Thursday, December 25, 2014

इन अलंकरणों के क्या मानी

नरेन्द्र मोदी नेतृत्व की राजग सरकार आने के बाद से ही यह लगभग तय था कि मदनमोहन मालवीय और अटलबिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किया जायेगा। इन नागरिक सम्मानों की धारणा राजशाही गुलामी की मानसिकता से प्रेरित है। नवाब, बादशाह, राजा, महाराजा और ब्रिटिश एम्पायर जैसे सभी के शासनों में ऐसी उपाधियां देकर व्यक्ति को विशिष्ट बनाया जाता था। माना कि वे चन्द लोग जो समाज के लिए कुछ खास नहीं कर पाते हैं या वे भी जो सामाजिक समानता का उल्लंघन करके पहले तो अन्यों से अधिक हासिल करते हैं और फिर उसका एक हिस्सा समाज के लिए लगाकर वाह-वाही हासिल कर लेते हैं या शासन की चापलूसी से या शासक के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा दिखाकर ऐसे विशिष्ट दर्जे हासिल किए जाते रहे हैं यानी इस तरह का प्रचलन सामन्ती व्यवस्थाओं में होता आया है। वैसे महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों में जहां पूरी कथा राजशाही के इर्द-गिर्द ही घूमती हैवहां ऐसे नागरिक अलंकरणों का उल्लेख शायद ही है, यानी इस तरह का प्रचलन ज्ञात पिछले एक हजार वर्षों के इतिहास से पहले नहीं मिलता।

देश आजाद हुआ, लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अपनाया गया और संविधान में समानता के प्रावधान के साथ शासन कार्य शुरू हुआ। संविधान की मूल भावना में इस तरह की उपाधियों की कोई गुंजाइश नहीं है, सम्मान देने-लेने की लालसा नहीं गई सो गली निकाली गई। इन्हें शुरू करने पर तय किया गया कि भारत रत्न से लेकर पद्मश्री तक उपाधियां नहीं मानी जायेंगी और ही इन्हें नाम के शुरू में लगाया जा सकेगा। देश में जिस तरह बहुत से अन्य नियम-कायदों की धज्जियां उड़ती रही हैं वैसा ही इन नागरिक सम्मानों के साथ भी हुआजिन्हें भी ये सम्मान मिले, स्वयं वे या उनके चाहने वाले इन सम्मानों के बिना नाम का उल्लेख ही नहीं करते हैं।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक की जिम्मेदारी तय है, और वह उस जिम्मेदारी को यदि अपनी पूरी क्षमता से निभाता है तो अपना कर्तव्यपालन ही कर रहा होता है। भारतीय सनातनता के हिसाब से बात करें तो कोई भी व्यक्ति समाज के लिए कुछ करने के योग्य हुआ तो वह अपने उस हासिल के लिए समाज का ऋणी होता है और उस ऋण का चुकारा समाज के लिए कुछ करके करना होता है। इस तरह के भाव को हम सिरे से विस्मृत करते जा रहे हैं।

पिछले सात महीनों से जब से मोदी सत्ता में आए हैं, तब से मोदीनिष्ठों की एक बड़ी शिकायत यह है कि यह सब नुक्ताचीनी मोदी के रहते ही क्यों हो रही है, सड़सठ वर्षों में सब कुछ सही-सही होता था क्या? उन्हें शायद पता नहीं, तब भी आज से ज्यादा तार्किक तौर पर आलोचनाएं होती रही हैं लेकिन तब सूचनाओं का आज की तरह व्याप्तीकरण नहीं होता था। पिछले कुछ वर्षों से जब  से संचार के साधन बढ़े हैं और सोशल साइट्स लोकप्रिय हुईं तब से हर किसी को अपने विचार प्रकट करने का अवसर हासिल हो गया है। संघनिष्ठों ने कांग्रेसियों को इन सोशल साइट्स पर कम उघाड़ा नहीं कियाबल्कि वे तो छिछालेदर पर उतर आते हैं।

भारत रत्न और पद्म सम्मानों का विरोध लोकतान्त्रिक मूल्यों को जीने वालों की तरफ से शुरू से ही होता आया है। हम भूल रहे हैं कि 1977 में जब पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तब के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अपनी जनता पार्टी के कई दिग्गजों की असहमति के बावजूद ऐसे सामन्ती पुरस्कारों को सामन्ती कह कर नकार दिया और बन्द कर दिया था। लेकिन विडम्बना देखो 1991 में जब देसाई के लिए घोषित किया गया तो बिना ना-नुकुर के ग्रहण कर लिया।

कांग्रेस इन पुरस्कारों को देने में राजनीति करती आयी है, जनसंघ और भाजपा हमेशा ऐसे आरोप लगाती रही लेकिन जब खुद के पास शासन आता है तो सभी मामलों में वह इसी कांग्रेस की भद्दी कापी करती देखी जाती है।

अन्यथा जनता जिन्हें मन से भारतेन्दु, महात्मा, महामना, नेताजी, बाबा साहेब और लौहपुरुष जैसे विशेषणों से सम्बोधित करना शुरू कर देती है उनके लिए ऐसे सम्मान महत्त्वहीन होते हैं। मदनमोहन मालवीय को जनता महामना कहती आई है, उनके लिए भारत रत्न का महत्त्व महामना से ऊपर हो जायेगा क्या? कांग्रेस और भाजपा या अन्य कोई सरकारें एक-दूसरे की भूल सुधार ऐसे ही करने लगेंगी तो भारत रत्नों की फेहरिस्त सैकड़ों में पहुंचेंगी। अच्छा ही है इसी तरह ही सही यह उपाधियां लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी दुर्गति को प्राप्त हो लेंगी।

रही बात अटलबिहारी वाजपेयी को भारत रत्न मिलने की तो जिस तरह इन्दिरा गांधी, एमजी रामचन्द्रन और राजीव गांधी रत्न हो लिए वैसे ही वाजपेयी भी हो लेंगे।

मोदीजी को ये रमतिये करने की बजाय कुछ सार्थक कामों में लगना चाहिए। जनता को उन्होंने उम्मीदों का बड़ा भारी टोकरा उंचा रखा है। सात महीने निकल गये, पांच वर्ष निकलते देर नहीं लगेगी। कूवत है तो कुछ करके दिखाने का समय गया है। मन की बात, नारों और अभियानों को यह देश वर्षों से भुगत रहा है। ध्यान बंटाना छोड़िये मोदीजी!
―दीपचंद सांखला

25 दिसम्बर, 2014

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