Tuesday, December 23, 2014

संघ, मोदी और देश की तासीर

पिछले डेढ़ वर्ष से ज्यादा समय से देश नहीं तो कम-से-कम राजस्थान लोकतंत्र के महती अनुष्ठान चुनाव की चपेट में है। एक वर्ष से तो पूरा देश चुनावी खूंटियों पर टंगा है। पिछले वर्ष दिसम्बर में हुए प्रदेश विधानसभा चुनावों का चौळका छह माह पूर्व शुरू हो गया था। वहीं मोदी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति में जबरदस्त बढ़त लेती भारतीय जनता पार्टी ने यह चौळका सितम्बर, 2013 से पूरे देश में ही कर दिया था। उसके बाद से ही भाजपा लगातार 'हासिल दौर से गुजर रही है, केन्द्र में पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार होने के बावजूद वह अपने जाहिर और छिपे, दोनों तरह के ऐजेन्डों पर धन-धन नहीं कर पायी। झारखण्ड और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के आज सुबह से रहे नतीजे भी यही बता रहे हैं कि जनता एक बार मोदी को देखना चाहती है कि वे केवल कहते ही हैं या कुछ कर भी दिखाएंगे। मोदी यदि सचमुच कुछ भले हैं तो ऐसे सभी परिणामों के बाद अपने पर और दबाव महसूस करने लगेंगे। क्योंकि उन्होंने पिछले डेढ़ वर्ष में जो-जो कहा उसे पूरा नहीं तो आधा-अधूरा तो उन्हें कर दिखाना होगा। हालांकि इन सात महीनों में वे उम्मीद भी टिमटिमा नहीं पाएं हैं। पिछले दिनों आई एक खबर जिसमें उनके द्वारा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को पद छोडऩे की धमकी देने की बात उजागर हुई है, यदि ऐसा सचमुच हुआ है तो इसकी कई प्रतिध्वनियां हैं, यानी मोदी चाह रहे हैं कि संघ के छिपे ऐजेन्डों को दरकिनार कर दिया जाए, देश की सरकार चलाने जैसे बेहद मुश्किल काम को उन्हें सुकून से करने दिया जाए, उनकी बातों पर जनता ने जो भरोसा जताया है, उस भरोसे पर खरा उतरने का प्रयास उन्हें करने दिए जाएं!
पिछली सदी के आठवें दशक के शुरू में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले मोदी उस इतिहास से शायद भली-भांति परिचित होंगे जिसमें 1971 के चुनावों में कांग्रेस की इन्दिरा गांधी को भारी बहुमत फिर संजय गांधी का शासन में हस्तक्षेप, आपातकाल और फिर 1977 के चुनाव और इन चुनावों में कांग्रेस का उत्तर भारत से लगभग साफ होना, 1979-80 के चुनावों में लौटना। यह सभी घटनाएं यह बताती हैं कि जनता जिस तरह चटपट सिर पर बिठाती है, मोह भंग होने पर वैसे ही गिराने में देर नहीं करतीं। 1971 से 1980 तक में हुए नीचे से ऊपर तक के सभी चुनावों के परिणाम जनता की ऐसी मानसिकता को भली-भांति जाहिर करते हैं। इन दस वर्षों में मोदी केवल युवा थे बल्कि व्यावहारिक राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी शुरू हो चुकी थी।
देश की व्यावहारिकता से संघ का कभी कोई व्यापक तारतम्य नहीं रहा है, हालांकि अनुशासित संगठन होने के नाते चुनावों में अपनी पार्टी की व्यवस्थाई भूमिका वह पारंगत ढंग से निभाता और परिणाम भी देता आया है। लेकिन देश की जन-मानसीय तासीर से इसका वास्ता कभी नहीं रहा। यही कारण है कि वह अकेले बूते आज तक कुछ खास नहीं कर पाया। पिछला चुनाव भी भाजपा ने कांग्रेस की बट्टे खाते गई साख और उसे भुनाने की मोदी की कूवत से जीता गया, संघ की भूमिका एक व्यवस्थित सहयोगी से ज्यादा की नहीं रही। यह बात संघ यदि समय रहते नहीं समझेगा तो भाजपा से जनता का मोह भंग होते देर नहीं लगेगी।
लगता है मोदी इसे समझने लगे हैं और हाल के उनके पगपीटे शायद इसी कारण हैं। संघ देश-प्रदेश की भाजपा सरकारों के चलते और अपनी अनुषंगी संगठनों के सहयोग से पिछले चालीस वर्षों से जो आम जनमानस को अपने अनुकूल बना रहा है वह उसकी कम उपलब्धि नहीं है। संघ हड़बड़ी नहीं करेगा तो मोदी के बहाने वह देश की तासीर बदलने के अपने इस अभियान को सुचारु चला सकता है। यह बात अलग है कि तासीर किसी की बदलना प्राकृतिक नहीं है, निष्ठा एवं वैकल्पिक अभियान के अभाव में क्या ऐसा होना संभव है? विकल्प फिलहाल कोई नहीं दीख रहा है।

23 दिसम्बर, 2014

No comments: