Tuesday, December 2, 2014

डूंगर कॉलेज का विभाजन और कल्ला, सोलंकी व सुराना का विवेक

लगभग दो वर्ष पूर्व विधायक गोपाल जोशी ने कोटगेट और सांखला रेल फाटकों की समस्याओं के व्यावहारिक समाधान की चर्चा के अन्त में यह कहकर बात खत्म करनी चाही कि जनता जिस समाधान पर हाके करती है, हमें उसी का पक्ष लेना है, हमारे लिए जरूरी नहीं कि वह समाधान व्यावहारिक है कि नहीं। यानि सामान्यत: राजनेता अपने विवेक को खूंटी पर रखते हैं। हालांकि यह सुखद है कि विधायक जोशी ने अन्तत: अपने विवेक को काम में लिया कुछ माह पूर्व इन रेलफाटकों की समस्या का व्यावहारिक समाधान एलिवेटेड रोड को ही माना और आश्वस्त किया कि वे इसके लिए प्रयास करेंगे।
आज यह बात इसलिए याद गई कि राजकीय डूंगर कॉलेज के विभाजन का विरोध कर रहे कुछ छात्रों के साथ पूर्व मंत्री बीडी कल्ला, भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष नन्दकिशोर सोलंकी के बाद अब पूर्व मंत्री और विधायक मानिकचन्द सुराना ने भी टेर दे दी है। उल्लेखनीय है कि इन तीनों ने ही अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत इसी डूंगर कॉलेज से की थी। लेकिन अफसोस कि इनमें से किसी ने इस कॉलेज को गर्त में जाने से रोकना तो दूर, इसके लिए कभी चिन्ता भी प्रकट की हो। पिछले पैंतीस वर्षों में इस कॉलेज की व्यवस्था बद से बदतर होती चली गई। ऊंची तनख्वाह पाने वाले तीन सौ से ऊपर यहां के प्राध्यापकों में से अधिकांश कक्षा लेने के झंझट से बचते रहते हैं। इन प्राध्यापकों में से प्रत्येक की औसत मासिक तनख्वाह अस्सी हजार से एक लाख रुपये होगी, साथ ही वर्ष में चार-पांच माह की ऐसी छुट्टियां जिनका वेतन भी इन्हें मिलता है, सेवानिवृत्ति पर पेन्शन अलग। इस सबके बावजूद डूंगर कॉलेज की कोई खास उपलब्धि पिछले तीस वर्षों की नहीं गिनाई जा सकती। कुछ अच्छा होता भी है या कोई करना भी चाहता है तो कुछ प्राध्यापकों का काम ही यह है कि कुछ बोछर्डे छात्रों को बरगला कर उसका विरोध शुरू करवा देते हैं। अलबत्ता कोई प्राचार्य यहां आना ही नहीं चाहता, कोई किसी लालच में या हिम्मत करके भी जाये तो उसकी सेवानिवृत्ति का समय इतना नजदीक होता है कि वह अपने शैक्षिक और शैक्षेणेत्तर दोनों तरह के साथियों को शक्ल से भी नहीं पहचान पाते। कॉलेज की यह गत कोई चुटकियों में नहीं हुई। पिछले तीन-चार दशकों में अधिकांशत: सत्ता में प्रभावी पदों पर रहे इसी कॉलेज के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष डॉ. बीडी कल्ला ने शायद ही कभी चाहा हो कि इस कॉलेज की प्रतिष्ठा पुनस्र्थापित हो। बल्कि सौ वर्ष पुराने इस कॉलेज के शुरुवाती आधी शताब्दी के गौरवपूर्ण इतिहास का बाद के वर्षों में कबाड़ा करने में कल्ला का दोष भी कम नहीं है। उनकी इच्छा रहती थी कि इस कॉलेज में जिसे रहना है उसे उनका हाजरिया बनकर रहना होगा। ऐसे में शहर में प्रचलित एक कैबत की याद गई-
सेठ के यहां आयोजन था। रसोईया हलवा सेक रहा था, धोती पहने रसोईये की लांग पीछे से बार-बार खुल रही थी। सेठानी बार-बार कहती कि लांग बांधो। ऐसे में उफत कर रसोईये ने सेठानी को कह ही दिया कि 'सेठानी या तो सीरा रंधवा ले या लांग बंधवा ले, सागे दोन्यूं काम कौनी होय सके।' कल्ला यदि डूंगर कॉलेज के प्राध्यापकों को पढ़ाने का कहते तो उनका कल्ला को शायद ऐसा ही जवाब होता कि कल्ला साब या तो अपनी हाजरी भरवा लो या पढ़वा लो।
अब जब इस कॉलेज के विभाजन के बाद व्यवस्था प्रशासन के कुछ कन्ट्रोल में आने की बनी है तो इसके विरोध के सुरो में सुर कल्ला, सोलंकी और सुराना तीनों ही मिलाने लगे हैं। इन तीनों का ऐसा एक भी प्रयास ध्यान नहीं रहा कि इन्होंने कभी बातों से भी इसके हालात पर चिन्ता जाहिर की हो। उम्मीद करते हैं गोपाल जोशी की तरह इनका विवेक भी जागेगा, देर से ही सही। सुराना के बयान से हैरत ज्यादा इसलिए हुई कि उनके बारे में यह माना जाता है कि वह राजनीति विवेक पर सवार होकर ही करते हैं। नन्दकिशोर सोलंकी से उम्मीद की जाती है कि अपने राज में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इस कॉलेज के बंटवारे के बाद लॉ-कॉलेज सहित चारों कॉलेजों के स्तर को शैक्षणिक बनाने का प्रयास करेंगे। सोलंकी के लिए इस कॉलेज का ऋण उतारने का अवसर है। यह उन्हें मान लेना चाहिए कि संयुक्त कॉलेज के रूप में बेड़े जैसे डूंगर कॉलेज से सकारात्मक परिणाम हासिल करना अब लगभग असंभव है।

2 दिसम्बर, 2014

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