होता। कोई हताहत नहीं हुआ इसीलिए भाग्य और चमत्कारों से भरोसा नहीं उठता है। लेकिन भरोसा तो अभी तक सरकारी कामों से भी पूरी तरह कहां उठा है?

—दीपचन्द सांखला

17 अगस्त, 2012

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