Wednesday, December 24, 2014

उत्तर-पूर्व के प्रदेश भी भारत के ही अंग हैं

मीडिया यानी खबरिया चैनल और अखबार दोनों का चरित्र लगभग गड़बड़ाता जा रहा है। पाठकसंख्या और टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग पॉइंट) के चक्कर में उद्देश्यपूर्ण व्यवसाय के मामले में ये दोनों ही लगभग अमानवीय होते जा रहे हैं।
देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के मसलों, समस्याओं और घटनाओं को लेकर इनका उपेक्षापूर्ण रवैया इसका बड़ा उदाहरण है। जबकि ऐसी समस्याओं से जूझ रहे कश्मीर की ये छोटी-छोटी घटनाओं पर भी सुर्खियां देने से नहीं चूकते। उत्तर-पूर्व के इन सात राज्यों को भाव केन्द्र की सरकारें भी नहीं देती, फिर वह चाहे संप्रग की हो या राजग की। शासन की मशीनरी को उत्तर-पूर्वी राज्यों से लेना-देना कम ही होता है सो सरकार मोदी की है या मनमोहन की, इन प्रदेशों के मुद्दों पर अपने आकाओं को सावचेत नहीं करते।
कल की बात करें तो असम के पांच क्षेत्रों में बोड़ो उग्रवादियों ने पचास से ऊपर लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इनका लक्ष्य महिलाएं और बच्चे थे। इसलिए मरने वालों में अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। यही घटना यदि जम्मू और कश्मीर की होती और चाहे चार-पांच ही मारे जाते, ये मीडिया वाले अखबार और टेलीविजन, दोनों ही, सब कुछ छोड़ कर इस प्रसंग पर पिल पड़ते। कल की असम की घटना सामान्य घटना की तरह चला दी गई।
मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला अफ्स्पा (आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) के खिलाफ वर्षों तक अनशन करती हैं, केन्द्र की सरकार और तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया पर इसका खास असर नहीं देखा जाता। यहां तक कि अन्तरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा ध्यान खींचने को भी यह महत्त्व नहीं देते। इस क्षेत्र में मांगों को लेकर महीनों रास्ते रोके जाते हैं, इसके हश्र पर मुख्यधारा का मीडिया गौर नहीं करता।
हां, अलगाव शब्द का प्रयोग करने में मीडिया नहीं चूकता। ऐसी गतिविधियों में लगे लोगों को झट से अलगाववादी कह दिया जाता है। अलगाव लगाव का विलोम है, इसका मर्म केन्द्र का शासन समझता है और ही मुख्यधारा का मीडिया। समझता होता तो उत्तर-पूर्व के प्रदेशों के प्रति वह लगाव दिखाता, वहां की समस्याओं को हाशिये पर नहीं लगाता। इन प्रदेशों में अलग-अलग समूहों में कई उग्रवादी समूह सक्रिय हैं, हो सकता है उन्हें दुष्प्रेरित भी किया जाता हो। लेकिन उन्हें केन्द्र के प्रयास और मीडिया का लगाव पर्याप्त हासिल नहीं होता।
ये मुख्यधारा वाले क्या सोचते हैं, क्या इन्हें हमेशा यूं ही दबाए रखा जा सकता है, क्या इनकी जरूरतों को वे हमेशा उपेक्षित रख सकेंगे? इतिहास इसकी पुष्टि नहीं करता। ऐसे क्षेत्रों में हमेशा कुछ कुछ सुलगता रहता है और अनुकूलता मिलते ही अपना असर दिखाए बिना नहीं रहता। तब इसके सिवा कहने को नहीं बचता कि ऐसा तो नहीं सोचा था, या तब के लोगों ने इन्हें नहीं परोटा तब सावचेत होते तो ऐसे नहीं होता आदि-आदि।
इन सातों प्रदेशों का पड़ोसी बांग्लादेश जो 1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान के रूप में जाना जाता था, पाकिस्तान के आजाद होने के बाद से उसे लगभग वैसे ही उपेक्षित किया गया जैसे उत्तर-पूर्व के इन सात प्रदेशों को किया जा रहा है। यही कारण है कि वह पड़ोस में घटित और हासिल से प्रेरणा पाते हैं। प्रधानमंत्री मोदी वोटों के लिए वहां बहुत अपेक्षाएं जगा आएं हैं। लेकिन उनकी समस्या यही है कि जहां जाते हैं उनके रंग में रंग जाने का ढोंग करते हैं, ऐसे में उन्होंने अपने पर इतने रंग चढ़ा लिए हैं कि किसी भी रंग का अस्तित्व बचा ही नहीं। हां, वह इन स्वांगों के चलते लगातार सफल हो रहे हैं, लेकिन इसकी कीमत या तो वे समझ नहीं रहे या समझना नहीं चाहते। संप्रग के मनमोहन ने तो दस वर्ष तक राजनेता की तरह नहीं ब्यूरोक्रैट की तरह सरकार चलाई उसका हश्र कांग्रेस कई वर्षों तक भुगतेगी। मोदी के किए को भाजपा कितना भुगतेगी, देखना होगा। देश को तो भुगतते रहना है, भुगत ही रहा है।

24 दिसम्बर 2014

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