Wednesday, December 3, 2014

मारीच और रामजादा-हरामजादा

अचानचक यूं लगने लगा कि पारसी थिएटर और रामलीलाओं का दौर लौट आया है। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इन प्रदर्शन कलाओं के ये समूह बारह महीनों भिन्न-भिन्न शहरों के किसी एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक मजमा जमा कर केवल अपने समूह की आजीविका चलाते थे बल्कि जहां जाते वहां के बाशिन्दों के मनोरंजन के साथ सांस्कृतिक तौर पर पुष्ट भी करते थे। बचपन और किशोरावस्था की इन संगतों को भूला नहीं जा सकता। सिनेमा और फिर टीवी के बढ़ते प्रभुत्व ने ऐसे अनौपचारिक अवसरों को लगभग समाप्त कर दिया है। पारसी थिएटर तो महानगरों के संभ्रांत या अभिजात के लिए ही रह गया है और रामलीलाएं दशहरा उत्सवों के लिए। रामलीलाएं भी अब वैसी रही कहां? अस्तित्व बचाए रखने के दबाव में उन्हें पटरी उतरना ही पड़ता है।
इनका स्मरण इसलिए हो आया कि दिल्ली विधानसभा चुनावों की 'जंग' तीन महीने पहले ही शुरू हो गई। चूंकि देश की राजधानी और मीडिया हाउसों के अपने मुख्यालय भी वहीं हैं सो वहां घटित कुछ की भी खबर बन जाती है। और यदि घटना के सूत्रधार केन्द्र के मंत्री हों तो फिर कहना ही क्या। टीवी के चौखटे और अखबारी पन्नों पर बने रहने के लिए मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से कुछ कुछ ऐसा हो ही जाता है। लेकिन स्मृति से प्रतिस्पद्र्धा के लिए केन्द्र के दो राज्यमंत्री भी मैदान में गये हैंसाध्वी निरंजन ज्योति और गिरिराजसिंह में सिंह पहले भी ऐसा कुछ करते रहे हैं, उन्हें लोकसभा चुनावों में अपनी कही पर मंत्री पद मिला तो उन्हें लगा होगा कि दिल्ली में रामलीला करेंगे तो पदोन्नति तो मिल ही जायेगी। बोलते भी वे रामलीला के पात्रों के ही अन्दाज में हैं, वह कहते भी हैं कि शुरुआती उम्र में उन्होंने रामलीला खूब देखी है सो अब करने की इच्छा हो ही जाती है।
ताड़का पुत्र मारीच द्वारा सीताहरण में रावण की मदद के लिए स्वर्णमृग का रूप धरने का प्रसंग आता है। गिरिराजसिंह ने पता नहीं क्या युक्ति भिड़ा कर दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को एक सभा में मारीच कह दिया। दो दिनों से सोशल साइट्स और खबरों में इसी को लेकर पहेलियां बुझाई जा रही हैं। हो सकता है वह कहना चाह रहे हों कि सत्ताहरण के लिए कांग्रेस रूपी रावण मारीच केजरीवाल की मदद ले रहे हैं। चूंकि मारीच और ताड़का रावण के नजदीकी रिश्ते में थे यानी राक्षस ही थे। लेकिन भारतीय जनमानस में अब तक खलनायक कहे जाने वाले राक्षसों को दलित बौद्धिकों ने अपना पूर्वज घोषित कर दिया है। और वे यह भी कहते हैं कि यह जो तथाकथित उच्च वर्गों के समूह हैं, यह सब तो हमलावर हैं, बाहर से आए और यहां काबिज हो गये। दलित राक्षसों के वंशज हैं और वही इस भारतीय भू-भाग के मूल निवासी हैं। खैर ऐसी जागरूकता सचमुच गई तो गिरिराजसिंह जैसे की भैंस पानी में जानी ही है। इन दलितों का वोट इस तरह के बोध से प्रभावित होकर हाल-फिलहाल डलेगा, लगता नहीं है।
साध्वी निरंजन ज्योति दलित समुदाय से हैं और कहते हैं वह धाड़-फाड़ बोलती हैं, बोलते वक्त आगा-पीछा नहीं सोचतीं। उन्हीं की पार्टी के उच्चवर्गीय नेता निरंजन ज्योति के निषाद जाति समूह की होने का कह कर उनके वक्तव्यों का रस लेने से नहीं चूकते। उन्हें लगता है कुछ भी हो ऐसा बोलने से उनके वोट कुछ बढ़ते हीं हैं। निरंजन ज्योति तो भरी सभा में गाली-गलौज पर उतर आई। उर्दू की इस गाली का राम के साथ ऐसा बेमेल बिठाया कि खुद उनकी पार्टी वाले ही दंग रह गये। विश्व विजय पर निकले प्रधानमंत्री मोदी को लगा होगा कि ऐसे तो उनका अभियान सफल होगा। मोदी खुद ये भूल जाते हैं कि ऐसी कुछ हरकतोंं से ही वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं। शायद उन्हें लगने लगा हो कि आगे की मंजिल में इस तरह के बयानों से साख बिगड़ेगी सो सख्त मारजा की तरह डंडा फटकार दिया। लेकिन साध्वी और गिरिराज के किए का लाभ तो उन्हें मिल ही जाएगा, इसे ही राजनीतिक रणनीति कहते हैं। ऐसी रणनीतियों को आजमाने में मोदी के बराबर का फिलहाल भारत की व्यावहारिक राजनीति में कोई नहीं है। दर्शकों (आम-अवाम) को इन राजनीतिक पारसी थिएटर और राजनीतिक रामलीलाओं को विवेक के चश्मे से देखना और विवेक के श्रवण यंत्र से ही सुनना होगा अन्यथा ये राजनेता सत्ता मद में उन्हें और साथ में देश को किसी भी गर्त में डालने से संकोच नहीं होगा।

3 दिसम्बर, 2014

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