Saturday, December 6, 2014

छह दिसम्बर

आज छह दिसम्बर है। 1992 से पहले इस तारीख का सार्वजनिक महत्त्व इतना ही था कि भारत का संविधान बनाने वाली समिति के मुखिया डॉ. भीमराव अम्बेडकर का देहान्त इसी दिन हुआ था। चूंकि भारत के जिस बड़े समाज की बौद्धिक चेतना का प्रतिनिधित्व अम्बेडकर करते हैं, पिछली सदी के नबें दशक तक उस दलित समाज की जैसी-तैसी भी सामाजिक पहचान तो थी लेकिन राजनीतिक पहचान कांग्रेस के वोटर होने से ज्यादा नहीं बन पायी थी। 1977 बाद से सत्ता और दलीय उथल-पुथलों में दलितों ने अपनी राजनीतिक हैसियत बनाई। हालांकि इसका तात्कालिक श्रेय बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम को दिया जा सकता है। लेकिन इस व्यापक भारतीय समाज ने अपनी हैसियत की मानसिक उपस्थिति का अहसास डॉ. अम्बेडकर के कहे और लिखे से ही हासिल किया। हालांकि आजादी बाद के इस नये भारत की संविधान सम्मत नयी व्यवस्था की अनुकूलताओं का योगदान भी कम नहीं है। इस समाज को अम्बेडकर के दिये इस आत्मविश्वास केआगे अम्बेडकर की आलोचना केलिए कही बातों का महत्त्व कम हो जाता है, फिर वह चाहे आजादी के आन्दोलन में उनकी कोई योगदान होना हो या उनकी सोच पर पश्चिम का गहरा प्रभाव होना बताया जाता हो।

छह दिसम्बर 1992 को ही देश के साथ एक बड़ी दुर्घटना घटी, जिसमें अयोध्या स्थित विवादित बाबरी मस्जिद को संगठित भीड़ ने ध्वस्त कर दिया और उसके बाद देश का बड़ा हिस्सा दंगों की चपेट में गया। इस घटना के लिए केवल केन्द्र की कांग्रेस और उत्तरप्रदेश की भाजपा सरकारें जिम्मेदार इसलिए हैं कि जिस संविधान के अन्तर्गत शपथ लेकर वे सत्ता में आये थे उसका उन्होंने मान नहीं रखा। दोषी राजनीतिक पार्टी और उसकी पितृ संस्था तो हमेशा ही इस संविधान से इतर अपनी आस्था जाहिर करती आई थी और अब भी करती ही है। जैसे ही उन्हें अनुकूलता मिली, अपनी कर दिखाई। इस घटना की इन्होंने जिम्मेदारी ली और नहीं ली, दोनों ही स्थितियों में बेशर्मी साफ देखी गई।
विवाद पांच सौ वर्ष पूर्व राम जन्म भूमि को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने का है। देश में आए आक्रमणकारियों के अपने शासनों के दौरान ऐसी कई हरकतों को अंजाम देने के तथ्य मिलते हैं लेकिन उपलब्ध ठीक-ठाक इतिहास में इस स्थान को लेकर कोई तथ्य उपलब्ध नहीं है। हां लोक मान्यता में इस तरह का उल्लेख जरूर मिलता है और इसी आधार पर मुगलों का शासन चले जाने पर राम और कृष्ण जन्मभूमियों को लेकर विवादों ने सुर्खियां पानी शुरू कर दीं। राम और कृष्ण के होने के पौराणिक प्रमाणों के अलावा कोई ऐतिहासिक प्रमाण भले ही मिले, भारत के बहुसंख्यक समुदाय के चित्त में इनकी व्यापक उपस्थिति है। ऐसे में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में इन विवादों को सर्व मान्यता से ही हल किया जा सकता है या फिर न्यायालय के माध्यम से। एक तर्क यह होता है कि इस तरह तो सदियां बीत जायेंगी। मानव सभ्यता में बहुत मसले ऐसे होंगे जिन्हें निबटने में सदियां लगी होंगी और बहुत से मसले आज भी ऐसे हैं जो नहीं निबटे। सबसे बड़ा मसला तो समानता का ही है, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के बावजूद गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जा रही है, प्रकृति और मानवेत्तर जीव जगत की गत की बात छोड़ भी दें तो एक ही परिवार में स्त्री की दोयम हैसियत का मसला निबटना अभी बाकी है।
इन सबके मद्देनजर 6 दिसम्बर, 1992 करना इतना जरूरी कैसे मान लिया गया। हिन्दू समाज में ही दलितों की पांचवीं-छठी हैसियत के चलते उन्हें कितना हिन्दू माना जाता है यह प्रश् भी कम जरूरी नहीं है। इसीलिए सोशल साइट पर कई बौद्धिक इस पड़ताल में लगे हैं कि उच्च वर्गीय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसकी इकाइयों ने बाबरी मस्जिद ध्वंस का दिन डॉ. भीमराव अम्बेडकर के निर्वाण दिवस को ही क्यों चुना, क्या इसके पीछे भी उनका कोई छिपा एजेण्डा था?
6 दिसम्बर, 2014

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