Monday, July 10, 2023

बीकानेर लोकसभा क्षेत्र और डॉ. करणीसिंह

 बीकानेर के सांसद अर्जुनराम मेघवाल ने भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर बीकानेर लोकसभा (सुरक्षित) क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हुए। चूंकि 2009 के इस चुनाव में यह क्षेत्र सुरक्षित श्रेणी में गया तो इस सीट पर 1977 में शुरू हुआ जातिय फेक्टर समाप्त हो गया। बीच में जरूर एक बार 1996 में इस जाति फेक्टर को देवीसिंह भाटी ने तोड़ा था अपने पुत्र महेन्द्रसिंह भाटी को जिताकर।

बीकानेर की लोकसभा सीट से शुरू के पांच चुनाव में 'खम्मा धणी' फेक्टर के चलते पूर्व राजपरिवार के डॉ. करणीसिंह निर्दलीय विजयी होते रहे। डॉ. करणीसिंह के साथ पारस्परिक ठकुरसुहाती के चलते कांग्रेस ने भी इस सीट के लिए कभी दावा नहीं जताया। वो तो इंदिरा गांधी के प्रधानमंंत्री बनने और उनकी समाजवादी राजनीति के चलते जब उन्होंने पूर्व राजघरानों के विशेषाधिकार समाप्त किये तो डॉ. करणीसिंह के साथ कांग्रेस की बीच दरार पड़ गयी जिसके चलते कांग्रेस ने 1971 के चुनाव में चौधरी भीमसेन को कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में डॉ. करणीसिंह के खिलाफ उतारा। जाट बहुल इस क्षेत्र में 1971 के इन चुनावों में डॉ. करणीसिंह को लगने लगा कि उनकी जीत इस बार मुश्किल हो सकती है। इसीलिए उन्होंने जाट समुदाय के दौलतराम को उम्मीदवार बनवाया और सहयोग भी किया ताकि जाटों के वोटों में दो फाड़ हो और उनकी जीत आसान हो सके। (दौलतराम सारण, चौधरी चरणसिंह के नेतृत्व वाली पार्टी भारतीय क्रांति दल के उम्मीदवार थे

यही नहीं 1971 के इन चुनावों में बीकानेर में एक ओर राजनीतिक अजूबा घटित हुआ। राष्ट्रीयकरण लागू करने और पूर्व राजघरानों के विशेषाधिकार खत्म करने के मुद्दे पर जो सोशलिस्ट पार्टी 1971 के चुनावों में पूरे देश में कांग्रेस के साथ थी उसी सोशलिस्ट पार्टी के नेता बीकानेर में कांग्रेस के विरोध में खड़े थे। यह सब सम्भव किया मुरलीधर व्यास ने, क्योंकि उन्हें लगता था कि अभी कांग्रेस का समर्थन कर देंगे तो अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस विरोध का वोट किस मुंह से मांगेंगे। इस कारण शहरी क्षेत्र में भी कांग्रेस डॉ. करणीसिंह के खिलाफ माहौल नहीं बना पायी। इस सबके चलते डॉ. करणीसिंह अपना यह पांचवा चुनाव जीत तो गये लेकिन इस चुनाव ने उनके अजय-भरोसे को डिगा दिया। रही-सही कसर 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातस्थिति लगाकर और उस दौरान राजपरिवारों के बट निकाल कर पूरी कर दी। इस प्रकार 1971 के चुनाव में पापड़ तक बेलने जैसी स्थिति ने और आपातस्थिति में कुछ राजपरिवारों के हश्र ने डॉ. करणीसिंह का आत्मविश्वास पूरी तरह डिगा दिया। 1977 में डॉ. करणीसिंह चाहते तो जनता पार्टी उन्हें उम्मीदवार बना सकती थी लेकिन 1977 के आते-आते डॉ. करणीसिंह ने राजनीति करने की इच्छाशक्ति पूरी तरह खो दी। 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की स्थिति ठीक वैसी ही थी जैसी उस सामान्य परिवार की हो जाती है जिसमें बेटी की शादी की तारीख अचानक तय हो जाती हैं। जैसा कि होता है उस परिवार की स्थितियां देखकर गली-मोहल्ले वाले और नाते-रिश्तेदार अतिरिक्त जोश से लगकर शादी संपन्न करवा देते हैं, वैसे ही जनता पार्टी का यह चुनाव संपन्न हुआ। मार्क्सवादी नेता शोपतसिंह के पिता हरिराम चौधरी बीकानेर से जनता पार्टी के उम्मीदवार बने। जाट थे, पैसा था और जनता भी जी-जान से लगी और विजयी हो गये।

इस प्रकार 1977 में ही डॉ. करणीसिंह की राजनीति का पटाक्षेप हो गया।

दीपचन्द सांखला

16 मई, 2012

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