Monday, September 30, 2024

असल मायनों में जनप्रतिनिधि थे मानिकचंद सुराना

भारतीय राजनीति में 1977 के उफान के बाद समाजवादी पार्टियों में जो बिखराव आया उसे सहेजने की कोशिशें तो जारी हैं पर ऐसा किसी व्यापक जनाधार वाले समाजवादी नेता की तरफ से नहीं हो रहा। चन्द्रशेखर और मुलायमसिंह यादव जैसे जनाधार वाले नेता व्यक्तिगत एषणाओं को विचार पर हावी नहीं होने देते तो राजनीति में आज के इस अंधकार में वे उम्मीदें बनाए रख सकते थे। हालांकि किशन पटनायक आजीवन लगे रहे, उन्होंने चुनाव भी लड़े पर व्यक्तित्व में मास अपीलिंग के अभाव में प्रदर्शन कला के इस राजनीतिक पेशे में कुछ विशेष कर नहीं पाए।
आजादी बाद राजस्थान में खासकर बीकानेर और उदयपुर संभाग के आदिवासी क्षेत्रों में समाजवादियों ने व्यावहारिक राजनीति में अपनी पैठ बनाई। आजादी बाद 1948 में समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक और पहला प्रांतीय अधिवेशन बीकानेर में हुआ। राजस्थान में मानिकचन्द सुराना उन राजनेताओं में से हैं जिन्होंने राजनीति को वैचारिक उद्देश्य पूर्ति के लिए अपनाया और अपने अधेड़ होने तक इस पर दृढ़ भी रहे। पर पिछली सदी के आठवें दशक के बाद लगता है उन्होंने विचार को खूंटी पर टांग दिया और राजनीति को पेशा मान लिया। बावजूद इस सबके वे राजस्थान के गिने-चुने उन नेताओं में थे जिन्होंने अपने राजनीतिक पेशे को शिद्दत से परोटा, उसी का नतीजा है कि विचारशून्यता और जाति प्रभावी इस युग में भी न्यूनतम जातीय समुदाय से होने के बावजूद पार्टी से बगावत करके उन्होंने चुनाव लड़ा और जीता। समाजवादी सुराना 1998 से अपनी व्यावहारिक और चुनावी राजनीति भाजपा के बैनर से कर रहे थे।
मानिकचन्द सुराना बीकानेर ही नहीं राजस्थान की राजनीति में ऐसा नाम है जिन्हें सही मायने में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है। चिन्तक एम एन राय के विचारों से प्रभावित सुराना की छात्र जीवन में पहचान युवा तुर्क की थी। बीकानेर के 5, डागा बिल्डिंग में मनीषी डॉ. छगन मोहता के साथ जिन युवाओं की चर्चा-विमर्श-बहसें होतीं, उनमें अर्थशास्त्री प्रो. विजयशंकर व्यास, हरीश भादानी, डॉ. पूनम दइया के साथ सुराना भी थे।
31 मार्च 1931 को जन्मे सुराना छात्र जीवन से ही सक्रिय थे, वे बीकानेर राज्य छात्र संघ के अध्यक्ष रहे। सुराना जब डूंगर कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष थे—संयोगवश तभी कॉलेज का स्वर्ण जयन्ति वर्ष था। सुराना के नेतृत्व में भव्य आयोजनों के साथ मनाया।
1951-52 के पहले विधानसभा चुनाव में बीकानेर जिले में तीन सीटें थीं—बीकानेर शहर, नोखा-मगरा (कोलायत सहित) तथा बीकानेर तहसील, जिसे 1957 के चुनाव में लूनकरणसर नाम दिया गया। 1951-52 के चुनाव में बीकानेर तहसील से जसवंतसिंह दाउदसर चुने गये। संसद के उच्च सदन राज्यसभा का गठन हुआ तो जसवंतसिंह राजस्थान से चुनकर राज्यसभा सांसद हो गये। बीकानेर तहसील की सीट खाली हो गयी। 1956 में उपचुनाव हुए। 1956 में 25 वर्ष के हुए सुराना तो जैसे चुनाव लडऩे को उतावले ही थे। प्रजा समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव में उतर गये लेकिन कांग्रेस के रामरतन कोचर से हार गये।
पिछली सदी के अन्त तक आते-आते और जनता पार्टी/जनता दल के बिखराव के बाद वे सभी समाजवादी दुविधा में आ गये जिन्होंने अन्य पार्टियों के नेताओं की तरह राजनीति को पेशे के रूप में नहीं अपनाया था। मुलायम-लालू जैसे जो चतुर और सक्षम थे और जिनके वैचारिक आग्रह नहीं थे वे अपनी अलग-अलग दुकानें खोल कर राजनीति करने लगे। जयपाल रेड्डी और मोहनप्रकाश जैसों ने समय रहते कांग्रेसी छूत को झड़का दिया। ऐसों को सफल इसलिए भी कहा जा सकता है कि इन्होंने न केवल कांग्रेस में ठीक-ठाक हैसियत पा ली बल्कि उसे बनाये भी रखी। पूरा राजनीतिक जीवन कांग्रेस विरोध करने की छाप से अपने को मुक्त न कर सकने वाले सुराना जैसे लोग भारतीय जनता पार्टी में चले गये। सुराना ने संभवत: जानते हुए भी इस सचाई को नजरअन्दाज किया कि भाजपा में वे तीसरे दर्जे की हैसियत से ज्यादा कभी हासिल नहीं कर पाएंगे। वहां पहले दर्जे का भरोसा संघनिष्ठों में और दूसरा दर्जे का नये जुड़े ऐसे नेताओं को मिलता है जिनकी स्लेट साफ होती है।
सुराना की राजनीतिक जीवन की बात करें तो उन्होंने 1956 के बाद 1957 का चुनाव भी प्रजा समाजवादी पार्टी से नोखा-मगरा से लड़ा, 7525 वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे। विजयी हुए निर्दलीय गिरधारी लाल भोबिया। पेशे से वकील सुराना को सन्देह हुआ कि भोबिया 25 की उम्र के तो नहीं है। फिर क्या—प्रमाण में भोबिया की 10वीं की मार्कशीट मिल गयी—सन्देह पुख्ता हुआ। न्यायालय में चुनौती दी और भोबिया को सीट छोडऩी पड़ी। जिसकी वजह से 1960 में नोखा में उप चुनाव हुवे, प्रजा समाजवादी पार्टी से सुराना प्रत्याशी, लेकिन इस बार भी वे कांग्रेस के रावतमल पारीक से हार गये।  
सुराना का चुनाव लडऩे का सिलसिला 1956 में शुरू हुआ जो 2008 के एक चुनाव को छोड़, 2013 तक जारी रहा। 2008 में भाजपा को लूनकरणसर की सीट चुनावी समझौते के तहत इनेलोद के लिए छोडऩी पड़ गयी थी।
1957 के चुनाव में नोखा से दो विधायक चुने गये-एक सामान्य सीट से-गिरधारी लाल भोबिया और दूसरा सुरक्षित सीट से रूपाराम—रेंवतराम पंवार के पिता। सुराना  सामान्य सीट से प्रजा समाजवादी पार्टी से उम्मीदवार बने लेकिन दूसरे नम्बर पर रहे। 
1962 के चुनाव में कोलायत विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आ गया। सुराना पीएसपी (प्रजा समाजवादी पार्टी) से उम्मीदवार बने और जीते, सामने कांग्रेस से थे पूर्व विधायक मोतीचन्द खजांची। मोतीचन्द तीसरे नंबर पर रहे। जनसंघ से उम्मीदवार थे मोहनलाल जोशी जो आठवें नंबर पर रहे। इसी चुनाव में बीकानेर शहर से पीएसपी से जीते मुरलीधर व्यास। सुराना और व्यास विधानसभा में लगातार मुखर और सक्रिय रहे—जिससे बीकानेर की चर्चा प्रदेशभर में होने लगी।
1967 में सुराना फिर कोलायत से ही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से उम्मीदवार हुए। सामने कांग्रेस से थीं कांता कथूरिया। तब के कोलायत जैसे बीहड़ विधानसभा क्षेत्र में कांता कथूरिया ने सुराना की तरह ही चुनाव अभियान जम कर चलाया और जीत गयीं। चूंकि कथूरिया सरकारी वकील थीं, सो पेशे से वकील सुराना ने कथूरिया की जीत में 'ऑफिस ऑफ प्रोफिट' का नुक्ता निकाल लिया। कथूरिया की जीत को न्यायालय में चुनौती दी और मुकदमा जीत गये। कथूरिया को विधायकी से अयोग्य ठहरा दिया गया। कथूरिया हाइकोर्ट गयीं। वहां भी फैसला सुराना के पक्ष में गया। कथूरिया के पक्ष में अब राजस्थान सरकार आ खड़ी हुई, अध्यादेश लाकर पिछली तारीख से सरकारी वकील को लाभ के पद से बाहर कर दिया। इस अध्यादेश के खिलाफ सुराना सुप्रीम कोर्ट चले गये और दलील दी कि ऐसा पिछली तारीख से नहीं किया जा सकता। वहां भी पैरवी सुराना ने खुद ही की। पांच जजों की पीठ गठित हुई, दो के मुकाबले तीन जजों ने सुराना की दलील के खिलाफ और राजस्थान सरकार के पक्ष में फैसला दिया। यहां उल्लेखनीय यह है कि इलाहाबाद हाइकोर्ट में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अयोग्य ठहराए जाने के फैसले में सुराना बनाम राजस्थान सरकार वाला मुकदमा भी नजीर बना। यह सब बताने का मकसद यही है कि सुराना हर क्षेत्र में प्रतिभाशाली थे।
लगातार मुकदमे में उलझे रहने के बावजूद विधायक कान्ता कथूरिया ने अपने क्षेत्र में पांव जमा लिए। वहीं 1971-72 में समाजवादी पार्टियों के टूटने-जुडऩे की प्रक्रिया के चलते और इन्दिरा गांधी के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स समाप्त करने जैसे फैसलों से प्रभावित उत्तरप्रदेश के समाजवादी नेता और सुराना के मित्र सालिगराम जायसवाल अपने साथियों के साथ कांग्रेस में चले गये। राजस्थान में खबरें लग गयीं कि सुराना भी कांग्रेस में जा रहे हैं। सुराना का पक्ष था कि खबरें जायसवाल से मित्रता के चलते अखबारों ने अनुमान से लगाई, वहीं सुराना के साथी समाजवादियों का मत दूसरा था, उनका कहना था—कि सुराना की शर्तों पर कांग्रेस से बात बैठी नहीं, सो लौट आए। इसीलिए 1972 के चुनाव में सुराना पार्टी का अधिकृत चुनाव चिह्न नहीं ले पाये। सुराना को निर्दलीय पर्चा भरना पड़ा—चुनाव चिह्न मिला हलधर। इन्हीं सब वजहों से सुराना पिछड़ गये और वोटों के लंबे अंतर से अपना दूसरा चुनाव क्षेत्र में लगातार सक्रियता के बावजूद हार गये।
इस बीच जून 1975 में आपातकाल लगा। 1976 में लंबित लोकसभा चुनाव लगभग एक वर्ष देरी से 1977 में करवाए गये। आपातकाल की ज्यादतियों में एक हुए विपक्ष ने जनता पार्टी का गठन किया। माहौल इन्दिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ था। लोकदल के 'चक्र में हलधर' के निशान पर जनता पार्टी ने चुनाव जीत केन्द्र में सरकार बनायी। राज्यों में कांग्रेस की सरकारों को भंग कर चुनाव करवाए। सुराना ने चुनाव क्षेत्र बदल जनता पार्टी से लूनकरणसर से उम्मीदवारी हासिल की। चूंकि कोलायत से कांग्रेस की उम्मीदवारी एडवोकेट विजयसिंह ले आये तो कान्ता कथूरिया को भी लूनकरणसर से चुनाव लडऩा पड़ा। परम्परागत प्रतिद्वंद्वी फिर आमने-सामने! सुराना अच्छे-खासे वोटों से जीते और सूबे में भैंरोसिंह शेखावत के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी सरकार में केबीनेट मंत्री बने। क्षेत्र में लगातार सक्रियता और काम के बल पर जाट प्रभावी इस विधानसभा क्षेत्र में वणिक समुदाय से आने वाले सुराना ने अच्छी पैठ बनाई जो आजीवन बनी रही। 
जनता पार्टी में आयी टूट की वजह से पहले 1979 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली और 1980 में चरणसिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र की सरकारें गिर गयीं। न केवल सरकारें गिरीं, जनता में पार्टी की साख भी गिर गयी। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जीत कर केन्द्र में पुन: सरकार बना ली। 1977 की तर्ज पर केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने जनता पार्टी के बहुमत वाले विधानमंडलों को भंग कर राज्य-सरकारें गिरा दीं। 1980 में राजस्थान विधानसभा चुनाव हुए। सुराना कांग्रेस के मालूराम लेघा से हार गये।
1985 में कांग्रेस के गोपाल जोशी लूनकरणसर से उम्मीदवारी ले आये। सामने थे सुराना। टक्कर वाला चुनाव हुआ। सुराना जीते तो सही लेकिन बहुत मामूली अंतर से। 
1985-90 के बीच पूर्व जनता पार्टी के कुछ घटक फिर इकट्ठे हुए। जनता दल का गठन किया। 90 के चुनाव में जनता दल में चौधरी देवीलाल की ही चली। लूनकरणसर के जाट प्रभावी आधार पर जनता दल ने सुराना को टिकट देने से इंकार कर दिया। बीकानेर सीट से जनता दल के असल दावेदार मक्खन जोशी को दरकिनार कर सुराना को उम्मीदवार बनाया गया। सामने थे दो बार के विधायक और सूबे की सरकार में मंत्री बीडी कल्ला। कल्ला इस कार्यकाल में बहुत बदनाम हुए, भाइसा की पर्ची मुद्दा बना। दो दिन पूर्व तक कल्ला के खिलाफ माहौल ऐसा बना कि वे पक्का हारेंगे। चुनाव प्रचार बंद होने के दिन बीकानेर में उम्मीदवारों की रैली की परम्परा रही है। सुराना की रैली जबरदस्त थी। रैली शहर के अंदरून मोहता चौक से गुजर रही थी। वहां लगे पाटों पर प्रभावी समाज के बुजुर्ग बैठे ही रहते हैं, रैली के एक किशोर ने पर्ची फाड़—भाइसा री पर्ची फाटगी—कहते हुए वहां बैठे बुजुर्गों को चिड़ाया। सामने कांग्रेस के कल्ला इसी प्रभावी समाज से आते हैं। इस घटना ने ऐसा तूल पकड़ा कि उस प्रभावी समाज से जो भी सुराना के साथ मुखर थे, शान्त हो गये, वोटों का धु्रवीकरण हो गया और हारते-हारते कल्ला जीत गये।
 1993 में हुए मध्यावधि चुनाव में सुराना ने जनता दल (प्रगतिशील) नाम से अपनी पार्टी बनाई और पुन: लूनकरणसर लौट गये। उस चुनाव में सुराना के सामने कांग्रेस के भीमसेन चौधरी के अलावा भाजपा और जनता दल के भी उम्मीदवार थे। भीमसेन चौधरी का पुराना चुनाव क्षेत्र था और प्रदेश की सरकार में वे उपमंत्री भी रह चुके थे। सुराना भीमसेन चौधरी से लगभग छह हजार वोटों से हारे और दूसरे नम्बर पर रहे।
1993 के बाद कांग्रेस विरोध के चलते सुराना अन्तत: विपरीत विचारों वाली भाजपा में चले गये। कांग्रेस के अंधे-विरोध के चलते देशभर के अधिकतर समाजवादी विचारभ्रमित हो अप्रासंगिक होते गये।
1998 के चुनाव में भाजपा के सुराना के सामने भीमसेन चौधरी ही थे। जो लगभग छह हजार वोटों से फिर जीत गये। वयोवृद्ध भीमसेनजी का बीच कार्यकाल में निधन हो गया। वर्ष 2000 में मध्यावधि चुनाव हुए। समाने कांग्रेस से भीमसेन चौधरी के पुत्र वीरेन्द्र बेनीवाल थे। सूबे में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी भाजपा के सुराना 21 हजार से ज्यादा वोटों से विजयी हुए।
2003 के चुनाव में वीरेन्द्र बेनीवाल और सुराना फिर आमने-सामने हुए, बेनीवाल 20 हजार से ज्यादा वोटों से जीत गये।
इस हार के बाद और उदार विचारों के भाजपाई दिग्गज सुराना से अच्छे परिचित भैंरोसिंह शेखावत के सूबे की राजनीति से रुख्सत होने से सूबे की भाजपा में प्रोग्रेसिव सुराना की पूछ कम होती गयी। 2008 के चुनावों में भाजपा ने अन्तिम समय में लूनकरणसर की सीट चुनावी समझौते में इनेलोद को दे दी। सुराना की न केवल तैयारी धरी रह गयी बल्कि चुनाव लडऩे के विकल्प पर विचार करने की गुंजाइश भी नहीं रही। 1956 के बाद यह पहला चुनाव था जिसमें सुराना को मन मसोसकर बैठे रहना पड़ गया।
इस चुनाव के बाद सुराना समझ गये थे कि उनकी दाल भाजपा में अब नहीं गलेगी। एकला चालो रे की धुन पर वे 2013 के चुनाव की तैयारी में जुट गये, 'फल-टोकरी' जैसे चुनाव चिह्न के साथ निर्दलीय चुनाव में उतरे और कांग्रेस, भाजपा, सीपीएम, बीएसपी आदि-आदि के मैदान में होने के बावजूद लगभग पांच हजार वोटों से जीत गये। 
सुरानाजी की बड़ी खासियत यह थी कि वे चुनाव को खेल की भावना से लड़ते, हार-जीत का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता था। चुनाव बाद फिर अपने जन-प्रतिनिधि के धर्म निर्वहन में लग जाते।
2013 का यह चुनाव सुरानाजी का आखिरी था—85 की उम्र की वजह से अस्वस्थ रहने लगे। बावजूद इसके वे अपने क्षेत्र में लगातार दौरे करते, लोगों के काम करवाते।
अस्वस्थता की वजह से 2018 का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा। लेकिन बावजूद इसके 25 नवम्बर 2020 को निधन तक—संभव होने पर अपने क्षेत्र में भी जाते और बीकानेर और जयपुर के निज निवास पर आने वाले किसी को भी निराश नहीं करते। उनकी साख ऐसी थी कि 2019 का चुनाव न लड़ पाने और 88 की वय के बावजूद शासन-प्रशासन के हर स्तर के कारिन्दे से वे उसी रूआब-रूतबे से आमजन का काम कहते जैसे वे सत्ता में थे और अधिकारी और राजनेता तक भी अन्त तक उन्हें वैसा ही महत्त्व देते।
सुरानाजी के लिए इसीलिए कहता रहा हूं कि बीते 50 वर्षों में वे ऐसे बिरले राजनेता थे जिन्हें सही मायनों में जनप्रतिनिधि कहा जा सकता है।
व्यावहारिक राजनीति करने वालों को समाजवाद की समझ अपने में भले ही पैदा न करनी हो, पर जमीन से जुडऩे की कुव्वत उन्हें सुराना से सीखनी चाहिए थी। सुराना ही थे जो समाजवादी राजनीति को कुशलता और बिना गुरुडम से समझा-सिखा सकते थे, जिसकी जरूरत फिलहाल देश को है।
हाँ, ऐसी उम्मीद सुरानाजी से भी थी कि अपने अंतिम वर्षों में वे पेशेवर राजनीति छोड़कर कुछ नवयुवकों को समय देते। इससे एक वैचारिक टीम तैयार होती तो देश और समाज के प्रति असल कर्तव्य की पूर्ति भी वे करते और बौद्धिक ऋण से उऋण भी होते। ऐसा करने में सुराना सभी तरह से सक्षम और समर्थ थे। देश को फिलहाल ऐसे ही प्रयासों की जरूरत है। समाप्त
—दीपचन्द सांखला
6 सितंबर, 2024

Wednesday, December 20, 2023

बीकानेर जिले की सात विधानसभा सीटों के चुनाव-2023 परिणामों की पड़ताल

 पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं, परिणामों से जाहिर है कि हिन्दी पट्टी धर्म के धोखे में तरक्की के सभी आयामों को नजरअंदाज करने पर तुली है। आजादी से पूर्व देश की दुर्दशा के लिए आमजन जिम्मेदार नहीं था, क्योंकि शासन चुनने से लेकर प्रशासन तक में उसकी कैसी भी भूमिका नहीं थी, लेकिन आजादी बाद के लोकतन्त्रात्मक गणराज्य में उसका हस्तक्षेप शासन से लेकर प्रशासन की छोटी से छोटी ईकाई तक को नागरिक न केवल प्रभावित कर सकते हैं, बल्कि उसे बदल भी सकते हैं। आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम प्रजा हैं, नागरिक नहीं बन पाये, जिसका खमियाजा हमें ही भुगतना होगा।

यों तो सभी राज्यों के परिणामों की बात की जा सकती है। लेकिन राजस्थान के अपने जिले बीकानेर की सात विधानसभा सीटों में निकटतम प्रतिद्वन्द्वी की हार की पड़ताल कर लेते हैं। प्रत्याशियों के जीतने की वजह उसी से निकल आयेगी।

जिले की सात सीटों में क्रमश: बीकानेर पश्चिम, नोखा, श्रीडूॅँगरगढ़, लूनकरणसर, खाजूवाला, श्रीकोलायत और बीकानेर पूर्व के विधानसभा क्षेत्र परिणामों को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करते हैं।

बीकानेर पश्चिम : यहां भाजपा के जेठानन्द व्यास विजयी हुए हैं। वे चुनावी मोर्चे पर पहली बार उतारे गये। सामने कांग्रेस से दसवीं बार के प्रत्याशी डॉ. बीडी कल्ला थे। तीन हार के अलावा कल्ला 1980 से छह बार न केवल अपने क्षेत्र की नुमाइंदगी कर चुके हैं बल्कि सत्ता में जब भी कांग्रेस रही, उसमें भागीदार रहे हैं। प्राध्यापक की नौकरी करते कल्ला के साहबी की मन में थी—ब्यूरोक्रेट्स बनने का साहस वे चाहे न कर पाये—लेकिन राजनीति में आकर पहले ही चुनाव में जीते, सत्ता में भागीदार होकर साहब बनने की सनक साध ली। अपने क्षेत्र की सुध इतनी रखी कि जिस महकमे के मंत्री रहे—उनसे संबंधित काम करवा दिये, क्षेत्र की बाकी सुध को अपने अग्रज को सौंप कर—जिन्होंने स्वहितों के अलावा कभी किसी से मतलब नहीं रखा। हां, वे अपने प्रबंधकीय कौशल से अपने भाई को चुनाव जितवा देते, यद्यपि उसमें भी कई बार असफल रहे।

स्वजाति और स्वहित के प्रति दोनों भाई इतने आग्रही रहे कि जनआधार लगातार सिमटता गया। यही वजह है कि 2008 के बाद से 2018 को छोड़कर वे लगातार हारे हैं। 2018 में भी ओबीसी के गोपाल गहलोत को बी टीम के तौर पर खड़ा नहीं करवाते तो वह चुनाव भी हार जाते। जिस स्वाजाति पर ये कूदते रहे, 2023 के इस चुनाव में उसका बड़ा हिस्सा धर्मभीरू होकर भाजपा के साथ चला गया।

नोखा : यह क्षेत्र 2008 के परिसीमन में अनारक्षित हुआ। नोखा मूल के कांग्रेसी रामेश्वर डूडी—जो एक बार सांसद रह चुके थे। बीकानेर लोकसभा सीट आरक्षित होने पर उन्होंने नोखा विधानसभा क्षेत्र से सूबे की राजनीति साधने का मन बना लिया। जाट प्रभावी इस क्षेत्र से उसी समुदाय से आने वाले रामेश्वर डूडी 2008 से कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ते रहे हैं। लेकिन जीतना वे एक बार 2013 में ही संभव कर पाये। 'नोखा विकास मंच' नाम के निजी बैनर से राजनीति करते आये कन्हैयालाल झंवर का नोखा विधानसभा क्षेत्र में अच्छा प्रभाव रहा है। 2008 में वे चुनाव जीते भी, सामने थे कांग्रेस के रामेश्वर डूडी और भाजपा से नये चेहरे बिहारीलाल बिश्नोई।

2013 के चुनाव में इन तीन के अलावा भाजपा ने चेहरा बदल सहीराम बिश्नोई को उतारा। लेकिन जनता ने भाजपा का चेहरा निर्दलीय होते हुए भी बिहारी बिश्नोई को ही माना। क्योंकि बिहारी बिश्नोई ने लगातार सक्रिय रहकर क्षेत्र में पैठ बना ली थी। जीते रामेश्वर डूडी, दूसरे नंबर पर कन्हैयालाल झंवर और तीसरे नंबर पर निर्दलीय के तौर पर भी बिहारी बिश्नोई। 2013 के इस चुनाव में भाजपा यहां जमानत तो दूर की बात, साख भी नहीं बचा पाई।

2018 के चुनाव में कन्हैयालाल झंवर कांग्रेस उम्मीदवार होकर बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र में आ लिए। नोखा में कांग्रेस के रामेश्वर डूडी और भाजपा से फिर उम्मीदवारी ले आए बिहारी बिश्नोई के बीच के सीधे मुकाबले में बिहारी बिश्नोई जीत गये। सरकार न होते हुए भी बिहारी बिश्नोई अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे और सीधे मुकाबले में इस बार भी जीत जाते, लेकिन रामेश्वर डूडी की अस्वस्थता के चलते कांग्रेस ने उनकी पत्नी को उम्मीदवार बनाया—वे जीतीं। इस सीट पर मुकाबले में तीसरे प्रत्याशी कन्हैयालाल झंवर न होते तो सहानुभूति के बावजूद सुशीला डूडी नहीं जीत पातीं। बिहारी बिश्नोई ने गत 15 वर्षों में अपने क्षेत्र को अच्छे से साध लिया था।

श्रीडूँगरगढ़ : यह विधानसभा क्षेत्र 2001 में चूरू से बीकानेर जिले में शामिल किया गया। जहां 1998 के चुनाव में कांग्रेस से मंगलाराम और भाजपा से किशनाराम नाई प्रतिद्वन्द्वी रहे हैं। 1998, 2003 और 2008 में किसनाराम के मुकाबले मंगलाराम गोदारा ही जीतते रहे। लेकिन 2013 में किसनाराम नाई ने बाजी मार ली। 

2018 के चुनाव से पहले से ही सीपीएम के गिरधारी महिया बिजली मुद्दे पर आन्दोलनों के माध्यम से क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे। जिसके चलते 2018 के चुनाव में त्रिकोणीय मुकाबले में वे जीते और क्षेत्र में सक्रिय भी रहे। 2023 के इस चुनाव में कांग्रेस यह सीट सीपीएम के लिए छोड़ देती या उन्हें पार्टी में लेकर उम्मीदवार बनाती तो महिया ही जीतते, क्योंकि 2008 में पहली बार चुनाव लड़ चुके महिया अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं। लगातार दो बार हार चुके मंगलाराम गोदारा ने अपनी पुत्रवधू को पंचायत समिति प्रधान जितवा तो दिया लेकिन प्रधानपति पुत्र की वजह से क्षेत्र में उनकी साख कमजोर हो चुकी थी। बावजूद इसके इस बार भी कांग्रेस से उम्मीदवारी फिर ले आये। अन्तिम चुनाव का कार्ड खेल मुकाबले में आ भी लिए, लेकिन त्रिकोणीय मुकाबले में हार गये। भाजपा के ताराचन्द सारस्वत 2018 के बाद अपने इस दूसरे चुनाव में जीत गये और जनहित के काम आने वाले गिरधारी महिया तीसरे नम्बर पर रहे। 

लूनकरणसर : इस विधानसभा क्षेत्र की तासीर जिले के अन्य सभी क्षेत्रों से अलग रही है। क्योंकि जाट प्रभावी इस क्षेत्र में सबसे कम जाति समूह के मानिकचन्द सुराना न केवल नुमाईंदगी करते रहे हैं, बल्कि क्षेत्र में राजनीति करने के नये मानक भी बनाए हैं। हारे, चाहे जीते, सुराना अपने क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहते, लोगों के काम आते। समाजवादी पार्टी से जनता पार्टी, जनता दल और अपनी खुद की पार्टी से होते हुए कांग्रेस के अंध विरोध के चलते सुराना भाजपा में आ तो गये, लेकिन न कभी वे खुद भाजपा में रम पाये न पार्टी ने उन्हें रमाया। 2008 में भाजपा ने यह सीट समझौते में इनेलोद को दे दी और 2013 में भाजपा ने यहां से नये चेहरे सुमित गोदारा को उतार दिया। लेकिन 2013 में सुराना निर्दलीय खड़े हुए और जीत गए। भाजपा के सुमित गोदारा दूसरे और कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल तीसरे नम्बर पर रहे। यद्यपि 2018 के चुनाव में सुराना नहीं उतर पाए, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र से संपर्क बनाए रखा। 2018 का चुनाव कांग्रेस के वीरेन्द्र बेनीवाल के मुकाबले भाजपा के सुमित गोदारा ने जीता।

2023 के परिणाम देखें तो 2018 के चुनाव में इसकी स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी थी। सुरानाजी की तर्ज पर क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहने वाले कांग्रेस के डॉ. राजेन्द्र मूंड को 2018 में टिकट न मिलने पर उनकी टीम कांग्रेस के प्रत्याशी वीरेन्द्र बेनीवाल पर भीतरघात में लगे रहे, ऐसा कहा जाता है। इस बार जब दो बार के हारे वीरेन्द्र बेनीवाल की टिकट कटवा राजेन्द्र मूंड उम्मीदवारी लाने में सफल हुए तो बदले के लिए बजाय भीतरघात के, वीरेन्द्र बेनीवाल ने कांग्रेस से बगावत कर चुनाव में ताल ठोक दी। उधर भाजपा की टिकट न मिलने पर प्रभुदयाल सारस्वत लगातार दूसरी बार बगावत कर मैदान में उतर आये। इस तरह इस क्षेत्र का मुकाबला चतुष्कोणीय बन गया। लेकिन जैसे परिणाम आये हैं, उससे जाहिर है कि वीरेन्द्र बेनीवाल बगावत न करते तो डॉ. राजेन्द्र मूंड जीत सकते थे—क्योंकि मूंड नया चेहरा था और भाजपा से जीते सुमित गोदारा अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते क्षेत्र में अलोकप्रिय हो गये थे। सुना यह भी जाता है कि जाट प्रभावी लूनकरणसर का इस बार का चुनाव जाति से गोत्र में उतर आया था, क्योंकि चतुष्कोण के तीन कोण जाट समुदाय से थे—गोदारा, मूंड, बेनीवाल। 

खाजूवाला : यह सीट ऐसी है जिसे कांग्रेस के उम्मीदवार ने इस चुनाव में खुद हारी है। सूबे की सरकार में केबिनेट मंत्री गोविन्द मेघवाल पर पार्टी और नेता ने इतना भरोसा जताया कि न केवल राजस्थान कांग्रेस की चुनाव कैम्पेन कमेटी का संयोजक बनाया बल्कि बीकानेर संभाग के उम्मीदवारों के चयन में उनकी राय को पूरी तवज्जो दी। इतना ही नहीं, खाजूवाला सीट की जिन दो तहसीलों को जिलों के पुनर्गठन में नवगठित अनूपगढ़ को दे दी—उन्हें वापस बीकानेर जिले में शामिल किया गया। जिला पुनर्गठन प्रक्रिया में यह अकेला उदाहरण है। शायद यह भी वजह रही हो कि ऐसी महत्ती तवज्जो और जिम्मेदारी दिये जाने से गोविन्द मेघवाल की हेकड़ी और बढ़ गई। खाजूवाला-छतरगढ़ को बीकानेर में पुन: शामिल करने के बाद यों लगने लगा था कि यह सीट कांग्रेस अब आसानी से जीत लेगी। लेकिन चुनाव अभियान ज्यों-ज्यों परवान चढ़ा, गोविन्द मेघवाल और उनके प्रधान पुत्र गौरव चौहान के दिये घाव उघड़ते गये। बात यहीं नहीं रुकी, गोविन्द मेघवाल तो इतने नशे में थे कि चुनाव की घोषणा के बाद भी वे अपनी मुंहफटी पर लगाम नहीं लगा पाये।

भाजपा से सामने आये दो बार के यहीं से विधायक रहे डॉ. विश्वनाथ। विश्वनाथ की विनम्र, मिलनसार और साफ-सुथरी छवि ने चुनाव अभियान का पासा पलट दिया। क्षेत्र की अल्पसंख्यक बहुलता जो गोविन्द मेघवाल की संजीवनी थी, उसका बड़ा हिस्सा गोविन्द-गौरव बाप-बेटों के दुव्र्यवहार की वजह से छिटक कर भाजपा की ओर चला गया। हुआ यह कि कैम्पेन कमेटी के संयोजक होकर भी गोविन्द अपने ही क्षेत्र में उलझ कर रह गये। यद्यपि गोविन्द मेघवाल की पुत्री और पूर्व प्रधान सरिता चौहान ने पिता-भाई के डेमेज कंट्रोल की रात-दिन कोशिशें खूब की। लेकिन खाई इतनी गहरी थी कि सरिता की विनम्र और मिलनसार छवि उन्हें नहीं भर पायी। गोविन्द मेघवाल यह चुनाव जीतते और जिले की तीन सीटें जितवाने में सफल हो जाते तो बीकानेर लोकसभा की आरक्षित सीट बेटी सरिता चौहान के लिए सुरक्षित कर लेते। खैर!

कोलायत : यहां के पूर्व विधायक देवीसिंह भाटी के तेवरों से दो वर्ष पूर्व से ही लगने लगा था कि वर्तमान के विधायक और सूबे की सरकार में मंत्री भंवरसिंह भाटी के लिए जीत की राह आसान नहीं होगी। पता नहीं क्यों भंवरसिंह को इसका भान नहीं हुआ और हुआ तो उसकी कारी में वे क्यों नहीं लगे। क्षेत्र में विकास के प्रतिमान बनाने वाले, धीमी आवाज और विनम्र स्वभाव वाले भंवरसिंह भाटी की साख लगातार गिरती गयी। समूह के समूह नाराज होते गये। चुनाव घोषणा के साथ नोखा के पूर्व विधायक और कांग्रेसी रेवंतराम पंवार आरएलपी की टिकट के साथ बागी होकर चुनाव में उतर गये। रेवंतराम पंवार उस मेघवाल समाज से आते हैं जिसके वोटर कोलायत में सर्वाधिक हैं। मेघवाल समाज कोलायत क्षेत्र में भंवरसिंह के पीढिय़ों के प्रतिद्वंद्वी देवीसिंह भाटी से नाराज रहा है। क्षेत्र की दूसरी बड़ी जाति राजपूत, जिससे स्वयं भंवरसिंह और देवीसिंह आते हैं, इसलिए उसमें फंटवाड़ा तय था। 

वहीं मेघवाल समाज के वोटों में फंटवारा रोकने के लिए भंवरसिंह ने रेवंतराम को मनाने की कारगर कोशिशें नहीं की। कोढ़ में खाज का काम किया भाजपा के देवीसिंह भाटी के पौत्र अंशुमानसिंह को मिली टिकट ने। अंशुमानसिंह पूर्व सांसद दिवंगत महेन्द्रसिंह के पुत्र हैं, जिनके प्रति जिले में अलग तरह का लगाव रहा। भाजपा देवीसिंह कुटुम्ब को टिकट नहीं भी देती और खुद देवीसिंह निर्दलीय भी उतरते तो भी इस बार वे भंवरसिंह पर भारी पड़ते। जाट, बिश्नोई और कुम्हार समाज के जो वोट भंवरसिंह पिछले चुनावों में लेते रहे—उनमें भी भंवरसिंह के प्रति नाराजगी और असंतोष था। भंवरसिंह के चुनाव अभियान की ढुलमुल शुरूआत से यहां तक लगने लगा था कि भंवरसिंह अपनी हार मान चुके हैं। आखिरी तीन-चार दिनों में वे जरूर जुझार हुए, लेकिन तब तक युवा अंशुमान ने अच्छी-खासी बढ़त बना ली थी। इस तरह कहें तो जिले के तीनों मंत्री अपनी जीत की बिसात बिछाने में असफल रहे और कांग्रेस ने 2018 में जीती इन तीनों सीटों को खो दिया।

बीकानेर पूर्व : 2008 के परिसीमन के बाद से इस सीट पर लगातार हार रही कांग्रेस इस बार गंभीर जरूर थी—लेकिन पार नहीं पड़ी। चौथी बार भी यशपाल गहलोत के तौर पर नया चेहरा चाहे उतारा, लेकिन बहुत देर से। लो-प्रोफाइल यशपाल चुनाव अभियान को खड़ा करने में अंत तक असफल रहे। जबकि 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने कन्हैयालाल झंवर को भी यहीं बहुत देर से उतारा था, लेकिन अनुभवी झंवर ने टिकट घोषणा के दूसरे दिन ही चुनाव अभियान को खड़ा कर दिया। जातीय आधार पर कुछ खास न होने के बावजूद झंवर परिणाम में हार-जीत का फासला बहुत कम ले आए। इसके उलट अच्छे-खासे जातीय आधार के बावजूद यशपाल हार-जीत के फासले को तीन गुणा होने से नहीं रोक पाये।

यशपाल गहलोत लम्बे समय से शहर कांग्रेस अध्यक्ष हैं। अलावा इसके 2018 के चुनाव में बीकानेर पूर्व और पश्चिम में कांग्रेस की टिकटों को लेकर जो गपड़चौथ हुई, जिसके चलते बीकानेर पूर्व से संभावित उम्मीदवारों में यशपाल गहलोत का दावा गंभीर था, ऐसा होते हुए भी यशपाल गहलोत ने गत पांच वर्षों में क्षेत्र के आमजन से जुड़ाव कायम करने का प्रयास नहीं किया। जबकि सर्वथा निष्क्रिय और नाकारा सिद्धिकुमारी अपने खिलाफ भारी एंटीइन्कम्बेंशी के बावजूद चौथी बार इसलिए जीत गयीं कि जनता को उनका प्रतिद्वंद्वी दमदार नहीं लगा।

नतीजतन जो 2018 में जिले की सात सीटों में 3 कांग्रेस 3 भाजपा और 1 सीपीएम के पास थी, इस बार भाजपा ने छह सीटें ले ली, वहीं कांग्रेस के पास मात्र एक सीट रह गयी।

—दीपचन्द सांखला

21 दिसम्बर, 2023

Sunday, December 3, 2023

बीकानेर जिले की चुनावी राजनीति और 1962 के आम चुनाव

 देश के तीसरे आम चुनाव 1962 में हुए। आजादी बाद हुए तीनों चुनाव में न केवल परिसीमन हुए बल्कि प्रक्रिया में सुधार के साथ व्यावहारिक और त्रुटि-रहित होते गये। किसी देश के शासन में लोकतांत्रिक विकास की प्रक्रिया यही हो सकती है।

राजस्थान में लोकसभा की 22 सीटें हो गयीं, गंगानगर सीट अलग आरक्षित सिंगल सीट बनी—जो 2019 के चुनाव तक आरक्षित है। बीकानेर जिले की चार (नोखा-मगरा से अलग होकर कोलायत सीट अस्तित्व में आयी) और चूरू जिले की डूंगरगढ़, सरदारशहर तथा चूरू और रतनगढ़ सहित आठ विधानसभा सीटों के साथ बीकानेर लोकसभा क्षेत्र था।

1962 के इस चुनाव में बीकानेर से मात्र तीन उम्मीदवार थे। दो निर्दलीय और एक सीपीआई से। डॉ. करणीसिंह और किसनाराम निर्दलीय थे और सीपीआई से सुमेरसिंह। डॉ. करणीसिंह 176590 वोट लेकर विजयी हुए। दूसरे नंबर पर किसनाराम ने 61523 वोट लिए और सुमेरसिंह ने 13473 वोट। कांग्रेस ने उम्मीदवार न देकर डॉ. करणीसिंह का अपरोक्ष समर्थन किया।

इस वर्ष के विधानसभा चुनाव में बीकानेर की चार सीटें थीं। नोखा आरक्षित रही और इससे मगरा क्षेत्र अलग होकर अस्तित्व में आया कोलायत। लूनकरणसर और बीकानेर सीट थी ही। नोखा से कुल 5 उम्मीदवारों में रूपाराम फिर विजयी हुए। कांग्रेस के प्रभुदयाल दूसरे नंबर पर रहे। शेष तीनों उम्मीदवार निर्दलीय थे। 

लूनकरणसर से कुल सात उम्मीदवार थे। कांग्रेस के चौधरी भीमसेन 7783 वोट लेकर फिर विजयी हुए। दूसरे नंबर पर 6043 वोट लेकर सीपीआई के हुक्माराम गौड़ कड़ी टक्कर में रहे। ये हुक्माराम वे ही थे, जिन्होंने महाजन राजा के अत्याचारों के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व किया था। यहीं से स्वतंत्र पार्टी प्रजा समाजवादी पार्टी और जनसंघ के उम्मीदवार भी थे। लेकिन तीसरे नंबर पर 5316 वोटों के साथ निर्दलीय रामचन्द ही रहे।

इसी चुनाव में अस्तित्व में आयी कोलायत सीट को प्रजा समाजवादी पार्टी के मानिकचन्द सुराना ने अपना क्षेत्र बनाया और 7976 वोटों के साथ विजयी होकर विधानसभा पहुंचे। कुल 10 उम्मीदवारों में निर्दलीय चन्द्रसिंह ने 6320 वोट लिए और दूसरे नंबर पर रहे। बीकानेर शहर से निर्दलीय के तौर पर पहले विधायक रहे सेठ मोतीचन्द खजांची कांग्रेस से उम्मीदवार थे, जिन्होंने 5466 वोट लिए और तीसरे नंबर पर रहे। जनसंघ के मोहनलाल जोशी मात्र 663 वोट लेकर आठवें स्थान पर रहे। शेष सभी निर्दलीय उम्मीदवार थे। चन्द्रसिंह डॉ. करणीसिंह समर्थित थे। इस तरह समाजवादी मानिकचन्द सुराना ने इस चुनाव में सामन्तशाही और धनबल को एक साथ परास्त किया।

1962 के आम चुनाव से बीकानेर शहर के चुनाव रोचक बन पड़े। शहर से कुल 8 उम्मीदवार मैदान में थे। प्रजा समाजवादी पार्टी के मुरलीधर व्यास 11725 वोट लेकर दूसरी बार विधानसभा पहुंचे। कांग्रेस के स्वतंत्रता सेनानी मूलचन्द पारीक 9673 वोट लेकर दूसरे नंबर पर रहे। कांग्रेस के चुनाव प्रचार में खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आए, स्टेडियम में आम सभा को संबोधित किया।

तीसरे नंबर पर 3508 वोट लेकर निर्दलीय गोपाल जोशी रहे। तब के युवा गोपाल जोशी बाद में इसी सीट से 1972 में कांग्रेस से और 2008 और 2013 में 'बीकानेर पश्चिम' बनी सीट से भारतीय जनता पार्टी से विधायक रहे। गोपाल जोशी के पहले चुनाव अभियान की खास बात थी बीकानेर का बौद्धिक जगत का उनके साथ होना—जिनमें मनीषी डॉ. छगन मोहता प्रमुख थे। 

इन्हीं बौद्धिकों की बदौलत जोशी की आम सभाओं को लोग सुनने पहुंचते थे। जनसंघ ने इस चुनाव में अपना उम्मीदवार फिर बदला। आरएसएस स्वयंसेवक तथा जिला जज रहे जेठमल आचार्य न्यायिक सेवा से इस्तीफा देकर जनसंघ से चुनाव मैदान में उतरे लेकिन उन्हें मात्र 1265 वोट मिले और 5वें नंबर पर रहे। इसी चुनाव में फिल्मी गीतकार भरत व्यास और चरित्र अभिनेता बीएम व्यास के बड़े भाई जनार्दन व्यास निर्दलीय प्रत्याशी थे। लेकिन वे बताते अपने को (अपंजीकृत) जय हजारा दल का प्रत्याशी। दोनों अनुज उनके प्रचार में बम्बई से  बीकानेर आये, फिल्मी दुनिया के प्रति आकर्षण तब भी कम नहीं था। जनार्दन व्यास को सबसे कम मात्र 245 वोट मिले।

इस चुनाव के परिणामों के बाद एक ऐसी बात हुई जिसने शहर की राजनीति में प्रभावी पुष्करणा समाज में फाँक पैदा कर दी—जिसकी छाया 2023 के इस चुनाव में भी दबे पांव चल रही है। प्रजा समाजवादी पार्टी के विजयी उम्मीदवार मुरलीधर व्यास के समर्थकों के एक अपरिपक्व समूह ने गोपाल जोशी की सभाओं की लोकप्रियता से खुंदक बना ली। व्यासजी की जीत का जुलूस जब अंदरूनी शहर में पहुंचा तो कहीं से घोड़ी ले आये, (गोपाल जोशी का चुनाव चिह्न घोड़ा ही था) और व्यासजी को उस पर बिठाकर साले की होली स्थित गोपाल जोशी के घर के सामने ले गये और गाने लगे—हर आयो...हर आयो...हर आयो...काशी रो वासी आयो...घोड़ी चढ़ गोविन्द आयो... सासूजी ने घणों सुवायो। बीकानेर के परम्परागत पुष्करणा समाज में ये गीत बरात ढुकाव (दुल्हन के घर पहुंचने) पर गाया जाता है। यह सब इतना अचानक घटित किया गया कि खुद मुरलीधर व्यास समझ नहीं पाए। 

बीकानेर पुष्करणा समाज के वरिष्ठों पर यह बात नागवार गुजरी। जिसे हवा मिली मुरलीधर व्यास के जैसलमेर मूल के पुष्करणा होने से। हुआ यह कि मुरलीधर व्यास के रातदिन के जनजुड़ाव, आमजन के आन्दोलनों और विधानसभा में जनहित के मुद्दों पर सक्रियता के बावजूद 1967 का चुनाव हार जाने की एक वजह उक्त घटना बनी। बीकानेर मूल के भीलवाड़ा प्रवासी ट्रेड युनियन नेता गोकुलप्रसाद पुरोहित को 1967 के चुनाव में कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया। बीकानेर मूल के पुष्करणाओं ने 1962 के चुनाव की उक्त घटना की गाँठ खोल ली और गोकुलप्रसाद के साथ हो लिए। मुरलीधर व्यास हार गये और गोकुलप्रसाद को जीता दिया।

राजनीति की इस चुनावी शृंखला के लिए जानकारियां अनेक लोगों से मिली है। जिनमें एक मानिकचन्द सुराना के पुत्र जितेन्द्र सुराना भी हैं। कुछ जानकारियां इन्हीं से हासिल हो पाई जो अन्यत्र कहीं से नहीं मिली थी। आभार।

—दीपचन्द सांखला

30 नवम्बर, 2023

Wednesday, November 22, 2023

बीकानेर जिले की चुनावी राजनीति और 1957 का आम चुनाव

 1951 के पहले आम चुनाव में बीकानेर-चूरू सिंगल सीट और गंगानगर- झुंझुनूं डबल (एक अनुसूचित जाति तथा दूसरी सामान्य) थी। 1957 में हुए परिसीमन में झुंझुनूं की अलग सीट बना दी गयी और गंगानगर को शामिल कर बीकानेर को बनाया गया। राजस्थान की कुल 18 लोकसभा सीटों में 13 सिंगल (सामान्य) 4 डबल और एक अनुसूचित जनजाति की सीट (बांसवाड़ा) थी।

बीकानेर डबल सीट में सामान्य उम्मीदवार के तौर पर डॉ. करणीसिंह फिर खड़े हुए और जीते। वोट लिए दो लाख अठारह हजार। कांग्रेस से सामान्य सीट पर प्रो. केदार शर्मा उम्मीदवार थे। हां, यह वही केदार शर्मा हैं, जो 1951-52 में गंगानगर-झुंझुनूं डबल की सामान्य सीट पर समाजवादी पार्टी से उम्मीदवार थे। प्रो. केदार एक लाख उन्तीस हजार वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे। बाद में प्रो. केदार फिर से समाजवादी पार्टी में चले गये और गंगानगर के बहुत लोकप्रिय नेता हुए। दूसरी अनुसूचित जाति की सीट पर पन्नालाल बारूपाल कांग्रेस से उम्मीदवार थे जो 1951 में गंगानगर-झुंझुनूं सीट पर कांग्रेस के सांसद थे। बारूपाल एक लाख इकतालीस हजार वोट लेकर डबल की दूसरी सीट से विजयी घोषित हुए।

बीकानेर जिले की विधानसभा सीटों की बात करें तो 1957 के चुनाव में तीन निवार्चन क्षेत्र थे बीकानेर शहर, लूनकरणसर और नोखा (डबल—दूसरी सीट अनुसूचित जाति की)। इस तरह इस चुनाव में जिले की चार सीटें हुईं। 

बीकानेर शहर सीट से प्रजा समाजवादी पार्टी से मुरलीधर व्यास खड़े हुए। मुरलीधर व्यास 1951-52 के पहले आम चुनाव में बीकानेर शहर विधानसभा सीट से और बीकानेर-चूरू लोकसभा सीट—दोनों से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। व्यास ने विधानसभा सीट पर तो ठीकठाक वोट लिए लेकिन लोकसभा सीट पर उनकी उपस्थिति खास नहीं रही। लेकिन इस पहले आम चुनाव के बाद उन्होंने बीकानेर शहर को अपना सेवा क्षेत्र बना लिया। पांच वर्ष आमजन के काम आये—जनता के मुद्दों पर भिड़ते रहे। 1957 का चुनाव मुरलीधर व्यास ने अपने कामों के आधार पर 12089 वोट लेकर अच्छे-खासे अन्तर से जीता। कांग्रेस से पुन: 1951-52 वाले ही अहमद बख्स सिंधी उम्मीदवार थे। जिन्होंने 5419 वोट लिए। इस चुनाव में जनसंघ से उम्मीदवार थे चांदरतन आचार्य उर्फ शेरे चांदजी, जिन्होंने मात्र 1202 वोट लिए। बीकानेर में जनसंघ की स्थापना का श्रेय आरएसएस के स्वयंसेवक चांदजी को ही था। 1951 में जब जनसंघ की स्थापना के बाद राजस्थान इकाई के गठन के लिए जयपुर में बैठक हुई तो बीकानेर से चांदजी ने ही नुमाइंदगी की थी।

चौथे उम्मीदवार थे डॉ. धनपतराय। 1951-52 के चुनाव में डॉ. धनपतराय नामांकन के बावजूद इसलिए निष्क्रिय हो गये क्योंकि करपात्री महाराज के आग्रह पर अन्तिम समय में उनके भाई पं. दीनानाथ रामराज्य परिषद से उम्मीदवार हो गये थे। पं. दीनानाथ मेजर जनरल जयदेवसिंह के निजी सहायक थे और आजादी बाद बीकानेर में ही रसद अधिकारी के तौर पर सेवाएं दी। इस चुनाव में कमला नाम की महिला भी उम्मीदवार थीं। इस तरह आजादी बाद बीकानेर में किसी महिला के चुनाव लडऩे का बीकानेर में पहला उदाहरण बनीं।

1951-52 के चुनाव में बीकानेर तहसील नाम वाली सीट 1957 में लूनकरणसर पहचान से अस्तित्व में आयी। लेकिन इस चुनाव की बात करने से पहले-बीकानेर तहसील सीट के 1956 में हुए उपचुनाव की बात करते हैं।

1951-52 के चुनाव में यहां से निर्दलीय जसवंतसिंह दाऊदसर विजयी हुए थे। जो केन्द्र की संसद के ऊपरी सदन-राज्यसभा के गठन के बाद राजस्थान विधानसभा से राज्यसभा के सदस्य के तौर पर निर्वाचित होकर चले गये। इस तरह बीकानेर तहसील की यह सीट खाली हो गयी थी। उप चुनाव हुए—जिसके माध्यम से बीकानेर को मानिकचन्द सुराना जैसा जननेता मिला। सुरानाजी 25 वर्ष के हुए ही थे। सुरानाजी ने बीकानेर तहसील सीट में हो रहे इस उपचुनाव से प्रजा समाजवादी पार्टी से ताल ठोक दी। सामने कांग्रेस से थे रामरतन कोचर। कोचर 1951-52 के चुनाव में नोखा-मगरा से कांग्रेस के उम्मीदवार थे लेकिन हार गये थे। 1956 के इस उपचुनाव में रामरतन कोचर 7181 वोट लेकर विजयी हुए और सुराना को मिले 4469 वोट।

उपचुनाव के एक वर्ष बाद ही 1957 में आम चुनाव होने ही थे। जैसा बताया कि परिसीमन के बाद यह सीट लूनकरणसर नाम से अस्तित्व में आयी। कुल छह उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे। जिसमें दल विशेष के केवल एक चौधरी भीमसेन ही कांग्रेस से उम्मीदवार थे, शेष पांच निर्दलीय। चौधरी भीमसेन पेशे से वकील थे और बाद में इसी सीट से विजयी होकर सूबे में राज्यमंत्री रहे वीरेन्द्र बेनीवाल के पिता। चौधरी भीमसेन 4838 वोट लेकर विजयी हुए। दूसरे नम्बर पर 2874 वोट लेकर निर्दलीय उम्मीदवार सोहनलाल रहे।

बीकानेर जिले का तीसरा निर्वाचन क्षेत्र था नोखा, लेकिन सीटें इसकी दो थीं। एक अनारक्षित और दूसरी आरक्षित। मताधिकार का प्रयोग करने वालों को दो-दो वोट देने थे। इस चुनाव में दोनों ही उम्मीदवार निर्दलीय जीते। 

आरक्षित सीट से रूपाराम और अनारक्षित से गिरधारीलाल भोबिया। रूपाराम के पुत्र रेंवतराम पंवार भी बाद में यहीं से दो बार विधायक रहे। क्षेत्र की अनारक्षित सीट पर कांग्रेस से उम्मीदवार थे, कानसिंह रोड़ा जो 1951-52 के चुनाव में यहीं से निर्दलीय विधायक चुने गये थे, लेकिन 1957 के इस चुनाव में अच्छे-खासे अंतर से हारे। 

1956 में बीकानेर तहसील से लडऩे वाले मानिकचन्द सुराना इस चुनाव में नोखा से खड़े हुए लेकिन पेशे से वकील सुराना चुप नहीं बैठे, भोबिया को चुनौती देने का सुराग ढूंढने लगे, मिल भी गया। भोबिया 25 वर्ष के हुए ही नहीं थे। सुराना ने भोबिया के 10वीं के सर्टीफिकेट के साथ उनके निर्वाचन को चुनौती दी और निर्वाचन रद्द करवा दिया। इस तरह जिले में दूसरे उपचुनाव की भूमिका बनी। बाद में भोबिया की पहचान भले राजनेता की बनी और जिले की ग्रामीण राजनीति में उनकी अच्छी पैठ रही।

इस तरह 1951-52 के बाद 1957 के ये चुनाव बीकानेर जिले में राजनीति की जाजम साबित हुए। 

—दीपचन्द सांखला

23 नवम्बर, 2023

Wednesday, November 15, 2023

1951-52 के पहले आम चुनाव के हवाले से बीकानेर जिले की शुरुआती राजनीति की बात

 भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। डॉ. अम्बेडकर की अध्यक्षता में संविधान सभा की मसौदा कमेटी ने संविधान तैयार किया, जिसे 26 नवम्बर 1949 को देश ने अपनाया। मार्च 1950 में सुकुमार सेन पहले मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किये गये। अप्रेल 1950 में भारत की अंतरिम संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम पारित किया जिसके द्वारा चुनाव आयोग को संसद और राज्यों के विधान मंडलों के चुनाव संचालित करने का अधिकार दिया गया।

26 जनवरी 1950 को भारत सरकार के अधिनियम 1935 के स्थान पर भारत के संविधान को लागू कर दिया गया। इस तरह भारत एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक संघीय गणराज्य के तौर पर अस्तित्व में आया। जिसके तहत भारत के पहले आम चुनाव की प्रक्रिया शुरु की गयी जो 25 अक्टूबर 1951 को शुरू होकर 21 फरवरी 1952 को संपन्न हुई।

अंग्रेजों की लगभग 200 वर्षों की गुलामी में सब तरह से छिन्न-भिन्न हुए देश के आधारभूत विकास की प्रक्रिया के साथ-साथ लोकतांत्रिक विकास को अपनाना कम उल्लेखनीय नहीं है।

पहला चुनाव—इतना बड़ा देश। सीमित साधनों और व्यवस्थाओं में कुशलता से चुनाव संपन्न हुए। उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न तो आवंटित हुए लेकिन वे बैलेट पर न होकर उम्मीदवार वार लगी पेटियों पर चस्पा किये गये। मतदाताओं को दी गई पर्ची अपनी पसंद के उम्मीदवार के चुनाव चिह्न लगी मतपेटी में डालना था। 1951-52 तथा 1957 के चुनाव में मतदाता की अंगुली पर आज की तरह काला निशान नहीं लगाया जाता था। जब ये सामने आया कि कुछ लोग दूसरे का वोट डालने फिर आ जाते हैं तो इसका तोड़ ढूंढा गया और 1962 के चुनाव से काला निशान लगाया जाने लगा। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ हुवे, लेकिन मतदान प्रत्येक क्षेत्र में एक ही तय दिन में होने थे सो लोकसभा और विधानसभा की मतदान की पेटियां प्रत्येक मतदान केन्द्र पर अलग-अलग कमरों में रखी गयी थीं।

अभी जो एक देश एक चुनाव का राग शुरू किया गया है, उसके प्रभाव में आने वालों की जानकारी के लिए बता दें कि 1951-52, 1957, 1962 और 1967 तक के लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही हुए थे। इस लोकतांत्रिक अनुष्ठान की संक्षिप्त जानकारी के बाद बात बीकानेर-चूरू लोकसभा क्षेत्र और बीकानेर के विधानसभा चुनावों की पड़ताल कर लेते हैं।

अनुसूचित जाति के लिए सीटें आज की तरह सुरक्षित नहीं थीं। अनुसूचित जाति के लिए तय क्षेत्रों में दो उम्मीदवार खड़े हुए। एक अनुसूचित जाति का उम्मीदवार और दूसरा शेष सभी जाति-धर्म वालों का उम्मीदवार। प्रत्येक मतदाता को दो वोट देने थे। एक वोट आरक्षित श्रेणी के अपने पसंद के उम्मीदवार को और दूसरा गैर आरक्षित के उम्मीदवार को। 1951-52 के चुनाव में अजमेर अलग राज्य था। राजस्थान की कुल 18+2 (सुरक्षित) कुल 20 लोकसभा सीटें थीं। गंगानगर-झुंझुनंू के अलावा भरतपुर-सवाईमाधोपुर से भी एक अनुसूचित जाति वर्ग से उम्मीदवार होता था और डूंगरपुर-बांसवाड़ा से अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार, डूंगरपुर-बांसवाड़ा की सीट पूर्णतया अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित थी। तब झुंझुनूं-गंगानगर की एक लोकसभा सीट (सुरक्षित) थी तो बीकानेर-चूरू को मिलाकर गैर सुरक्षित।

बीकानेर-चूरू लोकसभा क्षेत्र से चार उम्मीदवार मैदान में थे। बीकानेर राजघराने के मुखिया डॉ. करणीसिंह (निर्दलीय), कांग्रेस से खुशालचन्द डागा, सोशलिस्ट पार्टी से मुरलीधर व्यास और किसान जनता संयुक्त मोर्चे से रघुबरदयाल गोईल। रघुबरदयाल गोईल वही हैं जिन्होंने आजादी के आंदोलन में लम्बे समय तक रियासती यातनाएं झेलीं, देश निकाला झेला और जो राजस्थान की पहली अन्तरिम सरकार में मंत्री रहे, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया। उम्मीदवार बनाया स्थानीय सेठ खुशालचन्द डागा को—मतलब पैराशूट से उम्मीदवार उतारने का सिलसिला नया नहीं है।

चुनाव में 47.19त्न मतदान हुआ। यह आश्चर्यजनक है कि एक भी वोट खारिज नहीं बताया गया। मतदाताओं में गुलाम मानसिकता वाले प्रजा भाव और राजाओं के प्रति राज जाने की सहानुभूति के चलते डॉ. करणीसिंह ने यह पहला चुनाव भारी मतों से जीता, मतलब मतदाता संवैधानिक नागरिक होने के भान से तब पूरी तरह मुक्त थे—आज भी लगभग वैसा ही है।

जैसा कि बताया कि 1951-52 सहित प्रथम चार आम चुनाव लोकसभा-विधानसभाओं के साथ-साथ हुवे थे। तो बात अब बीकानेर के विधानसभा चुनावों की करते हैं। जिले की तीन विधानसभा सीटों पर बीकानेर शहर से कुल दस उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। जिनमें निर्दलीय होते हुए भी जीत कर महत्त्वपूर्ण हो गये मोतीचन्द खजांची, रामराज्य परिषद के पं. दीनानाथ भारद्वाज, कांग्रेस के अहमद बख्स सिंधी, सोशलिस्ट पार्टी से मुरलीधर व्यास, जनसंघ से ईश्वरदत्त भार्गव और शहर के नामी हेल्थ प्रेक्टीशनर और बीकानेर नगर परिषद के प्रथम निर्वाचित सभापति डॉ. धनपत राय। इनमें पं. दीनानाथ और डॉ. धनपतराय सगे भाई थे।

लोकसभा चुनाव के विजयी प्रत्याशी और रियासती उत्तराधिकारी करणीसिंह का चुनाव चिह्न तीर कमान था। बैलेट पर मुहर नहीं लगती थी। लोकसभा और विधानसभा की अलग-अलग कमरों में रखी चुनाव चिह्न लगी मतपेटियों में मतदाता को मतदान अधिकारी से मिली पर्ची को डालना था। संयोग कहें कि चुनाव चिह्न चयन की चतुराई, सेठ मोतीचन्द खजांची का चुनाव चिह्न भी तीर कमान था। हुआ यह कि राजा के प्रति भक्ति और सहानुभूति में अधिकतर मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव की मतपर्चियां भी तीर कमान चुनाव चिह्न वाली मतपेटियों में डाली और बाहर आकर कहते सुने गये कि मैं राजाजी को दो वोट डाल के आया हूं, यह बात बुजुर्गों से लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं। इस तरह पहले विधानसभा चुनाव में कुल पड़े 12708 वोटों में सर्वाधिक 5095 वोट लेकर खजांची चुनाव जीत गये।

4546 वोट लेकर दूसरे नम्बर पर रहे उगते सूरज चुनाव चिह्न के साथ राम राज्य परिषद के पं. दीनानाथ का किस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है। शहर में बेहद लोकप्रिय चिकित्सक और पं. दीनानाथ के बड़े भाई डॉ. धनपत राय नामांकन दाखिल कर चुनाव अभियान में लगे थे। तभी करपात्री महाराज बीकानेर आए और पं. दीनानाथ के रानी बाजार स्थित घर पहुंच कर आग्रह किया कि आपको रामराज्य परिषद के उम्मीदवार के तौर पर बीकानेर शहर से चुनाव में खड़े होना है। पं. दीनानाथ करपात्री महाराज का आग्रह टाल नहीं पाए। आखिरी दिन नामांकन भर मैदान में उतर गये। अग्रज डॉ. धनपत राय ने असमंजस से निकल नामांकन वापिस लेने का तय किया तब तक नाम वापसी का समय निकल चुका था। अत: उन्हें यह प्रचारित ही करना पड़ा कि मैं छोटे भाई पं. दीनानाथ के पक्ष में चुनाव मैदान से हट रहा हूं। बावजूद इसके डॉ. धनपत राय को 529 वोट मिले। हार-जीत का अंतर भी लगभग इतना ही था। डॉ. धनपत राय के पिता मूलत: पंडोरी पंजाब से थे, जिन्होंने सादुल स्कूल में ऊर्दू अध्यापक के तौर पर सेवाएं दी। डॉ. धनपरात राय व पं. दीनानाथ के संबंध में जानकारी उनके परिजनों हरिनाथ, लाजपतराय और भारद्वाज डेयरी वाले श्यामनाथ से मिली।

कांग्रेस ने लोकसभा के अपने उम्मीदवार की तरह विधानसभा के लिए बीकानेर शहर से उम्मीदवार पैराशूट से उतारा। उम्मीदवार थे बीकानेर मूल के अहमद बख्स सिन्धी—जोधपुर में वकालात कर रहे थे। सिन्धी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के गोल्ड मेडलिस्ट थे और रियासती असेम्बली के माध्यम से केबीनेट मिनिस्टर रह चुके थे। सिन्धी 4533 वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। सिन्धी ने 1957 का चुनाव भी यहीं से लड़ा और दूसरे नंबर पर रहे। लेकिन 1980 के चुनाव में कांग्रेस ने इन्हें जोधपुर शहर से उम्मीदवार बनाया—जीते और पहले विधानसभा उपाध्यक्ष और बाद में राजस्थान के विधि मंत्री रहे।

आजादी बाद 1948 में नवगठित सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक तथा राजस्थान राज्य की पार्टी इकाई का पहला अधिवेशन बीकानेर में हुआ। इस तरह सोशलिस्टों ने शहर में आधार भूमि बनाई जिसके प्रभाव में जैसलमेर मूल के, वर्धा में पले-पढ़े और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले चुके मुरलीधर व्यास ने अपना कार्यक्षेत्र अपने ससुराल बीकानेर में बनाया। 1951-52 के पहले चुनाव में व्यास सोशलिस्ट पार्टी से उम्मीदवार हुए और 2318 वोट लेकर चौथे नम्बर पर रहे। लेकिन अपनी कर्मभूमि बना चुके व्यास आमजन के मुद्दों पर जुझारू रहे, जिसकी वजह से 1957 और 1962 के चुनाव वे यहीं से जीते और विधानसभा में हमेशा मुखर रहे।

एक और उम्मीदवार-जनसंघ के प्रत्याशी रिवाड़ी मूल के ईश्वरदत्त भार्गव का उल्लेख जरूरी है। 1951 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के लोगों द्वारा स्थापित इस पार्टी की राजस्थान इकाई का गठन भी थोड़े दिनों बाद हो गया, जिसकी स्थापना बैठक में बीकानेर का प्रतिनिधित्व चांदरतन आचार्य उर्फ शेरे चांद ने किया था। 1951-52 के चुनाव में ईश्वरदत्त उम्मीदवार थे, चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उनका उल्लेख इतना ही है। बीकानेर के 75 पार के किसी भी आरएसएस पदाधिकारी से ईश्वरदत्त के  बारे में जानकारी नहीं मिली। सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवक 96 वर्षीय गेवरचन्द जोशी का पता चला। अशक्त और अव्यवस्थित स्मृति के चलते उनसे दो बार में कुछ हासिल नहीं हुआ। तीसरी बार गौरीशंकर आचार्य के माध्यम से सम्पर्क हुआ तो उन्होंने ही बताया कि ईश्वरदत्त भार्गव थे जिनका के.ई.एम. रोड पर फलैक्स शूज का शो-रूम था एवं रोशनी घर के पास रहते थे। भार्गव समाज के अविनाश भार्गव से जानकारी कर ईश्वरदत्तजी की पौत्री रुचिरा भार्गव के माध्यम से पूरी जानकारी मिली।

बीकानेर शहर के अलावा जिले की तब दो विधानसभा सीटें और थीं। लूनकरणसर इलाके की 'बीकानेर तहसीलÓ नाम से तथा कोलायत सहित 'नोखा-मगरा' नाम से। नोखा-मगरा से इस चुनाव में निर्दलीय कानसिंह 7138 वोट लेकर जीते—कानसिंह के पुत्र रामसिंह रोडा बाद में बीकानेर देहात भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। दूसरे नम्बर पर रहे कांग्रेस के रामरतन कोचर जिन्हें 5752 मत मिले। रामरतन कोचर ही थे जिन्होंने बीकानेर के सोशलिस्ट प्रभावी काल में कांग्रेस को बनाए रखा। कांग्रेस नेता वल्लभ कोचर उन्हीं के पुत्र हैं और सुमित कोचर पौत्र। इनके अलावा मनीराम ने 4271 वोट और भैरूंदास ने 4089 वोटों के साथ प्रभावी उपस्थिति दर्ज की, जिनके बारे में जानकारी नहीं मिल सकी। जैसाकि बताया कि बीकानेर जिले की तीसरी विधानसभा सीट बीकानेर तहसील नाम से थी। जो बाद में मोटामोट लूनकरणसर से पहचानी जाती है। 1951-52 में यहां से पांच उम्मीदवार थे। जीते जसवंतसिंह दाउदसर जो राज्यसभा के गठन के साथ ही राजस्थान विधानसभा से राज्यसभा सदस्य के तौर पर चुन कर चले गये। जिसकी वजह से जिले में 1956 में पहला उप चुनाव हुआ। रियासत में प्रभावशाली ठाकर जसवंतसिंह 10512 जैसे अच्छे-खासे वोट लेकर जीते, दूसरे नम्बर रहे कांग्रेस के कुंभाराम आर्य जिन्होंने 5996 वोट लिए। कुंभाराम आर्य बाद में राजस्थान के प्रभावी जाट नेताओं में शुमार हुए। इन दोनों के अलावा गोपाल चन्द (2327 वोट), गोपाल लाल (1610 वोट) और फारवर्ड ब्लाक माक्र्सिस्ट गु्रप के मेघाराम (1331 वोट)। इससे जाहिर है कि वापमंथी भी इस इलाके में पहले चुनाव से सक्रिय हैं।

इस प्रथम चुनाव में लोकसभा और जिले की तीनों सीटों पर कांग्रेसी उम्मीदवारों का न जीतना यह बताता है कि राष्ट्रीय आन्दोलन में जिले की महती भूमिका के बावजूद आजादी बाद कांग्रेस प्रभावी नहीं थी। दूसरी बात यह भी थी कि आज जिन नोखा और लूनकरणसर को जाट प्रभावी माना जाता है, तब दोनों क्षेत्रों से ठाकर जागीरदार जीते। मतलब देश आजाद होने के बावजूद तब तक जागीरदारों के प्रति सहानुभूति कायम थी, जो आज भी कमोबेश है।

—दीपचन्द सांखला

16 नवम्बर, 2023

Thursday, October 12, 2023

अपने शहर से प्यार करने वाले जन-प्रतिनिधि महबूब अली

हम उस बीकानेर के बाशिन्दे हैं जहां यह अतिशयोक्ति प्रचलित है कि आप पीने को घी मांग लें, सहर्ष मिलेगा, पानी मांग लिया तो पिलाया तो जायेगा लेकिन हर्ष गायब हो जाएगा यानी पानी यहां का दुर्लभतम द्रव्य रहा है। चतुराई से इसे वापरने के तौर-तरीके बताने वाले नब्बे से ऊपर के चश्मदीद आज भी हैं—परात में बैठकर नहाना, नहाए पानी से कपड़े धोना और फिर उस पानी के उपयोग के भी किस्से हैं, वहीं सूखी मिट्टी से बरतन मांजने का यहां प्रचलन पानी अवेरने का ही अंग रहा है।

हमारे शहर की छवि बाहर कुछ ऐसी थी कि लोग पूछते, आप बिना पानी गुजर कैसे करते हैं, लेकिन यहां वैसा अभाव कभी महसूस नहीं हुआ। पिछली सदी के आठवें दशक में जलदाय विभाग परम्परागत जलस्रोतों के मामले में लापरवाह हो लिया था। पम्प लगे परम्परागत कुएं सूखने लगे या पम्प खराब रहने लगे, सार संभाल में लापरवाही होने लगी।

1977 में सूबे की जनता पार्टी सरकार में मात्र सवा दो वर्ष जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी और जन संपर्क राज्यमंत्री के तौर पर शासन में रहे शहर के आदर्श जन-प्रतिनिधि, विधायक महबूब अली भगीरथ बने और ना केवल परंपरागत कुओं को बोर करवाया बल्कि नहरी पानी को हुसंगसर से बीकानेर लाने के लिए योजना बनवाई। विभागीय योजना इतनी महंगी थी कि एक शहर के लिए उतना बजट देना सरकार के लिए संभव नहीं था।

अभावों से आए महबूब अली ने जुगाड़ू योजना बनाई और पूरे प्रदेश के स्टोरों में रखे रियासतकालीन लोहे के एक आकार के नाकारा पाइपों को मात्र ट्रांसपोर्टेशन के खर्चे पर बीकानेर मंगवाया। यह विभाग के अधिकारियों के गले नहीं उतरा, नकारात्मक बातें कीं, कहा इन्हें तो निकाला गया है—वापस कैसे लगेंगे। महबूबजी ने कहा—अंडरग्राउंड डालने योग्य नहीं हैं तो पाइप खुले में डाल दो, लिकेज कहीं है तो मरम्मत हो जाएंगे, शहर को पानी दो। 

प्रदेश से कई जगहों से लाए गये इन पाइपों को सीधे ही हुसंगसर से स्टेडियम की टंकी तक जगह-जगह उतरवाया ताकि दूबारा ढूवाई ना लगे, आपस में जोडऩे के लिए वैल्ड करवाया, कहीं लीक थे तो उन्हें वैल्डिंग से बंद करवाया। पानी फिल्टर की टैम्प्रेरी व्यवस्था की। शहर को पानी मिलने लगा। महबूबजी यहीं नहीं रुके, स्थाई व्यवस्था के लिए फिल्टर प्लांट और बीछवाल जलाशय की योजना बनाकर सरकार को दी, बजट मिलने में आना कानी हुई तो मुख्यमंत्री को इस्तीफा भेज दिया। 

सकपकाए मुख्यमंत्री भैंरोसिंह शेखावत ने महबूबजी को ढुंढ़वाया तो मिले नहीं। निदेशक, जनसंपर्क और बाद में मुख्यमंत्री के प्रेस अटेची रहे के. एल. कोचर को कहा महबूब को ढूंढ़कर लाओ। महबूबजी उन्हें एसएमएस अस्पताल के सामने लगी थड़ी पर खाना खाते मिले। महबूबजी अस्पताल मार्ग के बंगले में ही रहते थे। कोचरजी ने जैसे-तैसे मनाकर उन्हें मुख्यमंत्री के बंगले ले गए और उनकी पत्नी के सामने बताया कि ये कहां और कैसे मिले, पहले तो शेखावत की पत्नी ने वादा लिया कि कम से कम शाम का खाना मेरे यहां खाओगे, महबूबजी ने सरकार रही तब तक खाया भी। 

मुख्यमंत्री ने इस्तीफा फाड़ा और कहा वित्तमंत्री मानिकचन्द सुराना से कह कर रास्ता निकालेंगे। शेखावत ने व्यक्तिगत रुचि लेकर रास्ता निकाला और बजट पारित हुआ। बीछवाल जलाशय और फिल्टर प्लांट बनने की बड़ी खबर तब के राजस्थान पत्रिका में छपी थी। योजना पर काम शुरू हुआ। इस बीच जनता पार्टी की सरकार चली गई। शहर को बोर हुए रियासतकालीन कुंओं और अस्थायी फिल्टर व्यवस्था से राजस्थान नहर से पेयजल मिलने लगा। 

इसे कहते हैं भगीरथी प्रयास, निरर्थक श्रेय लेने वालों के लिए अब क्या कहें! छोडि़ए।

―दीपचन्द साँखला

12 अक्टूबर, 2023

Thursday, September 21, 2023

बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र : जनसंघ/भाजपा की पड़ताल

 बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र 2008 के परिसीमन में अस्तित्व में आया। इससे पूर्व 1951-52 से 1962 तक यह क्षेत्र बीकानेर शहर सीट के साथ तो बाद 1962 के मोटामोट कोलायत विधानसभा क्षेत्र के साथ रहा। इस तरह जब तक जनसंघ थी तब तक इस क्षेत्र में उसका कोई वजूद नहीं था। 1977 तक कोलायत से कांग्रेसी और समाजवादी ही जीतते रहे। 1962 में जनसंघ ने कोलायत से मोहनलाल जोशी को उम्मीदवार जरूर बनाया लेकिन वे एक हजार वोट भी नहीं ले पाए। बाद इसके 1993 तक जनसंघ/भाजपा ने इस ओर मुंह नहीं किया। 1993 में देवीसिंह भाटी भाजपा में आये और जीते। कह सकते हैं भाजपा का इस क्षेत्र में प्रवेश इसी तरह हुआ। 1998 का चुनाव भी देवीसिंह ने भाजपा से ही जीता लेकिन 2003 के चुनाव से पूर्व देवीसिंह ने भाजपा से अलग होकर सामाजिक न्याय मंच बनाया और जीते। 2003 के इस चुनाव में भाजपा ने गोपाल गहलोत को उम्मीदवार बनाया। गोपाल गहलोत ने जमकर चुनाव अभियान चलाया—तीसरे नम्बर पर चाहे रहे—वोट उन्होंने 47 हजार से ऊपर लिये।

अपनी इस चुनावी यात्रा के उपरान्त यह क्षेत्र 2008 में 'बीकानेर पूर्वÓ विधानसभा क्षेत्र के रूप में अस्तित्व में आ लिया। प्रदेश में भाजपा की कमान वसुंधरा राजे के हाथ थी—पूर्व राजघराने की सिद्धिकुमारी को उन्होंने उम्मीदवारी के लिए तैयार कर लिया। इस क्षेत्र की अधिकतर बस्तियां पूर्व राजघराने की रिहायश जूनागढ़ और लालगढ़ पैलेस के आसपास की हैं। इन बस्तियों में रहने वालों के पूर्वज कामकाज के सिलसिले में राजघराने से जुड़े रहे थे। सिद्धिकुमारी को जितवाने में यह निष्ठा भी काम आयी। 2008 के चुनाव तक भाजपा में लौट चुके देवीसिंह भाटी को सिद्धिकुमारी की उम्मीदवारी जमी नहीं। उन्होंने विश्वजीत सिंह को निर्दलीय खड़ा भी किया, लेकिन सिद्धिकुमारी को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाये।

कांग्रेस ने डॉ. तनवीर मालावत को उम्मीदवार बनाया जो काफी कमजोर साबित हुए और लगभग 37 हजार वोटों से हार गये। सिद्धिकुमारी अच्छे-खासे वोटों से जीत भले ही गयी हों लेकिन उन्होंने अपनी विधायकी को केवल स्टेटस सिम्बल के तौर पर लिया, 5 बार के सांसद अपने दादा डॉ. करणीसिंह से भी ज्यादा। डॉ. करणीसिंह ने अपने क्षेत्र के लिए चाहे कुछ न किया हो लेकिन लोकसभा की बैठकों में जाते और कभी-कभार अपनी बात भी कहते। सिद्धिकुमारी ने कभी इतनी रुचि भी नहीं दिखाई।

2013 का चुनाव भी आ लिया। देशभर में कांग्रेस विरोधी माहौल का लाभ सिद्धिकुमारी को मिला। कांग्रेस ने भाजपा से आयात कर गोपाल गहलोत को उम्मीदवार बनाया। 2003 के कोलायत चुनाव के बाद गोपाल गहलोत ने कुछ तो खुद और कुछ विरोधियों ने प्रचारित कर उनकी छवि खराब कर दी। गोपाल गहलोत की इस छवि ने भी सिद्धिकुमारी को जीत की अनुकूलता दी। हालांकि गहलोत ने लगभग 46 हजार वोट लिए लेकिन पिछले चुनाव से हार के अन्तर को ज्यादा कम नहीं कर पाये।

कांग्रेस 2018 के चुनाव तक भी बीकानेर पूर्व से कोई प्रभावी चेहरा नहीं ढूंढ़ पायी। नामांकन के अंतिम दिनों में नोखा के बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच कांग्रेस ने कन्हैयालाल झंवर को टिकट दी। विकास पुरुष की छवि और चुनाव अभियान की उनकी पारंगता ने थोड़े समय में ही झंवर को सिद्धिकुमारी के बराबर ला खड़ा किया। परिणाम में मात्र 7 हजार वोटों से हारे। झंवर को 15 दिन और मिलते तो निश्चित तौर पर यह सीट निकाल लेते।

झंवर 2018 का चुनाव हार चाहे गये लेकिन उन्होंने 2023 के चुनाव का अपना लक्ष्य बीकानेर पूर्व ही तय कर लिया था। उसी तरह की तैयारी में लग भी गये। लेकिन अचानक वे किसी डील के तहत नोखा लौट गये। यदि झंवर बीकानेर पूर्व में लगे रहते तो इस बार वे अच्छी-खासी जीत दर्ज करते। हो यह भी सकता कि अपनी दिखती हार में सिद्धिकुमारी उम्मीदवारी के लिए तैयार ही न हो। डॉ. करणीसिंह को भी 1971 के चुनाव में जब लगा कि अगला चुनाव जीतना मुश्किल होगा तभी तय कर लिया था कि अगला चुनाव नहीं लडऩा। 1977 के चुनाव में माहौल साफ था कि कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं जीतना, तब भी उन्होंने जनता पार्टी की उम्मीदवारी लेने से इन्कार कर दिया।

2023 का चुनाव सामने है—कन्हैयालाल झंवर सामने नहीं है—यह जानकर सिद्धिकुमारी चुनाव के लिए फिर तैयार है। हालांकि इन पांच वर्षों में न तो विधानसभा में गयीं और न अपने क्षेत्र में आयीं। कभी-कभार आने-जाने को न गिनवाएं, गिनवाएंगे तो विधानसभा में न जाने और क्षेत्र में न आने की उनकी अरुचि ही जाहिर होगी।

रामेश्वर डूडी की अस्वस्थता के बाद नोखा में बदली राजनीतिक परस्थितियों में कन्हैयालाल झंवर कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर फिर बीकानेर पूर्व समय पर लौट आएं तो वे सीट निकाल लेंगे। दूसरी संभावना देवीसिंह भाटी की मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से हाल ही की मुलाकात के बाद यह सीट चुनावी समझौते में देवीसिंह भाटी को दे दी जाए तो न केवल कांग्रेस बल्कि देवीसिंह भी कई हिसाब एक साथ चुकता कर सकते हैं। देवीसिंह भाटी बिना कांग्रेस में गये भी कांग्रेस समर्थन से यह चुनाव बीकानेर पूर्व से अच्छे से जीत सकते हैं। एवज में कांग्रेस को पहला फायदा तो इस सीट पर लगातार तीन बार की जीत दर्ज कर चुकी भाजपा को हरवा देना और दूसरा फायदा देवीसिंह का कांग्रेस को मिलेगा लोकसभा चुनाव में—जिसमें वे कांग्रेस का समर्थन कर उसकी जीत का रास्ता आसान कर देंगे। बीकानेर की लोकसभा सीट पर कांग्रेस पिछले चार चुनाव हार चुकी है। देवीसिंह भाटी भी इस तरह न केवल अर्जुनराम मेघवाल से अपना हिसाब चुकता कर लेंगे बल्कि उस भाजपा को सबक भी दे देंगे जिनकी वजह से भाजपा में राजनीतिक कद घट गया।

रही बात माली और मुस्लिम उम्मीदवार के दावों कि तो वर्तमान माहौल में किसी मुस्लिम उम्मीदवार का जीतना संभव नहीं लगता। मालियों की छवि इतनी नकारात्मक बना दी गयी है कि माली उम्मीदवार को वोट देते लोग झिझकने लगे हैं। बीकानेर पूर्व की बजाय बीकानेर पश्चिम माली बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र है। ऐसे में भाजपा यदि बीकानेर पश्चिम से किसी प्रभावी माली उम्मीदवार पर दावं लगाए तो जीत पक्की है। वैसे भी बीकानेर की माली जाति बजाय कांग्रेस के—भाजपा के साथ है, इसलिए ऐसी दावेदारी का उनका हक भी बनता है।

—दीपचन्द सांखला

21 सितम्बर, 2023