Thursday, January 24, 2019

ममता बनर्जी : सनक या तानाशाही (15 मार्च, 2012)

हमारे एक मित्र चूकते नहीं हैं, जब भी उन्हें अवसर मिलता है एक जुमला उछाल देते है : ‘प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यक्ति के भीतर एक तानाशाह दुबका होता है।’ सुनने और गुनने पर उन्हें इसकी मौन स्वीकृति भी मिल जाती है।
इस का स्मरण कल तब हो आया जब तृणमूल कांग्रेस की सुप्रिमो ममता बनर्जी इस बिना पर बिफर गईं कि उनकी पार्टी के रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने बिना उनकी इजाजत के यात्री किराये में दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी क्यों कर दी, बढ़ोतरी तो त्रिवेदी ने तीस पैसे प्रति किलोमीटर तक की की है लेकिन जिस निर्धन के साथ होेने का दावा ममता करती रही हैं वे निर्धन तो जीवन में कभी-कभार जिस श्रेणी में यात्रा करते हैं उसमें तो दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी ही की गई है। हो सकता है या कहें ऐसा है भी कि जिस गरीब को सोने से पहले भर पेट खाना तक नसीब नहीं होता, उसके लिए शायद यह दो पैसे प्रति किलोमीटर की बढ़ोतरी यात्रा से वंचित करने वाली हो। शेष श्रेणियों में तो किराया बढ़ोतरी के विरोध को घड़ियाली आंसु से ज्यादा नहीं माना जा सकता।  हमारा यह टीवी मीडिया भी कल तब तक इस बढ़ोतरी को विकराल बताता रहा जब तक कि ममता बनर्जी खुद इस बढोतरी पर विकराल नहीं हो गईं। मीडिया की इस तरह की भूमिका विचार और चिंता दोनों का कारण बनती है।
दुनिया में अभी यह तय नहीं हो पाया है कि कोई लोकतांत्रिक देश बालिग कितने वर्षों में होता है। पर इन दिनों की घटनाएं यह जरूर बताती हैं कि ना केवल अपना यह भारत देश बल्कि इसके राजनेता और मतदाता तक आजादी के पैंसठ वर्षों बाद भी बालिग नहीं हुए हैं। संसद और विधानसभाओं में अयोग्य, भ्रष्ट और अपराधी किस्म के लोगों को जिता कर भेजना मतदाताओं के बालिग न होने का प्रमाण है तो कल की ममता बनर्जी की रेल बजट पर प्रतिक्रिया या नेताओं- राजनेताओं के ऐसे ही अन्य उदाहरण इनके बालिग न होेन के हैं।
ममता बनर्जी की कल की प्रतिक्रिया जिसमें रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी से हाथों-हाथ इस्तीफा मांग लेना उनके सनकी होने का चरम उदाहरण माना जा सकता है। वह भूल गईं कि जिस पश्चिम बंगाल में पूरे पांच साल उन्हें राज करना है और यह भी कि राज चलाने का जो भी सिस्टम अब बन गया है उसमें वे ऐसा पहले से कैसे मान बैठी हैं कि इन पांच वर्षों में उन्हें, चाहे विकास के नाम पर ही सही, दिनेश त्रिवेदी द्वारा मामूली किराया बढ़ाने जैसे निर्णय से गुजरना नहीं होगा।
रही बात यूपीए सरकार की तो उसके मुखिया का तर्क यह हो सकता है कि ऐसा घटक दल की मर्जी पर ही निर्भर करता है कि किसे कब तक मंत्री रखना है और कब हटाना है लेकिन सरकार की छवि को बनाये रखने को क्या प्रधानमंत्री द्वारा इसे शालीनता से अंजाम तक नहीं पहुंचाना चाहिए। इससे तो यूपीए सरकार और ममता बनर्जी दोनों की ही भद हो रही है। मनमोहन सिंह अपनी रीढ़ को काम में लें तो ऐसा सम्भव है। और यह आशंका तो बनी ही रहेगी कि कल आम बजट पर भी ममता बनर्जी या अन्य किसी घटक दल के क्षत्रप सिचले रहेंगे?
दीपचंद सांखला
15 मार्च, 2012

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