Tuesday, January 29, 2019

इन बजटों की चक्कर-घिन्नी और आमजन (17 मार्च, 2012)

‘आम लोगों’ का अर्थ उनसे है जिनकी आय का कोई निश्चित साधन नहीं है या जिन्हें जीवन यापन की न्यूनतम जरूरतों को हासिल करने के लिए न केवल भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, बल्कि जरूरी सूचनाओं के अभाव में दिन-प्रतिदिन एक से अधिक बार छल और धोखे का शिकार भी होना पड़ता है।
उक्त उल्लेख इसलिए किया कि कल जब आम बजट पर  शहर के कर सलाहकार और शतरंज प्रतियोगिताओं के आयोजक शंकरलाल हर्ष का फोन आया कि बजट आम आदमी की और से बजट पर प्रतिक्रिया यह है कि जिस तरह आयकर छूट की सीमा 1,80,000 से दो लाख की गई है उसमें व्यक्ति को करों में मात्र 2,000 रुपये की ही राहत मिलेगी। उनके विचार से यही आम लोगों की श्रेणी है, जबकि जिस उच्च मध्यम श्रेणी के आयकर देने वालों की छूट की सीमा 8 लाख से 10 लाख की गई है उन्हें 10 प्रतिशत के हिसाब से 20,000 रुपये का फायदा होगा। हर्ष से हुई बात में हम दोनों ने उम्मीद जतायी थी कि शायद आज सुबह के अखबारों में विश्लेषणों या वक्तव्यों में इसे खोल दिया जायेगा लेकिन इस तरह से खुल कर समझने का मौका सुबह के अखबारों ने नहीं दिया।
हर्ष की यह प्रतिक्रिया तार्किक थी लेकिन जिसे वे आम मानते हैं उससे सहमति की गुंजाइश नहीं दिखती है। दरअसल आजादी के बाद से ही अपने देश में आम आदमी की परिभाषा भ्रमित करने वाली है। अपने देश में लगभग आधी से ज्यादा आबादी जीवन यापन की मूलभूत सुविधाओं यथा रोटी, कपड़ा, मकान से आंशिक या पूरी तरह वंचित है। अब आप ही बतायें कि आम आवाम इस आधी आबादी को कहें या 2 लाख की सालाना आय के साथ मासिक 16,500 रुपये कमाने वाले को। देश की कुल आबादी के लगभग 20% लोग ही इन बजटों से प्रभावित-अप्रभावित ज्यादा होते हैं ‘शेष’ 80% में से कुछ तो इनकी लपेट में आते हैं। शेष तो इसकी लपेट में आने जैसे हैसियत भी नहीं रखते! इसकी प्रतिक्रिया में आप कह सकते हैं कि देश की मनरेगा, बीपीएल और सब्सिडी जैसी सारी योजनाएं, जिनमें आम बजट की मोटी धनराशि खर्च होती है, के लाभान्वित इन्हीं ‘शेष’ 80% लोगों में से आते हैं। अब इन योजनाओं से प्रभावितों और लाभान्वितों के संबंध में देश के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी द्वारा लगभग ढाई दशक पहले दिये उस बयान के सन्दर्भ में विचार कर लेना चाहिए जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि सरकार द्वारा इन वर्गों के लिए भेजे गये प्रति एक रुपये में से पंद्रह पैसे ही जरूरतमंदों तक पहुंचते हैं। लगभग वैसी ही स्थितियां अब भी हैं, तब हमें इस तरह भी देखना होगा कि बाकी की 85% रकम कालेधन के रूप में असल शेष 20% लोगों की तिजोरियों में या उन्हीं की बढ़ती सुख-सुविधाओं के एवज में बाजार में आती है। इस तरह आधुनिक अर्थशास्त्रियों के उस तर्क की पुष्टि होती है जिसमें वह कहते हैं कि उत्तरोत्तर और जैसे-जैसे बाजार रोशन होता रहेगा वैसे-वैसे खुशहाली भी बढ़ती जायेगी। इसी तरह के तर्कों के चलते न केवल छठे के बाद सातवें, आठवें...वेतन आयोग लागू होते रहेंगे बल्कि मनरेगा, बीपीएल और सब्सिडियों जैसी नई-नई लोककल्याणकारी योजनाएं आती रहेंगी और भ्रष्टाचार फलता-फूलता रहेगा।
अब आप ही बतायें कि उक्त सबके चलते सम्पन्नों और गरीबों के बीच बढ़ती इस खाई की दूसरी तरफ के उन असल आमजनों के लिए यह बजट चकर-घिन्नी से कम है क्या? रही बात हम टीवी-अखबार वालों की तो हमें टीआरपी, प्रसार संख्या, पाठक संख्या की घुड़दौड़ में उसी बाजार से मिलने वाले विज्ञापनों से समय मिलेगा तो इस पर भी विचार कर लेंगे!
--दीपचंद सांखला
17 मार्च, 2012

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