Friday, December 26, 2014

नाम और बुतों में ही सब कुछ रखा है

नाम में बहुत कुछ रखा है। जो कहते हैं कि 'नाम में क्या रखा है काम होना चाहिए' वह आपको भ्रमित कर रहे हैं-अन्यथा क्या जरूरत थी राजस्थान के गांव-गांव में लगे बोर्डों पर राजीव गांधी सेवाकेन्द्र की जगह अटल सेवाकेन्द्र करने की? पता है भ्रष्टाचार के चलते-ये केन्द्र राजीव के नाम पर थे तब भी वैसे ही थे जैसे अब अटल के-नाम पर होंगे। वैसे सूबे की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे को राजीव गांधी से कुछ खास खुन्दक है अन्यथा अपने पिछले कार्यकाल में जयपुर स्थित शिक्षा विभाग के केन्द्रीकृत कार्यालय का नाम राजीव गांधी शिक्षा संकुल की बजाय डॉ. राधाकृष्णन शिक्षा संकुल नहीं करती। अब बताएं राजस्थान की शिक्षा व्यवस्था राजीव गांधी शिक्षा संकुल नाम से चलती तब बेहतर थी या अब जब डॉ. राधाकृष्णन शिक्षा संकुल नाम से चल रही है तब। बेहतर होती तो प्रदेश के समृद्ध और समर्थ लोग क्या अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही नहीं भेजते? कहते हैं राजस्थान में सर्वाधिक सरकारी कर्मचारी शिक्षा के महकमे में है। बावजूद इसके अभिभावक को ठगीजणा निजी स्कूलों में पड़ता है।
सरकारें आती हैं जाती हैं, आती और जाती भी रहेंगी। शालीन शासक जो होते हैं वह नाम नहीं बदलते, योजना ही बदल देते हैं। जिस नाम से योजना चल रही है उसे अनुपयोगी बताया जाता है और थोड़े-बहुत बदलाव के बाद अपने अनुकूल नाम से फिर शुरू कर दी जाती है। इस प्रक्रिया और इसके उद्घाटन आदि पर दो-पांच करोड़ रुपया खर्च भी हो जाता है तो होवे, कौन-सा उन्हें अपनी जेब से देना होता है। सरकारी संपत्ति और सरकारी काम-काज पर होने वाले धन की बरबादी वैसे भी कम नहीं होती।
उत्तर प्रदेश में जब मायावती की सरकार थी तो उन्हें लगा कि नाम से ज्यादा बुत में रखा है और नाम तो कोई वसुन्धरा जैसी आयी तो बदल देगी। ऐसे शासक खड़े आदमकद बुत से शायद डर जाए। और मायावती को यह भी लगा होगा कि इन्दिरा गांधी और देवीलाल की तरह उनकी संतानें तो हैं नहीं जो उनकी मूर्तियां लगवा देंगी, ऐसे में उन्होंने ठीक ही किया कि कई जगह अपने बुत जीते-जी लगवा लिये। इसे आप जातीय आधार पर इसलिए नहीं भुंडा सकते कि आजादी से पहले अपने बीकानेर के ही शासक गंगासिंह ऐसा कर चुके हैं। हो सकता है वे अपने उत्तराधिकारी शार्दूलसिंह को सपूत नहीं मानते होंगे और संभवत: जिन विजयसिंह को वे सपूत मानते थे उन्होंने अपने पिता के लिए जिन्दा रहना जरूरी नहीं समझा। जूनागढ़ के सामने के कुंजद्वार से घुसते ही जो घोड़े पर असवार गंगासिंह की मूर्ति है वह खुद गंगासिंह ने लगवाई। कहते हैं तब किसी ने बहम डाल दिया खुद की जिन्दे की मूर्ति लगना अपशकुन होता है। चूंकि मूर्ति लगानी जरूरी थी सो किसी वास्तु-जानकार की राय ली गई। उन्होंने उपाय बताया कि मूर्ति के पाश्र्व को बन्द कर दिया जाए तो अपशकुन खत्म हो जायेगा, अपशकुन तो खत्म हुआ या नहीं उस ढांचे से पीछे के कचहरी भवन और गंगा थियेटर की दृश्यावली जरूर बाधित हो गयी। कहते हैं -मालिक का मालिक कौन? लेकिन उत्तरप्रदेश में मालिक बदलने से खुद मायावती और उनके हाथियों के सैकड़ों बुत धूल चाट रहे हैं।
अब देखना यह है कि मोदीजी अपनी अमरता के लिए कुछ कर दिखाएंगे या मायावती और वसुंधरा जैसे बुतगी और नामांतर की युक्तियां अपनाएंगे। हां, सरदार पटेल की मूर्ति लगवाकर दुनिया में सबसे बड़ी मूर्ति का कीर्तिमान देश के नाम वे जरूर हासिल कर लेंगे। वैसे मोदी यह अच्छी तरह जानते हैं कि नाम तो बदनाम होने पर ही हो जाता है। रही बात राहुल गांधी की तो उन्होंने नाम की कोई आकांक्षा 'पाळी' हो लगता नहीं। हां, हो सकता है भारत को कांग्रेसमुक्त करवाने के मोदी के महती काम के मुख्य सहयोगी के रूप में वे जाने जायें!

26 दिसम्बर, 2014

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