Wednesday, December 10, 2014

बाल शोषण को देशज मानकों से ही रोका जा सकता है

पाकिस्तान की किशोरी मलाला युसुफ जेई और भारत में बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त रूप से आज शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया जायेगा। दुनिया के सर्वोच्च सम्मान के रूप में प्रतिष्ठ इस नोबेल को देने के लिए नार्वे के आस्लो में समारोह का आयोजन रखा गया है।
तीसरी दुनिया के देशों में शुमार भारत में मानव या ऐसे ही किन्ही अधिकारों को विकसित देशों के मानकों की कसौटी पर देखा जाना चाहिए और ही इस देश से अविकसित देशों में मानवीय अधिकारों के हनन से प्रसूत आत्मसम्मानहीन जीवन की स्थितियों में।
औपनिवेशिक गुलामी के बाद भारत आत्मसम्मानहीनता से हालांकि काफी आगे गया है लेकिन जब तक प्रत्येक नागरिक की न्यूनतम जरूरतें आत्मसम्मान के साथ पूरी नहीं होती तब तक मानव और बाल अधिकारों को विकसित देशों के मानकों पर कसना ज्यादती ही है।
कैलाश सत्यार्थी भारत के कुछ हिस्सों में 'बचपन बचाओ' आन्दोलन के माध्यम से बाल अधिकारों और बाल मजदूरी के खिलाफ एक अलख जगाए हुए हैं। उनकी मंशा पर कोई संशय नहीं, वे अपने तईं कुछ अच्छा ही कर रहे हैं।
लेकिन बाल मजदूरी के खिलाफ हमें विचार करते हुए यह भी देखना होगा कि कोई भी बालक अपने खेलने-कूदने के दिनों में, शिक्षा पाने के दिनों में मजदूरी करने को मजबूर क्यों होता है। हमारे देश में हर वयस्क हाथ को काम, हर एक सिर को छप्पर और हर मुंह मेें निवाला और तन पर कपड़ा जैसी न्यूनतम जरूरतें आजादी के सड़सठ वर्षों बाद भी दूर की कौड़ी है। कोई बच्चा मजदूरी इसलिए करता है कि वह अपने अशक्त पिता और आश्रित मां के पेट की आग बुझा सके या किसी बच्चे को काम इसलिए करना पड़ता है कि समाज की दी हुई कुंठाओं से छुटकारे के लिए उसका पिता मजदूरी की अपनी कमाई दारू पीने में लगा देता है और चूल्हे को चेतन करने की जिम्मेदारी बालक पर जाती है। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं कि घर में कोई पुरुष सदस्य होता ही नहीं हैऐसे में उस बालक के पास मजदूरी करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं होता।
इन सब बातों के मानी बाल मजदूरी का समर्थन करना माना जाय। इसे इस तरह लिया जाना ज्यादा जरूरी है कि उक्त प्रकार की दुर्दशाओं को समाज से कैसे समाप्त किया जाए? जब तक हम ऐसा नहीं कर सकते तब तक बच्चों को अपना और अपनों का पेट पालने से वंचित करना प्रकारान्तर से बाल अधिकारों के हनन में ही आयेगा। जब तक हम अपने समाज को विकसित देशों के मानकों तक नहीं ले जाते हैं तब तक बजाय बालश्रम की खिलाफत के यह देखना ज्यादा जरूरी है कि किसी बच्चे से बेगार करवाई जाए, किसी बच्चे से अमानवीय या बच्चों से नहीं करवाया जाने वाला काम करवाया जाय। अपने किए श्रम की उसे पूरी मजदूरी मिले। अन्य किन्ही तरीकों से उसका शोषण हो। अफसोस कि कैलाश सत्यार्थी जैसे कई महानुभावों और 'बचपन बचाओ' जैसे कई आन्दोलनों के बाद भी अपने देश में ऐसी अमानवीयताएं बहुत से बच्चों के साथ अब भी हो रही हैं।
बच्चों के लिए सचमुच हम कुछ करना चाहते हैं तो बाल अधिकारों के अपने मानक हमें अपने देश, समाज, और कार्य-व्यापारों के हिसाब से तय करने होंगे। विकसित देशों के इन मानकों से नोबेल, मैग्सेसे और ऐसे अन्य पुरस्कार हम भले ही हासिल कर लें लेकिन उन बालकों को तो अधिकार और अपनों के प्रति उनके कर्तव्य के द्वन्द्व से उन्हें बचा पायेंगे और ही ऐसे सभी अभियानों के बावजूद देश के बच्चों को लगातार शोषित होने से बचा सकते हैं।

10 दिसम्बर, 2014

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