Monday, December 8, 2014

सुषमाजी इस देश को हुड़े से नहीं हांका जा सकता

धर्म, आस्था और पूजा पद्धतियां निहायत व्यक्तिगत मसले हैं, आग्रह के तो हर्गिज नहीं। जब-जब इन्हें सार्वजनिक किया जाता है या इन पर आग्रही होने के प्रपंच किए जाते हैं, तब-तब समस्याएं बजाय घटने के बढ़ती ही हैं। इतिहास इसका गवाह है। इसलिए इतिहास, यदि प्रामाणिक हो तो उसकी प्रेरणा सबक लेना तो हो सकता है कि आत्ममुग्ध होना। इस चर-अचर जगत के सभी आयामों में ऊंच-नीच नीच के हकों की कीमत पर ही होती है फिर वह चाहे अनुकूलताओं के चलते अनायास हो या कैसे भी सामथ्र्य के चलते सायास हासिल की गई हो। भाग्य-दुर्भाग्य की युक्तियां तो मनुष्य ने शेष जगत के साथ अपने किए या अपने से हुए को आड़ देने के लिए घड़ रखी हैं।
इस विषय पर विचार करने की जरूरत इसलिए आन पड़ी कि देश का राज बहुसंख्यकों की तरफदारी का दावा करने वाले समूह के पास है। तरफदारी अपने आप में ही नकारात्मक क्रिया है, फिर वह चाहे अल्पसंख्यकों की हो या बहुसंख्यकों की, तरफदारी लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर ही करती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सड़सठ वर्ष की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में अलग उदाहरण इसलिए हैं कि उन्होंने नाम, बदनाम होकर हासिल किया। वे अच्छी तरह जानते हैं कि विकास का कार्ड कब खेलना है और कथित बहुसंख्यकों की तुष्टिकरण का कब। उन्हें यह सिखाया ही नहीं गया कि बहुविध धर्मावलम्बियों और संस्कृतियों वाले देश को बहुसंख्यकों की आत्ममुग्धता या तानाशाही मानसिकता से नहीं चलाया जा सकता। ही उन्हें उन देशों की दुर्दशाओं से सबक लेना है जिन्होंने अपनी राष्ट्रीयता किसी धर्म विशेष के साथ नत्थी कर रखी है।
देश की विदेश मंत्री और मोदी के राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित होने से पहले राजग की ओर से इसी पद की सशक्त दावेदार रहीं सुषमा स्वराज ने कल पौराणिक ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता को राष्ट्र ग्रंथ घोषित करवाने की घोषणा की। गीता भारतीय समाज के कथित बड़े समूह के लिए पठनीय से ज्यादा पूजनीय है। उस समूह की विशालता यद्यपि केवल इससे तय नहीं हो सकती कि न्यायालय में उपस्थित होने पर गीता की कसम खाने वाले ज्यादा हैं। शोध या विवाद का विषय यह भी हो सकता है कि ऐसी कसम खाने वालों में से नब्बे प्रतिशत झूठे होते हैं या पैंतालीस प्रतिशत लेकिन यह पक्का तय है कि उनमें से नब्बे प्रतिशत नहीं जानते होंगे कि गीता कहती क्या है। इस सब के बावजूद यह ग्रंन्थ उन लोगों की प्रेरणा और आस्था का प्रतीक है जो इससे सकारात्मक ऊर्जा हासिल करते हैं। हालांकि यह समूह कुल आबादी का बहुत छोटा सा हिस्सा होगा क्योंकि जो समाज व्यवस्था हमारे देश में रही है उसमें समाज के एक बड़े हिस्से को हिन्दू आस्था की इन तमाम युक्तियों से केवल दूर रखा गया बल्कि उनके लिए इन्हें छूना तक वर्जित था। बीकानेर के एक महन्त संवित् सोमगिरिजी गीता को धर्म, जाति से परे स्थापित करने में जरूर लगे हुए हैं, ऐसे छिट-पुट प्रयास देश में अन्यत्र भी हो ही रहे होंगे।
लेकिन सुषमा स्वराज उनका वैचारिक समूह जैसे प्रभावी जो इसे थोपने का मन बना रहे हैं, इससे गीता की प्रतिष्ठा और घटेगी। वे भूल रहे हैं कि दलितों का बड़ा बौद्धिक समूह अपने समुदाय के प्रति हिन्दू समाज के सदियों के व्यवहार की असलियत बताने में सफल हो रहे हैं और यह भी कि इसी धर्म की आड़ में ही उनके साथ चौथे-पांचवें दर्जें की हैसियत के साथ शोषण होता रहा है।
भारत जैसा सनातनी देश जिसकी हिन्दू आस्था परम्परा में हजारों देवी-देवता और हजारों ही उन्हें धोकने के तौर-तरीके हैं, जहां मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुष कृष्ण से सम्बन्धित कई तरह की कथाएं मिलती हैं जिनका आपस में मेल नहीं है। जहां विभिन्न हिन्दू परम्पराओं में ही आपस में जब तब तनाव होते रहते हैं। जिस देश की चौथाई से ज्यादा आबादी गैर हिन्दू हो वहां सुषमा स्वराज की ऐसी आकांक्षा के परिणाम क्या होंगे, कह नहीं सकते। लेकिन गीता की प्रतिष्ठा जरूर विवादों में जायेगी। मोदी और संघनिष्ठों को यह समझना जरूरी है कि भारत जैसे देश को समन्वय और समरसता से ही चलाया जा सकता है कि हुड़े (दबाव) से।

8 दिसम्बर, 2014

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