Tuesday, January 29, 2019

बीकानेर : बिछती चुनावी बिसात--एक (23 मार्च, 2012)

राज्य के अगले विधानसभा चुनाव में दो साल से कुछ कम और लोकसभा चुनाव में इससे कुछ ज्यादा समय अभी बाकी है। विधानसभा और लोकसभा की दूसरी सीटों का तो हमें पता नहीं लेकिन बीकानेर लोकसभा और इस जिले की कुछ विधानसभा सीटों पर गहमा-गहमी परवान पर है!
डॉ. बीडी कल्ला के बीकानेर पश्चिम से पिछला चुनाव हारने के बाद लगता है उनका इस सीट से मन फट गया है, हालांकि इसे जाहिर करने से वे बचते रहे हैं। लेकिन उनकी हरकतें लगातार इसकी चुगली करती दिखती हैं। बिना सींग-पूंछ के ही सही शहर की राजनीति की हवाओं में एक बात तारी है कि कल्ला कभी भी पाळा बदल सकते हैं। बातें करने वालों के अपने तर्क होते हैं चाहे उन तर्कों की हैसियत पुछल्ले जैसी ही हो। कहा जाता है कि डॉ. कल्ला का मन अपनी पार्टी से ज्यादा पश्चिमी सीट के मतदाताओं से फटा है। दूसरी कोई सुरक्षित सीट उनको दिखती नहीं है। कहने वाले कहते हैं कि भाजपा यदि उन्हें किसी निश्चित जीत वाली सीट से टिकट देने के साथ पार्टी में कोई प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित करे तो वे पाळा बदल सकते हैं। कल्ला के लिए इस तरह की सुरक्षित सीटों में से एक फलौदी सीट का नाम भी लिया जाता है जहां फिलहाल उन्हीं की पार्टी और उन्हीं के समुदाय के विधायक हैं। कांग्रेस में रहते कल्ला इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि पार्टी फलौदी विधायक ओम जोशी का टिकट काट कर उन्हें देगी। एक बात यह भी चल रही है कि डॉ. कल्ला अब सीधे चुनाव से बचने की फिराक में भी लगते हैं। तभी हाल ही में संपन्न राज्यसभा के चुनावों में सर्वथा नाउम्मीद होते हुए भी उन्होंने टिकट पाने के पुरजोर प्रयास किये। राजनीतिक हल्कों में सभी यह जानते थे कि राज्यसभा की कुल तीन सीटों के लिए चुनाव होने थे और वोटों के गणित के हिसाब से एक सीट भाजपा को और दो कांग्रेस को जानी थी, जो गई भी। कांग्रेस को जाने वाली दो में से एक पर अभिषेक मनु सिंघवी का चुनाव निश्चित था। रही दूसरी सीट जिस पर नरेन्द्र बुढानियां काबिज थे। इसीलिए मान लिया गया था कि यह सीट भी जानी किसी जाट नेता को ही है--अशोक गहलोत और कांग्रेस दोनों ही ग्यारहवीं विधानसभा के चुनाव (2003) में अपनी हार के बाद जाटों के मामले में कदम कुछ ज्यादा ही फूंक-फूंक कर रखने लगे हैं। कल्ला की ही तरह सीधे चुनाव से बचने की जुगत में लगे बुढानियां को उनके अपने ही कुछ कारणों के चलते टिकट ना भी मिलता तो फिर स्वयं डॉ. चन्द्रभान तेल चढ़ाये जो बैठे थे। इन सबको जानते-समझते हुए भी डॉ. कल्ला के राज्यसभा में जाने के प्रयास उनकी राजनैतिक जिजीविषा को ही दर्शाते हैं।
डॉ. कल्ला की तरह जिले में एक और कांग्रेसी राजनीतिज्ञ हैं रामेश्वर डूडी। उनके बारे में यह बात जोरों से चल रही है कि वे कभी भी भाजपा में पगलिये कर सकते हैं। कहने वालों के पास इसके भी अपने पुख्ता तर्क हैं। डूडी का पैतृक राजनैतिक क्षेत्र नोखा रहा है, नोखा में हाल फिलहाल निर्दलीय कन्हैयालाल झंवर नुमाइंदगी कर रहे हैं। झंवर परम्परागत रूप से कांग्रेसी रहे हैं और अशोक गहलोत के नजदीकी भी। इसी के चलते गहलोत ने उन्हें संसदीय सचिव बनाकर लालबत्ती की गाड़ी दी है।  बहुत संभव है कि अगले चुनाव में पार्टी उन्हें इसी क्षेत्र से टिकट भी दे दे। लेकिन नोखा में झंवर और डूडी का छत्तीस का आंकड़ा है। इस आंकड़े को साधने के चक्कर में ही झंवर कांग्रेस में घुसते-निकलते रहे हैं। कानाफूसी यह कि यह घुसने-निकलने की बारी अब रामेश्वर डूडी की है। डूडी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे संबंध बनाने की बजाय बिगाड़ने में ज्यादा माहिर हैं। नतीजतन जिस विधानसभा क्षेत्र में डूडी के पिता जेठाराम डूडी का कार्यक्षेत्र रहा, उसी जाट बहुल विधानसभा क्षेत्र में झंवर से हारना डूडी पचा नहीं पा रहे हैं, इसी अपच और फटे मन को लेकर उनकी नजरें अब लूनकरणसर क्षेत्र पर टिकी है। उधर लूनकरणसर क्षेत्र में अपने पैतृक प्रतिद्वंद्वी मानिकचन्द सुराना को गुरु द्रोणाचार्य मान बैठे एकलव्य--विरेन्द्र बेनीवाल अपने इन गुरु की तर्ज पर राजनीति करने और साधने का प्रयास करते दीखते हैं। इन्हीं बेनीवाल के लिए भंवरी प्रकरण भाग्य से टूटे छींके की तरह आया और जाट महिपाल मदेरणा के सरकार से बाहर होते ही शालीन जाट की छवि के चलते बेनीवाल न केवल सरकार के अन्दर हो लिए बल्कि गृह राज्यमंत्री होने के नाते पायलट जीप के साथ दौड़ने भी लगे हैं। इस तरह की परिस्थितियां में कांग्रेस में रहते हुए रामेश्वर डूडी लूनकरणसर से भी नाउम्मीद होते दिखने लगे हैं, उनके कांग्रेस छोड़ने की अफवाहों को हवा मिलने का एक कारण यह भी माना जाता है। बातेरी बताते हैं कि डूडी ने भाजपा के राज्य क्षत्रपों के सामने पार्टी में आने की एक शर्त लूनकरणसर से टिकट की गारंटी की भी रखी है। इस बात की पुख्तगी इससे भी होने लगी है कि राजस्थान में आदर्श जनप्रतिनिधि के रूप में पहचान बना चुके अस्सी पार के मानिकचन्द सुराना इस उम्र में भी उसी लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र में ताल ठोंकते हुए यह कहने लगे हैं कि डूडी के भाजपा में आ जाने की स्थिति में पार्टी यदि उन्हें टिकट नहीं भी देती है तो भी वे चुनाव तो लूनकरणसर से ही लड़ेंगे!
उधर डूडी को जानने-समझने वाले कांग्रेसियों की राय यही है कि डूडी के स्वभाव से सब परिचित हो गये हैं। उन्हें कहीं ठौर नहीं मिलेगी, उनके यह पगपीटे इसलिए ही हैं कि कांग्रेस में उनको मनचाही तवज्जोह मिले।
क्रमशः
दीपचंद सांखला
23 मार्च, 2012

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