Tuesday, January 29, 2019

नक्सलवाद, सरकारी स्कूल और रविशंकर (21 मार्च, 2012)

पंडित रविशंकर ने सितार को धर्म के रूप में धारण किया तो वे पं. रविशंकर कहलाए। संगीत में पारंगत व्यक्ति के नाम के आगे पंडित लगाने की परम्परा अपने यहां रही है। एक रविशंकर और हैं जिन्होंने धर्म को प्रोफेशन के रूप में अपनाया और अपने नाम के आगे दो श्री लगा लिए-श्रीश्री रविशंकर! आस्था तर्कातीत होती है इसलिए इन रविशंकर में जिन लोगों की आस्था है उन पर सवाल नहीं उठाएंंगे लेकिन जयपुर के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में इन्होंने कल जो भी कहा है वो न केवल प्रश्नों के घेरे में है बल्कि उससे यह भी जाहिर होता है कि रविशंकर योग और अपने सम्प्रदाय के बारे में तो जानते होंगे लेकिन भारतीय समाज और उसके सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक ताने-बाने के बारे में उनकी जानकारी अधकचरी है, इस पर अब संदेह नहीं है। इन्होंने वहां कहा कि सरकारी स्कूलों और कॉलेज को निजी हाथों में सौंप देना चाहिए क्योंकि यह नक्सलवादी इन सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे ही बनते हैं। रविशंकर यदि अखबार नियमित भी पढ़ते होते और देश की इन गंभीर समस्याओं के बारे में विचार कर रहे होते तो कल जो जयपुर में उन्होंने कहा वो शायद नहीं कहते!
यह सामान्य दस्तूर सा हो गया है कि कोई बड़ा व्यक्ति किसी संस्थान के समारोह में मुख्य या विशिष्ट होकर जाता है तो कृतज्ञ भाव से इतना भावुक हो जाता है कि वह अतिशयोक्ति का प्रयोग किये बिना नहीं रहता। उच्चतम, उच्च और उच्च मध्यम वर्ग के गुरु माने जाने वाले इन रविशंकर द्वारा कहे उक्त वाक्य को अतिशयोक्ति तो नहीं कह सकते।
विकास और सभ्य बनाने के नाम पर जिन आदिवासी लोगों को बिना उनकी सहमति के बे-घर, बे-जमीन और बे-जंगल किया जा रहा है, उनके विरोध के नक्सलवादी तरीके से असहमति के बावजूद पूरी सहानुभूति उनके साथ है!
रविशंकर को शायद यह मालूम ही नहीं होगा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आजादी बाद की सरकारों के लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के चलते कहीं-कहीं सरकारी स्कूल जरूर खुल गये होंगे लेकिन उन दुरूह बयाबानों में निजी स्कूल तो क्या बाजार का अन्य कोई बीज भी नहीं पहुंचा। अब उन इलाकों के नक्सलियों के प्रोफाइल में पढ़े-लिखे होने के प्रमाण और उसी स्कूल का उल्लेख मिलेगा जो वहां होगा इसी तथ्य को रविशंकर के ध्यान में लाया गया होगा। लेकिन उनके ध्यान में यह नहीं लाया गया कि इन्हीं सरकारी स्कूलों में पढ़े उन वैज्ञानिकों, समाजविज्ञानियों, चिन्तकों  और तो और् जिन आइएएसों और आइपीएसों के आगे इन्हीं रविशंकर के शिष्य हाथ बांधे खड़े रहते पाये जाते होंगे उनमें से भी आधे से अधिक निजी स्कूलों से नहीं इन सरकारी स्कूलों से पढ़ कर आये होते हैं।
जिस वैचारिकता की उपज यह आदर्श विद्या मन्दिर हैं जहां कल वे भाषण दे रहे थे, उसी वैचारिक स्कूल की राजनीतिक इकाई के विधायक पहले कर्नाटक विधानसभा में और कल गुजरात विधानसभा में अश्लील फिल्म देखते पाये गये। कांग्रेस अपसंस्कृति को काउंटर करने का तरीका उन्होेंने शायद यही अपनाया हो। यह लोग भी भ्रष्टाचार में, अनैतिक कार्यों में और दबंगई में अपने काउंटर पार्ट से कम नहीं दीखते। इतना ही नहीं जिस कालेधन के बल पर आज के अधिकांश धर्मगुरुओं की दुकानें चलती हैं क्या उनमें से किसी ने भी चाहा है कि उनके अनुयाई अपना व्यापार और व्यवहार ईमानदारी और नैतिकता से करें। ऐसे ही धर्मगुरुओं की अपने अनुयायियों के इस कुतर्क में मौन स्वीकृति देखी गई है जिसमें यह कहा जाता है कि बिना बेईमानी करे आज व्यापार किया ही नहीं जा सकता। जब धन की हवस बढ़ती है तो सुख-चैन छिनता है और सुख-चैन लौटाने का आज बड़ा माध्यम योग बन गया है, इसी के चलते इन सब धर्मगुरुओं की दुकानें इस जमाने में रोशन हैं। रही बात सरकारी स्कूलों की तो उसको चलाने वाले अधिकांश अधिकारी और अध्यापक इस नई पनपी भ्रष्टाचारी संस्कृति का ही हिस्सा हैं जो छठे वेतन आयोग की तनख्वाह पाने के बावजूद पढ़ाने के अपने धर्म को नहीं निभाते हैं।
बीकानेर के निजी स्कूलों में मुश्किल से 10% ही ऐसे होंगे जिनमें अध्यापकों को पूरी तनख्वाह दी जाती होंगी या प्रशिक्षित अध्यापक पढ़ाने का काम कर रहे होेंगे। कम तनख्वाह से उपजी कुण्ठा के साथ वे बच्चों को कैसी शिक्षा देते होंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। इन सरकारी और निजी स्कूलों में आई कमियों के चलते आज इनके पूरक के रूप में कोचिंग इंस्टिट्यूट पनप रहे हैं।
--दीपचंद सांखला
21 मार्च, 2012

No comments: