Thursday, June 22, 2017

बात फिर एलिवेटेड रोड पर ही

इस जिक्र को पुनरावृत्ति ही कहा जायेगा। लेकिन शहर एक बढ़ती समस्या को लगातार भुगत रहा हो और उसके समाधान में छेद पर छेद करने की कोशिश जारी रहे तो समाधान होने तक बार-बार उसे ध्यान में लाना जरूरी है।
बीकानेर शहर की सबसे बड़ी समस्या फिलहाल कोटगेट क्षेत्र का यातायात है। हां, इसे रेल फाटकों  की समस्या नहीं कहा जा सकता। वैज्ञानिक शब्दावली में बात करें तो ट्रांसपोर्ट इंजीनियरिंग इसे यातायात की समस्या ही मानती है और तदनुरूप ही उसका समाधान भी तलाशना होगा। जयपुर में रेलवे लाइन शहर से पर्याप्त दूरी पर थी, विस्तार खाते शहर में भले ही बीच में लगने लगी हो। लेकिन दिल्ली और जोधपुर के बीच से गुजरती रेल लाइन का हवाला देना प्रासंगिक होगा। दिल्ली और जोधपुर में लगभग बीकानेर शहर की ही तरह बीच शहर से रेल लाइन गुजरती है जिसे नगरीय आयोजकों ने यातायात की ही समस्या माना और जहां जैसी व्यावहारिक जरूरत थी उसके अनुरूप अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज और एलिवेटेड रोड बनाकर समाधान पा लिये। दिल्ली-जोधपुर के शहरियों ने रेल लाइन को शहर से बाहर करने की हठ कभी की हो जानकारी में नहीं। एक हम बीकानेरिए हैं कि पिछले 25-30 वर्षों से जब से इस संकट की अनुभूति की तीव्रता बढ़ी तब से ही 'मचले हुए लाल' बन चाहते हैं कि इस समस्या से निजात हमें रेलवे लाइन को बाहर करके ही दिलवाई जाए। दुनिया का न सही अपने देश का ऐसा कोई उदाहरण इन पचीस वर्षों में बाइपास की मांग करने वालों ने बताया हो कि अमुक शहर की यातायात व्यवस्था को सुचारु करने के लिए रेल लाइन को शहर से बाहर किया गया, ध्यान में नहीं आ रहा।
कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का व्यावहारिक समाधान बाइपास ही होता तो अब तक अमली जामा पहना दिया जाता यहां अण्डरब्रिज, ओवरब्रिज बनाने की भी अपनी तकनीकी समस्याएं हैं इसीलिए सर्वाधिक व्यावहारिक समाधान के तौर पर एलिवेटेड रोड के सुझाव को ही व्यावहारिक माना गया। 2006-07 में इसका निर्माण शुरू होना था, जिसे चन्द लोगों के विरोध पर रोक दिया गया। अब फिर इसको बनाने की कवायद शुरू हुई तो वही लोग बाधा बनने को फिर तत्पर हैं।
पूरे शहर को राहत देने वाले इस समाधान पर यहां का मुख्यधारा का मीडिया भी गंभीर नहीं है। वह या तो उदासीन है या गुमराह करने में लगा है। या फिर अधकचरी या कहें एक बिन्दु उठाकर उसे सनसनी के तौर पर परोसने लगता है।
मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे बीकानेर शहर की इस समस्या के समाधान में रुचि रखती हैं। लेकिन जैसी शासन व्यवस्था हो गयी है उसके चलते सीधे संवाद के अभाव में समय जाया हो रहा है। हालांकि लूनकरणसर विधायक मानिकचंद सुराना इस समाधान को लेकर लगातार सक्रिय हैं। सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान से सुराना की इस समाधान को लेकर हुईं एकाधिक मुलाकातों ने बाधाएं काफी दूर की हैं।
अगली बात कहने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पैसा यदि केन्द्र से लेना है तो इस मार्ग को नेशनल हाइवे को सुपुर्द करना होगा। इसके मानी यह नहीं है कि इस पर नेशनल हाइवे के माफिक यातायात बेधड़क गुजरने लगेगा। शहरी क्षेत्र का यातायात यहां की पुलिस के यातायात महकमे की समयसारिणी और नियम कायदे से ही संचालित होना है।
इसे मुख्यमंत्री की सदिच्छा ही माना जायेगा कि वे चाहती हैं कि एलिवेटेड रोड जब बन ही रही है और केन्द्र की सरकार ने अच्छा खासा 135 करोड़ का बजट देने की हां कर दी तो क्यों न इसे टू-लेन की बजाय फोरलेन का ही बनाया जाए।
चूंकि यह सब सरकारी प्रक्रिया के अन्तर्गत नेशनल हाइवे से संबंधित महकमें को ही यह काम करवाना है इसलिए उसे ही कहा गया कि वह फोरलेन की संभावना तलाशे। महकमें ने निर्देश की पालना में सर्वे किया और वस्तुस्थिति से अवगत करवा दिया। तब भी कुछ अखबारों ने खबर यूं बनाई कि जैसे इसके वर्क आर्डर ही जारी हो गये और छाप दिया कि इतने मकान-भवन टूटेंगे, जबकि यह मात्र प्रस्ताव भर ही गया था। सरकार टूट-फूट नहीं चाहती, इसलिए फोर-लेन का प्रारूप ड्राप कर दिया गया। इसके बाद जब मुख्यमंत्री ने जानना चाहा कि क्या एलिवेटेड रोड थ्री लेन बन सकती है तो नेशनल हाईवे ने फिर प्रारूप बनाकर सरकार को वस्तुस्थिति से अवगत करवा दिया। थ्री लेन के निर्माण में भी कई भवनों को हटाये जाने की बात थी।
सरकार को भेजे गये थ्री-लेन के इस प्रारूप की खबर को भी मीडिया ने प्लांट इस तरह किया जैसे वर्क ऑर्डर ही जारी हो चुके हैं। ऐसी अधकचरी खबरों की वजह से शहर में बेवजह सनसनी फैलती है। जैसा कि जाहिर है सरकार चलाने वाली पार्टियों को हर पांच वर्ष में वोट लेने जनता के बीच जाना होता है। ऐसे में जहां तक हो सके वह तोड़-फोड़ के लिए कतई तैयार नहीं होती जिससे अवाम में बदमजगी या व्यापक नाराजगी फैले। इसीलिए थ्री-लेन एलिवेटेड रोड का यह प्रारूप भी शासन में पहुंचते ही ड्राप हो गया। सार्वजनिक निर्माण मंत्री यूनुस खान ने मुख्यमंत्री सेे मशवरा किया। मुख्यमंत्री ने फिर कहा बताते हैं कि टू-लेन एलिवेटेड रोड को सात मीटर से कुछ तो चौड़ा करवाया ही जाना चाहिए ताकि भविष्य में यातायात की असुविधा कम हो। जैसी कि जानकारी है इस एलिवेटेड रोड का प्रारूप अब नो या दस मीटर के हिसाब से बनवाया जायेगा। यदि ऐसा होता है तो शार्दूलसिंह सर्किल से स्टेशन रोड स्थित बिस्किट गली तक किसी भवन और दुकान में तोडफ़ोड़ संभवत: नहीं होनी है। क्योंकि इस मार्ग के बीच सबसे संकड़ी सड़क 51 फीट की सांखला पॉइन्ट की ही है। यह एलिवेटेड रोड यदि नो या दस मीटर की बनती है तो इसके निर्माण की अधिकतम चौड़ाई लगभग 35 फीट रहेगी।
खैर, इस तरह सनसनी फैलाने वाली खबरों के बाद वही लोग फिर सक्रिय हो लिए हैं जो रेल बाइपास की जिद पर अड़े हैं और अपनी जिद के चलते जो पूरे शहर को घोर असुविधा से गुजरते रहने को बाध्य करने पर तुले हैं। रेल बाइपास समर्थक इस समूह की जो भी आपत्तियां और आशंकाएं हैं उन पर 'विनायक' ने विस्तार से विनम्रतापूर्वक अपने 31 मार्च 2017 के अंक में लिखा है, चाहे तो वे उसे पढ़ सकते हैं। यदि उन्हें लगता है कि इसमें चर्चा की गुंजाइश है तो वह भी की जा सकती है। लेकिन उनसे अब आग्रह है कि इस शहर पर वे रहम खाएं और इस काम को होने दें। सरकारी समयचक्र का एक घेरा पांच वर्षों में पूरा होता है और जरूरी नहीं कि पांच वर्ष बाद आने वाली सरकार बीकानेर की इस समस्या पर सक्रिय हो। सरकारों के लिए राजस्थान बहुत बड़ा है और 33 जिलों में से एक बीकानेर ही राजस्थान नहीं है।
दीपचन्द सांखला

22 जून, 2017

Thursday, June 15, 2017

हेरिटेज वॉक और रात्रि पर्यटन : शहर के परकोटे पर संभव हो सकते हैं यों

होटल भंवर निवास और राजस्थान पत्रिका का एक संयुक्त आयोजन हुआ, जिसमें बीकानेर में रात्रिकालीन पर्यटन की संभावनाओं की पड़ताल की गई। पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार कई सुझाव आए। व्यावहारिक सुझावों को क्रियान्वित किया जाना चाहिए लेकिन ऐसा करेगा कौन आम आदमी को इसके लिए अवकाश नहीं है, जिन्हें अवकाश है तो भी संसाधन-सुविधाएं और अनुकूलताएं उनके लिए कौन जुटाएगा? जिस तरह की प्रशासनिक व्यवस्था है उसमें ऐसे कामों के लिए पर्यटन विभाग नाम से एक महकमा मुकर्रर है। लेकिन सरकारी महकमों की जैसी ठस कार्यप्रणाली है उसमें तय और रूढ क्रियान्वयन से भिन्न कुछ करने-कराने की गुंजाइश होती ही कहां है? सरकार का यह पर्यटन महकमा भी दो हिस्सों में बंटा हैएक शुद्ध सरकारी और दूसरा सरकारी उपक्रम के तौर पर निगम। दोनों की गत किसी से छिपी नहींये दोनों महकमें खुद अपने बोझ को ही संभाल नहीं पा रहे हैं तो ऐसे सुझावों को अमलीजामा पहनाने को संसाधन कहां से देंगे। ऐसे में इन आयोजनों में हुई बातों को 'मसाणिया बैराग' से ज्यादा क्या कहेंगे। या यूं कहें आयोजन में कहे-सुने को वहीं झाड़ कर लौटने के अलावा कोई चारा नहीं।
पर्यटक अपने ठिकाने से दूरस्थ कहीं भिन्न जगह सुकून की उम्मीद से जाता है, यानी जो कुछ उसे अपने यहां हासिल है, उससे कुछ भिन्न माहौल, संस्कृति, खान-पान आदि-आदि की अनुभूति की आकांक्षा ही उसे पर्यटन को प्रेरित करती है। पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से यदि नवाचारों के नाम पर हम वैसा ही कुछ सजाने की जुगत में लगेंगे जो सामान्यत: उसके यहां उपलब्ध है तो पर्यटक हमारे यहां क्यों आयेगा? दूसरी बात, परम्परागत तौर पर कुछ भी अनूठापन हमारे पास था और है, उसे हम सहेज कर नहीं रख पा रहे हैं। आधुनिकता का संक्रमण धरोहरों को सहेज कर रखने ही कहां देता है।
 बीकानेर के स्थापत्य के हवाले से बात करें तो पुरानी विरासती हवेलियां कई तरह के दबावों के चलते अस्तित्व खो रही हैं और जो नई बन रही हैं, वह उन्हीं सम्पन्न देशों और क्षेत्रों की भोंडी नकल के आधार पर बन रही हैं, जहां के पर्यटक सामान्यत: हमारे यहां आते हैं। बीकानेर में देशी पर्यटक सामान्यत: गुजरात और बंगाल से आते हैं और विदेशी कुछ यूरोपियन देशों से। उनके लिए विशेष आकर्षण यहां कोई है भी नहीं। इनमें से अधिकांश लोग वे होते हैं जिन्हें सम के धोरे देखने होते हैं या सोनार किला ये दोनों जैसलमेर में हैैं। चूंकि जैसलमेर का एक रास्ता बीकानेर होकर भी जाता है तो एक पड़ाव बीकानेर भी हो लेता है। हवेलियों की बात करें तो हो सकता है हजार हवेलियों का जुनून सिर उठाने लगे और बात फिर हवेलियों को बचाने पर ही न आ टिके । हवेलियां धरोहर नहीं विरासत हैं, क्योंकि ये हवेलियां किसी ना किसी की निजी संपत्ति हैं, और इनके मालिक अपनी सुविधानुसार इनका कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। कोई उन्हें इसके लिए रोक-टोक नहीं सकता।
धरोहर शहर का परकोटा था या कहें फसील थी, जिसे सहेजकर रखने की इच्छा किसी की भी नहीं लगती? उस सरकारी पुरातत्त्व महकमें की भी नहीं जिसकी ड्यूटी में यह आता है। इसे सहेज कर रखने के सख्त नियम-कायदे तय हैं, बावजूद इसके, यह दिन-प्रतिदिन छीज रही है। यह परकोटा या कहें फसील पर सुरक्षा कर्मियों के लिए बना पथ शहर में रात्रि पर्यटन का एक आदर्श स्थान हो सकता है, लेकिन इसे हम सुरक्षित रख पाएं तब ना।
बीकानेर घूमने के लिए हमेशा सर्दियां ही अनुकूल रहेंगी। जिस तरह की गर्मी यहां पड़ती है, उसे देखते हुए ग्रीष्म-पर्यटन की उम्मीद तो दूर की कौड़ी होगा। बीकानेरवासी चाहें तो पर्यटन विभाग और स्थानीय निकायों यथा नगर विकास न्यास और नगर निगम के सहयोग से चांदनी रात में देशी-विदेशी पर्यटकों हेतु इस परकोटे पर भ्रमण की अनुकूलताएं विकसित कर सकते हैं। इस परकोटे-पथ पर सुरक्षा कर्मियों के लिए बनी बुर्जों में स्थानीय लोक कलाएं प्रदर्शित की जा सकती हैं और कुछ ऐसे पॉइन्ट तय किये जा सकते हैं जहां पर रुककर पर्यटक चांदनी रात में क्षितिज को देख सकते हैं, चांद को निहार सकते हैं और कुछ ऐसे भी पॉइन्ट हो सकते है जहां से शहर की बसावट को दूर तक देखा जा सकता है। बीच में कुछ ऐसे खांचे भी चिह्नित किए जा सकते हैं जहां पर अलाव जलाए रखने की सुविधा हो, पर्यटकों को आवागमन में असुविधा न हो इसके लिए मध्यम रोशनी की फुट लाइटें भी लगाई जा सकती है। रात्रिकालीन पर्यटन का सीजन आसोज के शुक्ल पक्ष (शरद पूर्णिमा) से लेकर फागुन के शुक्ल पक्ष (होली) तक तय किया जा सकता है। सर्दियों में एक अनुकूलता यह भी रहेगी कि घरों की छतें खाली होती हैं, जबकि गर्मियो में यहां के अधिकांश लोग छतों पर सोने के आदी हैं और परकोटे पर भ्रमण से उनकी निजता भंग हुए बिना नहीं रहेगी।
परकोटे के इस चांदनी-भ्रमण का रूट गोगागेट से शुरू कर लक्ष्मीनाथ मन्दिर परिसर होते हुए नत्थूसर गेट तक का रखा सकता है। जहां-जहां से परकोटा टूटा है वहां उसे पुराने वास्तु के हिसाब से जोड़कर दुरुस्त करवाना होगा। और यदि कहीं कब्जें भी हो गए तो उन्हें पुरातात्विक संरक्षण के लिए बने कानूनों के हिसाब से हटाया जा सकता है।
इस रात्रि भ्रमण पथ के लगभग मध्य में आने वाले लक्ष्मीनाथ मन्दिर परिसर में एक छोटा हाटनुमा बाजार कुछ ऐसा विकसित किया जाए जिसका वास्तु स्थानीय प्राचीनता को संजोए हो, जिसमें बिकने वाली वस्तुएं परम्परागत और देशज ही हों। इस हाट बाजार में भी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर जल रहे अलावों के बीच खान-पान की स्थानीय पहचान वाले पेय और पकवान की कुछ दुकानें सजाई जा सकती है। जिनमें तई का गर्म दूध, थाली में थर या मलाई, धामों में रबड़ी और गरमा-गरम दाल के बड़े विक्रय के लिए उपलब्ध हों। इन पेय और पकवानों का लुत्फ देशी-विदेशी पर्यटक तो उठाएंगे ही, धीरे-धीरे स्थानीय लोग भी रात्रि में वहां घूमने पहुंचने लगेंगे। शीतलागेट और लक्ष्मीनाथ मंदिर को जोडऩे वाले परकोटे के कोने में बने ठीक-ठाक निर्माण को थोड़ा दुरुस्त करवा उसमें देशी भोजनालय भी विकसित किया जा सकता है। जिस हेरिटेज वॉक की बात पिछले कई वर्षों से शहर में की जाती रही है और अब नई-नई लाई गई रात्रिकालीन पर्यटन की अवधारणा, कुल मिलाकर ये दोनों चांदनी रात में इस परकोटाई भ्रमण से चरितार्थ हो सकते हैं।

दीपचन्द सांखला
15 जून, 2017

Thursday, June 1, 2017

मवेशियों की खरीद-फरोख्त के नियमों में बदलाव पर कुछ यह भी

भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने गत 23 जुलाई को पशु क्रूरता निवारण अधिनियम-1960 में बदलाव किए हैं। नये नियमों के मुताबिक मेलों व मंडियों में मवेशियों की खरीद-बिक्री से जुड़े नियमों में यह जोड़ा गया है कि इनमें अब बूचडख़ानों के लिए मवेशियों को खरीदा व बेचा नहीं जा सकेगा। वर्तमान में अधिकृत-अनधिकृत पांच हजार मण्डियां मवेशियों के व्यापार में संलग्न हैं। नये नियमों के अनुसार यदि इन्हें सज्जित किया जायेगा तो प्रति मण्डी अनुमानित 50 करोड़ रुपये का खर्च आना है। इतना खर्च लगाकर मण्डियां बन भी गई तो नये नियमों की बंदिश के चलते खरीद-फरोख्त केे लिए वे मवेशी तो इनमें आएंगे नहीं जिनको बूचडख़ानों में जाना है।
संविधान की भावनाओं को भले ही दरकिनार कर दिया गया हो, लेकिन उसके प्रावधानों को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इन बदलावों को लेकर संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि यह राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप है। ऐसे बदलाव करने का अधिकार केन्द्र को नहीं क्योंकि यह विषय राज्य सूची में आता है। संविधान में कानून बनाने और नियमों में बदलाव करने के अधिकार तीन स्पष्ट सूचियों में बांटे गये हैं। कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर केवल केन्द्र ही निर्णय ले सकता है और कुछ ऐसे जिन पर केवल राज्य और अन्य कुछ विषयों को समवर्ती सूची में रखा गया है जिन पर केन्द्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं लेकिन टकराव की स्थिति में केन्द्र के निर्णय को ही अन्तिम माना जायेगा। मवेशियों के व्यापार से संबंधित कानून- कायदे बनाने का अधिकार संविधान ने स्पष्टत: राज्यों को ही दिया है। इसीलिए विशेषज्ञों की राय है कि राज्यों द्वारा न्यायालय में चुनौती दिए जाने पर ये बदलाव टिकेंगे नहीं। जिन राज्यों में भाजपा शासित सरकारें हैं, केन्द्र के इस हाउड़ा राज के चलते भले ही वे चुप्पी साध लें पर गैर भाजपा शासित राज्यों की सरकारों का इस मुद्दे पर केन्द्र से टकराव की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। नियमों में इन अव्यावहारिक बदलावों से लगता है कि वर्तमान शासकों को ब्यूरोक्रेट्स ने सलाह देना भी बन्द शायद इसलिए कर दिया है कि आगाह भी करेंगे तो ये मानेंगे नहीं।
इन बदलावों पर चार सप्ताह की पहली अंतरिम रोक 30 मई को मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरै पीठ से आ भी गई। हालांकि यह रोक केन्द्र राज्य अधिकार क्षेत्र के आधार पर नहीं बल्कि व्यापक मानवीय हकों का हनन मानकर लगाई गई है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा है कि सरकार लोगों की खान-पान की आदतें तय नहीं कर सकती।
यह तो हुई संवैधानिक और नियम-कायदों की बात। इन बदलावों से प्रभावित संगठित-असंगठित व्यवसायों और असंगठित क्षेत्र के रोजगारों के संदर्भ में भी बात करना जरूरी है। विश्व व्यापार की बीड़ में आए भारत की विदेशी मुद्रा की मोटी आय मांस निर्यात पर निर्भर है। वर्ष 2015-16 में कुल 26,684 करोड़ और वर्ष 16-17 में 26,303 करोड़ रुपये का निर्यात केवल भैंस के मांस का किया गया है। मवेशी व्यापार में ये नये नियम लागू रहते हैं तो इस उद्योग में लगे लोगों का कहना है कि निर्यात के इस आंकड़े में भारी गिरावट आयेगी। केवल मांस का व्यापार ही प्रभावित नहीं होना है, चमड़ा, साबुन और ऑटोमोबाइल ग्रीस के उद्योग भी इन नये नियमों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।
मांस निर्यात के प्लांट (बड़े स्तर के बूचडख़ाने और मांस पैकिंग की यूनिटें) देश के छह राज्यों (60 प्रतिशत से ज्यादा उत्तरप्रदेश में और शेष पंजाब, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना) में कार्यरत हैं। तथाकथित गो-रक्षकों के भय के चलते दुधारू मवेशियों को एक से दूसरे राज्यों में तो क्या एक से दूसरे शहर-कस्बों में ले जाना ही अब जोखिम भरा हो गया। नियमों में इन बदलावों के बाद नाकारा मवेशियों को भी इन प्लांटों तक पहुंचाना लगभग असंभव हो जायेगा।
संगठित और असंगठित क्षेत्र के इस व्यवसाय पर लाखों लोगों की आजीविका निर्भर है। इस व्यवसाय से जुड़े लोगों की मानें तो नियमों में इस बदलाव से 3 लाख करोड़ का स्वरोजगार प्रतिवर्ष प्रभावित होगा। गौर करने लायक बात यह भी है कि 2011 की जनगणना के अनुसार इस देश के 71 प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं। मांसाहार और उसके व्यापार के लिए केवल मुसलमानों को ही भुंडाने वालों की जानकारी के लिए जनगणना के आंकड़े यह भी बताते हैं कि इस देश की कुल आबादी मेंं मुसलिम 14.2 प्रतिशत ही हैं। ऑल इंडिया मीट एंड लाइव स्टॉक एक्सपोर्टर एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल डीबी सभरवाल की मानें तो मांस के इस व्यवसाय से आजीविका कमाने वालों में 70 से 80 प्रतिशत गैर मुसलिम हैं यानी दलित व अन्य ही ज्यादातर है।
पशुपालन और किसानी में लगे लोगों के बीच की रेखा बहुत झीनी है। प्रधानमंत्री ने घोषणा कर रखी है कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करनी है। नियमों में किए इन बदलावों के बाद पशुपालन में लगे किसानों की आय आधी से भी कम हो जायेगी क्योंकि या तो वे नाकारा पशुओं को आवारा विचरने को छोड़ देंगे या मंडी में मौल भाव की सुविधा समाप्त होने के चलते वे अपने नाकारा मवेशी चोरी-छिपे आधे-चौथाई दामों में बिचोलियों के माध्यम से बेचने को बाध्य हो जायेंगे। ऐसे में उनकी आय का एक मुख्य जरीया चुक जाना है, नाकारा मवेशियों के पूरे पैसे नहीं मिलेंगे तो नये मवेशी लाने की उनकी सुविधा भी बाधित होगी। आवारा पशुओं की समस्या फिलहाल भी कम नहीं है, आवारा मवेशियों के लिए काम करने वाली संस्थाओं के आंकड़े के अनुसार पूरे देश में वर्तमान में ही 50 लाख से अधिक मवेशी आवारा विचरण करते हैं। नये नियमों के लागू होने के बाद पशुपालकों ने नाकारा पशुओं को आवारा छोडऩा शुरू कर दिया तो पंचायतों और स्थानीय निकायों की पहले से ही खराब व्यवस्था चरमरा जायेगी, आमजन की परेशानियां इनसे बढ़ेंगी वह अलग।
समस्या नियमों और कानून-कायदों में बदलाव तक की ही नहीं है। इस सरकार को चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी की पितृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वह विचारधारा है जिसमें वे मानते हैं कि सवर्ण ही असली हिन्दू है, पिछड़े वर्ग के लोग उनके अनुगामी और दलित-आदिवासी मात्र रोबोट की भांति हैं जिन्हें उनके तय प्रोग्राम के अनुसार ही चलना है। वे राजनीतिक नफे-नुकसान की आशंका में ये बातें खुले तौर पर अब भले ही ना कहें पर इस नई सरकार के आने के बाद संघ, भाजपा और भाजपा के सभी सहोदरी संगठनों से प्रभावित लोग व्यवहार में चौफालिए (बेधड़क) होकर बरताव वैसा ही करने लगे हैं। यह अकारण नहीं है कि पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में हाल में ही किए इन बदलावों से सर्वाधिक प्रभावित पिछड़े, दलित और कमजोर वर्गों के लोग ही होंगे। इस बार की सत्ता मिलने के बाद से ही इस विचारधारा के लोग अपने एजेंडे को लागू करने को उतावले दिखने लगे हैं। हालांकि मोदी और केन्द्र की सरकार इस उतावलेपन से खुश शायद इसलिए नहीं है कि कहीं यह दावं उनके लिए उलटा न पड़ जाए, अगर ऐसा हुआ तो जनता उन्हें 2019 में फिर से शासन नहीं सौंपेगी। ऐसे में वे अपने वैचारिक उद्देश्यों की पूर्ति करने से फिर वंचित हो जाएंगे। सत्ता की अनुकूलता मिलते ही इनकी दबी इच्छाएं उफान लेने लगी हैं और अब तो लगने लगा है कि इन पर सरकार का वश भी नहीं चल रहा है। इस असमंजस की वजह भी, मोदी और शाह यह भी अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसी हिन्दुत्वी उम्मीदों के उफान पर सवार होकर वे केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुए हैं और इसी उफान के चलते ही कुछ राज्यों में चुनाव जीत सके हैं। 1998 में भाजपानीत अटलबिहारी की पिछली सरकार और भाजपानीत नरेन्द्र मोदी की इस सरकार में बड़ा अन्तर यह भी है कि अटलबिहारी की सरकार हिन्दुत्व के उफान पर सवार होकर नहीं आयी थी, इसीलिए उनके शासन में देश की तासीर बदलने के खतरे नहीं देखे गये थे।
—दीपचन्द सांखला
1 जून, 2017