Tuesday, January 29, 2019

खेल भावना और क्रिकेट (16 मार्च, 2012)

खेलों के सकारात्मक पहलू पर जब भी बात होती है तो एक जुमला आम है ‘खेल को खेल की भावना से खेलना चाहिए’ बहुत ही आदर्श जुमला है यह और अब शायद आउटडेटेड भी। आधुनिक जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों की तरह ही येन-केन तरीके से सफलता को हासिल करने का हठ खेलों में देखा जाने लगा है। निरन्तर प्रैक्टिस और सहज शारीरिक क्षमता से भी अधिक परिणाम प्राप्त करने की भूख ने जहां खिलाड़ियों में ड्रग के सेवन को बढ़ाया वहीं धन की अनाप-शनाप लालसा ने सट्टेबाजी को। खिलाड़ी आये दिन डोपिंग टेस्टों में फेल होते पाये जाते हैं तो क्रिकेटर भी मैच फिक्सिंग के आरोपों से घिरे देखे जाते हैं।
अंग्रेजों के माध्यम से भारत में आये क्रिकेट के दीवानेपन ने यहां के लोकप्रिय रहे फुटबाल और हॉकी दोनों को उपेक्षित कर दिया। इन दिनों क्रिकेट को भी ज्यों-ज्यों खेल की बजाय इंटरटेनमेंट शो के रूप में देखा जाने लगा त्यों-त्यों उसके स्वरूप में उसी हिसाब से व्यापक बदलाव भी होने लगे। खेल के नियमों में छोटे और बारीक बदलाव तो लगभग सभी खेलों में होते रहे हैं लेकिन उन बदलावों के मूल में खेल भावना की मर्यादा का ध्यान जरूर रखा जाता है। लेकिन क्या क्रिकेट में हुए बदलावों के केन्द्र में कहीं खेल भावना रही है? क्रिकेट में विचलन की मोटा-मोट शुरुआत कैरी पैकर से मानी जाती है, उनके उद्देश्य में खोट तो कह सकते हैं लेकिन नीयत की नहीं क्योंकि कैरी पैकर्स ने तो सीधे ही सरकस नाम देकर शो शुरू किये थे। यह बात दीगर है कि उसमें वे कई कारणों से सफल नहीं हुए। पैकर तो ज्यों आये त्यों ही विदा हो लिए लेकिन क्रिकेट में पैसे की छूत छोड़ गये। अब चाहे क्रिकेटर हो या क्रिकेट संघ, सभी की नजर बॉल के ठीक पीछे चलती पैसे की थैली पर रहती है। इसी के चलते यह खेल पहले 50 ओवर में और फिर 20 ओवर में तबदील हुआ। अब आइपीएल तो उस खेल भावना का और भी बंटाधार करने पर तुला है। आइपीएल ने खेल भावना के प्रेरक सूत्र ही छिन्न-भिन्न कर दिये हैं। खिलाड़ियों की बोली ठीक वैसे ही लगती है जैसे किसी सरकारी ऑफिस में पड़े नाकारा सामान की या पशु मेलों में पशुओं की। कहते हैं इन टीमों के बनने से लेकर खेलों तक सटोरियों की भूमिका अन्तर्निहित रहती है, लाखों-करोड़ों के नहीं अरबों के वारे न्यारे होते हैं। क्रिकेट में आजकल दर्शकों में जुनून नहीं देखा जाता है। आयोजक जुनून और सनसनी पैदा करने की तिकड़में करते देखे गये हैं। यद्यपि जुनून को सकारात्मक नहीं माना जा सकता लेकिन यदि जुनून को खेल भावना की नकारात्मक चरम अभिव्यक्ति मानें तो क्रिकेट में यह इस बात का पैमाना है जिससे न केवल खिलाड़ियों में बल्कि उसके दर्शकों में भी खेल भावना की कमी देखी जाने लगी है। इन्ही सब कारणों के चलते क्रिकेट खेल का क्या हश्र होगा पता नहीं, क्योंकि गर्त में जाने की तय कर चुके के लिए बचाव के उपाय भी काम नहीं करते हैं। शायद इसी के चलते सकारात्मक परिणाम यह देखा जा रहा है कि अपने देश में हॉकी फिर से उम्मीदें जगाने लगी है।
दीपचंद सांखला
16 मार्च, 2012

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