Wednesday, December 17, 2014

आत्मावलोकन : पेशावर संहार का सबक

पाकिस्तान के पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल जब पढऩे के अपने धर्म को धारण कर ही रही थी तभी कुछ धर्मच्युत दहशतगर्द स्कूल भवन के पिछवाड़े के कब्रिस्तान के रास्ते मौतों के साथ अन्दर घुस आए और ताबड़तोड़ हिंसा बरपाने लगे। स्कूल में पढऩे वाले 132 बच्चों-किशोरों, 9 स्कूलकर्मियों और 2 सैनिकों सहित खुद सातों मौत के घाट उतर गये। तकरीबन इन डेढ़ सौ के अलावा 250 के घायल होने के समाचार हैं। उम्मीद करते हैं कि ये सभी घायल अपने परिजनों के लिए बच जाएंगे लेकिन कितने शारीरिक-मानसिक तौर पर अपनी शेष जिन्दगी जी पाएंगे कहना मुश्किल है।
इस बीभत्स कृत्य को अंजाम देने की निर्मम जिम्मेदारी जिस समूह ने ली वह इसे यह कहकर उचित ठहरा रहा है कि वह सेना ही है जिसके 'जर्ब- अज्ब' अभियान की गोलीबारी में उनके परिजन और बच्चे भी मारे जा रहे हैं। इस आतंकी कार्यवाही का मकसद यही है कि सेना के जवान बच्चे खोने का हमारा दर्द भी समझ सकें। उनका यह कुतर्क इस बात का प्रमाण है कि ऐसे दहशतगर्दों की संवेदनाएं पूरी तरह सूखी नहीं हैं। अपने बच्चों के लिए ही सही उनके यहां संवेदनाएं दुबकी हुई तो हैं। ऐसी बारीक उम्मीदों की बरामदगी में बड़ी समस्याओं के समाधान मिल सकते हैं।
इस घटना की खबर आने के बाद से लोग टीवी और अन्य संचार माध्यमों से जानकारी लेने लगे और जो सोशल साइट्स पर सक्रिय हैं वे अपने-अपने आपे के अनुसार प्रतिक्रियाएं भी देने लगे। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने नकारात्मक टिप्पणियां की, इसलाम को भुंडाया और अपने को श्रेष्ठ बताने में नहीं चूके। कल लगा कि आत्ममुग्धता भी कैसे दहशत की उत्प्रेरक हो सकती है। नहीं जानते कि ऐसे अवसरों पर भी लोग संयत क्यों नहीं रह सकते और अपने को पूरी तरह जाने-समझे बिना दूसरों को हेय घोषित करने की जुर्रत कैसे कर लेते हैं, ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जो लोग दहशतगर्दी में लगे हैं उनकी मानसिकता का मूल आधार खुद उन जैसा ही होता है।
चूंकि इस घटना को अंजाम देने वाले अपने को इसलाम का पैरोकार बताते हैं सो बहुत से मुसलमान मित्रों ने बहुत ही संयत तौर पर आत्मावलोकनात्मक टिप्पणियां की हैं तो कुछ मुसलमान मित्र ऐसे धर्म को खारिज करने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। धर्म निहायत व्यक्तिगत मामला होता हैअत: उसकी इस तरह आलोचना करने का हक उसी धर्म को मानने वाले का तो हो सकता है लेकिन दूसरे धर्मावलम्बी यदि ऐसा करते हैं तो यह असहिष्णुता में आयेगा और असहिष्णुता हिंसा और दहशतगर्दी का पहला पायदान माना गया है। इसलिए जो अन्य धर्मावलम्बी इस घटना के बाद इसलाम को कोस रहे थे वे भूल रहे हैं कि वे इस तरह वैसी ही विष पौध खुद में भी बो रहे हैं।
सभी जानते हैं पाकिस्तान धर्म के आधार पर भारत से अलग हुआ। जब से अलग हुआ तब से वह लगभग बेचैन है। 'विनायक' ने जैसा पहले भी कहा कि घर के पड़ोसी से छुटकारा पाने का अन्तिम विकल्प घर बदलना हो सकता है लेकिन पड़ोसी देश के मामले में इस विकल्प की गुंजाइश भी नहीं होती। ऐसे में यदि हम पड़ोसी से बेहतर स्थितियों में हैं तो हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। और तब तो और भी ज्यादा जब हम पूरे विश्व को एक परिवार मानने का दावा आत्ममुग्धता में करते रहे हैं।
नयी सरकार के बाद जो 'घर वापसी' की सनक शुरू की गई है उसकी जड़ में यह मानना भी है कि देश के अन्य अधिकांश धर्मावलम्बियों के पूर्वज पहले हिन्दू ही थे। इस धारणा से उनके 'अखण्ड भारत' के हिसाब से बांग्लादेश और पाकिस्तान के मुसलमानों के पूर्वज भी कभी हिन्दू ही रहे होंगे। इन सभी ने हिन्दू धर्म को चाहे जोर जबरदस्ती से त्यागा हो या किन्हीं प्रलोभनों के चलते, तब ऐसी परिस्थितियां बनीं इसकी जिम्मेदारी से हम कैसे मुक्त हो सकते हैं? तब ऐसा हुआ और अब भी ऐसे धर्मान्तरण यदि उसी तर्ज पर हो रहे हैं तो जायज कैसे? यदि हम उसी रास्ते की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं जिसका गंतव्य पेशावर जैसी घटनाएं हैं तो हमें ठिठकना होगा, केवल ठिठकना बल्कि विराम लेकर मनुष्यता की ओर भी लौटना होगा। मनुष्य खुद सहज रह सके उन युक्तियों की पड़ताल करनी होगीआग्रह, प्रलोभन, प्रेरणा-बलात् और भ्रम से कुछ करवाने और हासिल करने के असहजता नहीं मानेंगे तो देर-सबेर  हम भी उन स्थितियों में ही पहुंचेंगे जिन्हें पाकिस्तान आज भुगत रहा है। प्रतीकात्मक संवेदनाएं जताने के अपने मानी सीमित होते हैं, इन्हें शुरुआत तो मान सकते हैं परिणामात्मक नहीं।

17 दिसम्बर, 2014

No comments: