Thursday, January 24, 2019

कांग्रेस और भाजपा के लिए आत्म निरीक्षण का समय (7 मार्च, 2012)

कुलदीप नायर के साथ कल एनडीटीवी पर विनोद दुआ पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर बातचीत कर रहे थे। कुलदीप नायर देश के जाने-माने पत्रकार हैं, वे लगभग आजादी के समय से ही भारत और पड़ौसी मुल्कों की राजनीति और समाज को बहुत बारीकी से देखते समझते आये हैं। नायर व्यक्ति की अधिकतम और आदर्श स्वतंत्रता के हिमायती भी हैं।
भारत संघ के राज्यों में स्थानीय पार्टियों के उद्भव पर नायर का मानना था कि केन्द्र द्वारा राज्यों को अधिक अधिकार देने का समय आ गया है--वे मानते हैं कि केन्द्र के पास केवल रक्षा, विदेश और संचार सम्बन्धी अधिकार ही रहने चाहिए। शेष सभी मामलों में राज्यों को स्वायत्त कर दिया जाना चाहिए। विनोद दुआ जो स्वयं जाने माने टीवी-पत्रकार हैं, नायर से पूरी तरह सहमत नहीं लगे। दुआ ने इतिहास का हवाला देकर बताया कि जब जब केन्द्र कमजोर हुआ है, देश के टुकड़े हुए हैं। इसके उत्तर में नायर का यह कहना था कि उस समय सेना या रक्षा जैसे विभाग केन्द्र में केन्द्रीकृत नहीं थे इसलिए ऐसा हुआ था।
उक्त जानकारी तो यूहीं दी गई है ताकि पाठकों को इन मुद्दों पर भी विचार करना चाहिए। लेकिन इसी बहाने नागरिकों को और इन चुनावों के नतीजों के बहाने राष्ट्र स्तर की पार्टियां होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए आत्म निरीक्षण का समय है। कुल जमा दो पार्टियों में एक कांग्रेस, तीन चौथाई भाजपा और एक चौथाई वाम दलों को मान सकते हैं। कांग्रेस को स्थापित हुए सवा सौ से ज्यादा वर्ष हो गये हैं। इसी के चलते विपक्षी दल उस पर बूढ़ी हो जाने का तंज भी करते हैं, पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में कांग्रेस की जो स्थितियां बनी है वे विचारणीय तो थी ही इन चुनावी नतीजों के बाद तो चिन्ताजन्य भी हो गई हैं। ऐसे समय में किसी भी पार्टी में युवाओं से उम्मीदे बढ़ जाती हैं लेकिन कांग्रेस में घोषित युवा प्रतीक राहुल गांधी में कोई परिपक्वता अभी तक तो परिलक्षित नहीं हो रही है अन्य कोई योग्य युवा शायद इसलिए मुखर नहीं हो रहे है कि कहीं इसे उनका राहुल पर ओवरटेक नहीं मान लिया जाय।
दूसरी जो पार्टी अपने राष्ट्रीय होने का दम भरती है वह है भाजपा। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बात करें तो कांग्रेस और भाजपा दोनों का चरित्र एक-सा है लेकिन भाजपा के लिए दूसरा नकारात्मक पहलू है उसका साम्प्रदायिक होना। भाजपा के कई खेवणहार यह अच्छी तरह जानते हैं कि इस सांप्रदायिक संकीर्णता के चलते वे भारत जैसे देश में अपनी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत को कभी भी तीन चौथाई से पूर्णता में परिवर्तित नहीं कर सकते लेकिन उनका सत्यासी वर्षीय मातृ संगठन आरएसएस बतीस वर्ष की युवा हो चुकी भाजपा की अंगुली छोड़ने का इच्छुक नहीं दीखता है। बीच-बीच में भाजपा ने जब-जब खुद मुख्त्यारी दिखाते हुए संगठन लाइन से अलग निर्णय लिए तो वह सफल होती दिखी। ताजा उदाहरण गोवा का है जहां पार्टी ने संगठन लाइन को छोड़ते हुए अधिकांश टिकट ईसाइयों को दिये और उनमें भरोसा दिखाया तो न केवल सफल हुई बल्कि वहां राज करती कांग्रेस को पछाड़ कर सरकार बनाने भी जा रही है। नहीं समझ आता कि भारत जैसे देश को  भाजपा कब समझेगी और अपने साम्प्रदायिक चोले को उतार फेंकेगी अन्यथा राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपनी तीन-चौथाई पार्टी की हैसियत से आगे वह कभी नहीं बढ़ पायेगी, रही बात भ्रष्टाचार की तो उसमें तो भाजपा भी कांग्रेस से कमतर नहीं है। बाकी सब मुद्दे तो वैश्वीकरण और बाजारवाद की शरण में पहले ही जा चुके हैं।
शेष चौथाई राष्ट्रीय पार्टियों (वामदलों) के बारे में फिर कभी बात करेंगे--लेकिन कुलदीप नायर और विनोद दुआ की बातचीत के परिप्रेक्ष्य में भाजपा और कांग्रेस दोनों से गहरे आत्म निरीक्षण की उम्मीद की जाती है।
-- दीपचंद सांखला
7 मार्च, 2012

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