Tuesday, December 30, 2014

पंचायतराज में शैक्षणिक अनिवार्यता का अनाड़ीपन क्यों?

पंचायतराज चुनावों में उम्मीदवारी हेतु न्यूनतम औपचारिक शैक्षणिक योग्यताओं का अनिवार्य किया जाना इन दिनों चर्चा का खास विषय है। एक अध्यादेश द्वारा लागू इस व्यवस्था के अन्तर्गत जिला परिषद और पंचायत समिति सदस्यों के लिए दसवीं और सरपंच की उम्मीदवारी के लिए आठवीं कक्षा पास होना जरूरी कर दिया गया है। ऊपरी तौर पर देखें तो नई की गई इस व्यवस्था को अच्छा ही बताया जायेगा और हो सकता है इस व्यवस्था का विरोध करने वाले को प्रगतिशील माना जाय। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों को देखें तो यह अव्यावहारिक लगेगी। पहली बात तो यह है कि देश, समाज और व्यक्ति की अधिकांश समस्याएं जिन्होंने पैदा कीं उनमें अधिकांशत: पढ़े-लिखे ही हैं। इसके मानी यह कतई नहीं है कि शिक्षा के सभी पहलू नकारात्मक हैं। शिक्षा ने दिया भी बहुत कुछ है या कहें आधुनिकता इसी की देन है। लेकिन यह भी नहीं माना जा सकता कि जिन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की वे नाकारा हैं। औपचारिक शिक्षा की विशेष व्यापकता आजादी बाद के इन सड़सठ वर्षों में ही देखी गई। इससे पहले इस तक पहुंच सीमित वर्ग-विशेष की ही थी या कहें आजादी के पहले के शासकों ने उतनों को या उन्हीं को शिक्षित किया जो उनके राज में सहायक हो सकते थे।

हम में से अधिकांश के पिता या दादा-परदादाओं में से बहुत कम को औपचारिक शिक्षण व्यवस्था का लाभ मिला होगा लेकिन उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समझ अन्य पढ़े-लिखों से बेहतर थी--ठीक ऐसे ही बहुत से ऐसे पढ़े-लिखों से अकसर साबका पड़ जाता है जिन्हें देश, समाज और राजनीति की बात तो दूर, परिवार को चलाने जितनी भी समझ नहीं होती।

भ्रष्टाचार जैसी बुराई की दीमक ने देश की लगभग सभी व्यवस्थाओं को खोखला कर दिया है, उसके एक बड़े संवाहक तथाकथित शिक्षित ही हैं। कह सकते हैं यह दीमक ग्रामीणों तक भी पहुंच गई है तो क्या गारन्टी है कि उनके शिक्षित होने से यह खोखलापन नहीं बढ़ेगा। आजादी के सड़सठ वर्षों बाद भी इस तरह के आदेश की नौबत आना लोकतांत्रिक शासन की बड़ी विफलता माना जाना चाहिए। इतने वर्षों बाद भी शासन इस तरह की व्यवस्था नहीं बना पाया जिसमें प्रत्येक नागरिक न्यूनतम औपचारिक शिक्षा से लाभान्वित हो सके।

पूरी व्यवस्था आज भी समर्थों के कब्जे में है, चाहे वह जातीय तौर पर सक्षम हों या शासकीय तौर पर या फिर लिंगीय तौर पर। देखा गया है कि आरक्षण के बावजूद सत्ता के अधिकांश स्रोतों पर या तो उच्च जातिवर्ग के पुरुष प्रभावी हैं या राज या शासन में जिसने किसी तरह से कैसी भी भागीदारी हासिल कर ली हो या उनसे लाभान्वित होने वालों की हिस्सेदारी है। जो कमजोर जाति-वर्ग से हैंं--स्त्रियां हैं या आर्थिक रूप से अक्षम है, ऐसों की शासन में भागीदारी पहले से ही बहुत कम है। ऐसे वंचित अधिकांशत: शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं। ऐसे में वसुन्धरा सरकार का यह अध्यादेश समर्थों के सबलीकरण का ही अध्यादेश कहा जायेगा।

यही कारण है कि देश के हमारे इस अनूठे प्रदेश में जहां पंचायतराज में भागीदारी के लिए औपचारिक शिक्षित होना अनिवार्य किया गया है, उसका वे सभी सामाजिक बौद्धिकगण विरोध कर रहे हैं जिन्हें बहुत पढ़ा-लिखा और लगातार देशहित में सोचने वाला माना जाता है। यह और भी विचित्र है कि पूरे प्रदेश और उससे भी बढ़कर पूरे देश के शासन-प्रशासन को मार्गदर्शन देने वाली संसद और विधानसभा की उम्मीदवारी के लिए वह प्रत्येक जो उम्मीदवारी की पात्रता रखता है उनमें से कई ने औपचारिक शिक्षा व्यवस्था के पहले पायदान पर भी कभी कदम नहीं रखा यानी जो कभी स्कूल ही नहीं गये, जब ऐसे लोग संसद और विधानसभा के लिए तो उम्मीदवार हो सकते हैंं लेकिन पंचायतराज की किसी लोकतांत्रिक इकाई में नहीं, है ना यह अजब बात। वसुंधरा राजे ने पता नहीं किन पढ़े-लिखों की सलाह पर यह अध्यादेश लाने की जरूरत समझी। उन्हें इसे वापस लेकर उन सलाहकारों के जिम्मे यह काम सौंप देना चाहिए कि वे आगामी चार वर्ष में प्रदेश के सभी अनपढ़ों को कम-से-कम इस योग्य तो बनवा दें कि वे आठवीं उत्तीर्ण का प्रमाण-पत्र हासिल कर लेंं। ऐसा असंभव नहीं है। अनिल बोर्दिया जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हुए भी अधिकारी कम और एक शिक्षाकर्मी ज्यादा थे, उन्होंने अपनी लोक जुम्बिश परियोजना माध्यम से व्यावहारिक तौर पर इसे कुछ महीनों के शिविरों में संभव कर दिखाया है।

30 दिसम्बर, 2014

No comments: