Friday, December 19, 2014

ऊपर से नीचे तक सामान्यीकरण की गपड़चौथ

'पार्टी विद डिफरेंस' से दो चंटा बेशी में तबदील होती भारतीय जनता पार्टी अनुशासन और अराजकता के बीच की दुविधा में जबरदस्त फंसी दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो कह रहे हैं सचमुच वैसा ही चाहते भी हैं कि नहीं पता ही नहीं चल पा रहा। पार्टी में फिलहाल कोई असंतुष्ट धड़ा घोषित नहीं है। जो हो सकते थे उनके पर पहले ही गीले कर दिए गये। पार्टी यदि सचमुच समस्या मानती तो गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति और योगी आदित्यनाथ जैसों को भाव नहीं दिए जाते। ऐसों को यह लगना गलत नहीं है कि वे जैसा और जिस तरह करते रहे हैं, उससे मिली पहचान के चलते ही उन्हें भाव दिए जा रहे हैं। इस भाव को ऋण मान कर उसके चुकारे के चक्कर में ये कुछ ज्यादा ही उत्साही हो लेते हैं। कांग्रेस भी संसद में अपनी भूमिका को गंभीरता से नहीं ले रही। उसे लगता है विपक्ष में रहते अब तक जो भाजपा कर रही थी उसे वैसा ही कुछ करना है। जिस तरह भाजपा कांग्रेस से दो चंटा बेशी होकर राज में काबिज हुई उसका कांग्रेसी जवाब उसी की तर्ज का नहीं होना चाहिए। इस खेल में वह भाजपा से नहीं जीत सकती। कांग्रेस को अस्तित्व बचाने में अपनी अलग भूमिका तलाशनी होगी, क्योंकि दूसरी-तीसरी कॉपी होकर मूल अपना अस्तित्व खो देता है।
ऐसे ही राजनीति में जिन्हें भाव नहीं मिलता उनकी अपनी कुण्ठाएं हो लेती हैं। इन कुण्ठाओं के चलते राजस्थान में घनश्याम तिवाड़ी जैसे घाघ खेल दूसरी तरह से खेलते हैं। लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों में मोदी के हबीड़े में जीत गये कई नेता इस गलतफहमी के शिकार भी होने लगे कि यह जीत उनकी खुद की है। ऐसी गलतफहमियों को युदि कुण्ठाओं का सहारा मिल जाये तो कोटा विधायक प्रह्लाद गुंजल होते देर नहीं लगती। सरकारी महकमों के अधिकारियों और कर्मचारियों के बारे में यह धारणा सामान्य हो गई है कि इनमें से अधिकांश भ्रष्ट हैं और यदि इन्हें सुविधाजनक और मोटी कमाई वाली जगह पोस्टिंग मिले तो तडफ़ड़ाने लगते हैं। यह धारणा काफी कुछ सही भी है। नेता उनकी इस कमजोरी को  बखूबी समझते हैं और ये भ्रष्टगण भी इन नेताओं को उनका राज होते और बिना राज होते, दोनों परिस्थितियों में परोटने की भरसक कोशिश करते हैं। अब पता नहीं कोटा के मुख्य चिकित्सा और स्वास्थ्य अधिकारी किस श्रेणी में आते हैं लेकिन प्रह्लाद गुंजल तो अपना आपा देकर एकबारगी दबाव में ही गये।
यह स्मार्ट फोन कुछ ज्यादा ही स्मार्ट हो गये वरना प्रह्लाद गुंजल अधिकांश नेताओं में होता है। बीकानेर की बात करें तो पिछले चालीस पैंतालीस वर्षों से ऐसे छिट-पुट किस्से जब तब सुनते रहे हैं। जो अफसर और कर्मचारी दूध के धुले नहीं होते। वे चुपचाप धमीड़े खा लेते हैं और जो भले होते हैं वे टाबर पालने के लालच में मन मसोस कर भुगत लेते हैं।
भ्रष्टाचार के इस सामान्यीकरण से उपजे भ्रम की ताजी पराकाष्ठा बीकानेर में कल देखने को मिली। पुलिस महकमे के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो का निरीक्षक स्तर का अधिकारी वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी को धमकाने से भी नहीं चूका। निरीक्षक या इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी का रुतबा अपने नागरिक क्षेत्र में जितना होता है इसके ठीक उलट उसके अपने महकमे के बड़े अफसरों के आगे उसकी अपनी हैसियत भीगी बिल्ली से ज्यादा की नहीं होती। चूंकि यह धारणा बन चुकी है कि पुलिस महकमे के बाद न्यास और निगम को छोड़  देें तो भ्रष्टाचार बदनामी के हिसाब से रसद विभाग दूसरे नम्बर की दौड़ में रहता है। इसी मुगालते ने कल भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के इस इंस्पेक्टर को मरवा दिया। रसद अधिकारी सामान्यत: राज्य प्रशासनिक सेवा से होता है, उसे लगा कि इस पद पर आया है तो लेने देने के लिये आया होगा। बस फिर क्या था, आव देखा ताव, धमका दिया। इस इंस्पेक्टर की प्रतिकूलता रही कि इस पद पर फिलहाल भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी काम देख रहे हैं। अब देखना यही है कि इस इंस्पेक्टर को वे किस तरह परोटते हैं।

19 दिसम्बर, 2014

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