Monday, December 1, 2014

आज बात स्वदेशी की

स्वदेशी की अवधारणा के लिए क्या अब भी कोई गुंजाइश बची है? शहर में स्वदेशी महोत्सव चल रहा है, इसके आयोजक उसी पार्टी की पितृ संस्था से संबद्ध हैं जिसकी सरकार केवल प्रदेश में बल्कि केन्द्र में भी पूर्ण बहुमत के साथ काबिज है। वैसे तो उक्त प्रश्न की भी कोई प्रासंगिकता नहीं बची है, चूंकि इतना बड़ा आयोजन हो रहा है और मीडिया भी उसे  पूरा स्थान और समय दे रहा है तो लगा कि क्यों इस स्वदेशी की पड़ताल भी कर ली जाय।
आजादी के आन्दोलन के लिए स्वाभिमान जगाना गांधी को जरूरी लगा, अंग्रेजों की आर्थिक नीतियां यहां के उद्योगों और व्यवसाय को लील रही थी। उनके राज का मकसद भी आर्थिक शोषण ही था। गांधी की स्वदेशी की बात हाथो हाथ ली गई। हाथ के हुनर वाले कारीगरों और व्यापारी गांधी की बात में अपना पुनर्जीवन देखने लगे तो शेष भारतीयों को लगा कि गांधी के इस आह्वान के माध्यम से अपना स्वाभिमान पुनस्र्थापित कर सकते हैं। गांधी की इस युक्ति का असर देखकर अंग्रेज शासक समझ गये थे कि यह उनके मर्म पर चोट है। वे ये मानने लगे कि भारतीयों के आर्थिक शोषण की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है, यह गुंजाइश पूरी तरह खत्म हो जाने पर केवल शासकीय प्रबन्ध जैसी बेगार के लिए चतुर अंग्रेज शासक करने वाले नहीं थे। देश छोड़कर जाने का मन बनाने के कारणों में गांधी के स्वदेशी आन्दोलन की भी महती भूमिका थी।
आजादी बाद गांधी रहे नहीं। नेहरू यूरोप के आर्थिक ढांचे से प्रभावित थे, वे बड़े-बड़े बांध और बड़े-बड़े उद्योग वाले देश को बनाने में लग गये। इसे नजरअन्दाज करते हुए कि भारत जैसे बड़े देश की प्रकृति, बसावट और सामाजिक, आर्थिक स्थितियां यूरोप के छोटे-छोटे देशों से एक दम भिन्न है। कहते हैं नेहरू को अन्तिम समय में अपनी इस गलती का अहसास होने लगा और अपनी भूल को वे सार्वजनिक तौर पर स्वीकारने भी लगे थे। उन्हें लग गया था कि भारत जैसे देश को गांधी के सुझाए कुटीर और लघु उद्योगों और गांवों के विकास से ही समृद्ध बनाया जा सकता है। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। 'अब पछताए क्या होत, जब चिडिय़ा चुग गई खेत'
आजादी बाद रस्म अदायगी के तौर पर सर्वोदयी स्वदेशी की बात करते रहे। खादी संस्थाएं कुछ वर्षों तक गांधीवादी मूल्यों के साथ अपने अस्तित्व को बचाने में लगी रहीं, फिर इनमें से अधिकांश समय की छाया में दंद-फंदों में लग गईं। पिछली शताब्दी के अन्त में एक राजीव दीक्षित आए जिन्होंने स्वदेशी की बात को अपना पेशा बनाया, पेशा इसलिए कहा कि वे अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए शुद्ध साधनों के आग्रही नहीं थे और ही स्वदेशी की उनकी अवधारणा ही स्पष्ट थी। यद्यपि उनका देहान्त असमय हो गया लेकिन उनके नाम से स्वदेशी के अलावा भी अनर्गल बहुत कुछ चलाया जा रहा है।
स्वदेशी की राजीव दीक्षित की संकल्पना स्पष्ट नहीं होने से उनके जीवन में ही बड़े औद्योगिक घराने उनका उपयोग करने लगे थे। वे यह समझ नहीं पाए कि बड़े उद्योगों का मुनाफा किसी एक घराने के पास जाने से स्वदेशी का मकसद पूरा कैसे हो सकता है। स्वदेशी को गांधी की असल संकल्पना थी कि जो वस्तु हाथ से बन सकती है उसे बजाय मशीन के हाथ से बनाना चाहिए, और उसका विक्रय भी स्थानीय और छोटे माध्यमों से हो ताकि हर परिवार को रोजगार मिल सके। स्वदेशी की बात करने वाले रामदेव सभी कुछ मशीनों से ही बना रहे हैं। स्वदेशी की इस अधकचरी सोच के चलते इस बड़ी आबादी के देश में सभी को रोजगार मिलना संभव ही नहीं है। रही-सही कसर नई आर्थिक नीतियों ने पूरी कर दी, जिसे लागू तो कांग्रेस ने किया पर बाद में भाजपा समेत सभी सरकारों ने उसे पोषण दिया। नरेन्द्र मोदी तो उन्हें बेधड़क चरम पर पहुंचाने की ही मंशा रखते हैं।
खुदरा व्यापार के ताजा आंकड़े चौंकाने वाले हैं, पिछले दस वर्षों से 'ऑनलाइन' खरीद-विक्रय की हिस्सेदारी कुल व्यापार का उनतालीस प्रतिशत हो गयी है। इसका छिटपुट विरोध भी होने लगा है, लेकिन इस विरोध का कुछ नहीं बटेगा। खुले वैश्विक बाजार पर चीन सहित कई देश अपने उत्पादों के साथ काबिज हो रहे हैं तो उन्हें बेचने का काम भी कुछ ही देशी-विदेशी समूहों में सिमट रहा है। समाज के बड़े ग्राहकवर्ग-मध्यम, उच्च मध्यम वर्ग को लगातार 'ऑनलाइन' खरीद के लिए आकर्षित किया जा रहा है। 'ऑनलाइन' खुदरा बाजार का उनतालीस प्रतिशत आंकड़ा इस भयावहता को समझने के लिए पर्याप्त है कि खुदरा बाजार वालों के आने वाले दिन अच्छे नहीं रहेंगे। ऐसे में स्वदेशी की बात बन्दरिया के उस मरे बच्चे सी ही है जिसे वह अंध-ममत्व में चिपकाए रखती है।

1 दिसम्बर, 2014

1 comment:

Vaicharik Kalamkaar said...

प्रासंगिक है। गांधी के विचारों को आधुनिक संदर्भ में समझने के प्रयास कम ही हुए हैं। मुनाफ़े पर आधारित उद्योगवाद मानव-सभ्यता को गहरे संकट में ले जा रहा है। मार्क्स ने भी यह कहीं नहीं लिखा है कि समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था उस उद्योगवाद पर आधारित होगी, जो पूंजीवादी संस्कृति की विशेषता है और जो गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित है। गांधी के हिंद स्वराज का पुनर्पाठ ज़रूरी है।