Tuesday, January 29, 2019

बीकानेर : बिछती चुनावी बिसात--तीन (26 मार्च, 2012)

एक तो यह कि किसी भी राजनीतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, वामपंथी दल जरूर कभी-कभार इस आंतरिक लोकतंत्र की बरामदगी अपने यहां दिखाते हैं पर कितना और किस रूप में लोकतंत्र वहां है यह अन्वेषण का हेतु हो सकता है। दूसरा यह कि इन पार्टियों में सबसे नीचे से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष तक के पद नियुक्ति और मनोनयन की प्रक्रिया के अन्तर्गत ही तय होते हैं। और, यह शहर अध्यक्ष और देहात अध्यक्ष जो होते हैं, उनकी थोड़ी अहमियत तभी होती है जब उस पार्टी का विधायक वहां से नहीं जीतता। ठीक ऐसे ही प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत भी प्रदेश में अपनी सरकार होने के चलते दोयम ही रहती है। खैर! यह सबकुछ नया नहीं बता रहे हैं, राजनीति में थोड़ी-बहुत टांग फंसाये हुओं में से अधिकांश को मालूम है।
उक्त भूमिका की रोशनी में आज बात हम भाजपा से शुरू करते हैं, वह भी मानिकचन्द सुराना, किशनाराम नाई, नन्दलाल व्यास और गोविन्दराम मेघवाल के सन्दर्भ से। इन चारों में पहले तीन क्रमशः लूनकरणसर, श्रीडूंगरगढ़ और बीकानेर (बीकानेर तब एक ही सीट थी) से 2003 के चुनावों में हारे थे और चौथे गोविन्दराम नोखा से जीते थे। इन चारों को ही भाजपा ने 2008 के चुनावों में टिकट नहीं दिया। कहने को तो पहले तीन के लिए कहा जा सकता है कि वे 2003 के चुनावों में हारे हुए थे। दूसरा, लूनकरणसर और श्रीडूंगरगढ़ की सीटें चुनावी समझौते में चौटाला की इनलोद को देनी पड़ी। वहीं परिसीमन के बाद नोखा वाली सीट सामान्य हो गई थी इसी बहाने गोविन्दराम को किनारे कर दिया गया जबकि इसी जिले में नई बनी खाजूवाला (सु.) से उन्होंने टिकट मांगा था। लेकिन वहां से शालीन से लगने वाले डॉ. विश्वनाथ को सरकारी नौकरी से इस्तीफा दिलवा टिकट दिया गया।
रही बीकानेर (प.) की बात जो परिसीमन के बाद बीकानेर की दो बनी सीटों में पूर्व और पश्चिम में से एक है। पुरानी बीकानेर विधानसभा सीट का अधिकतम हिस्सा बीकानेर पश्चिम में रहा तो भाजपा से नन्दलाल व्यास की पार्टी टिकट की दावेदारी तार्किक थी और यदि गोपाल जोशी पार्टी में न आते तो लगभग चुनौतीविहीन भी।
लेकिन क्या इन चारों को किनारे किये जाने के केवल वही कारण थे जो ऊपर गिनाये गये हैं, शायद नहीं। मानिकचन्द सुराना, किशनाराम नाई, नन्दलाल व्यास और गोविन्दराम मेघवाल--इन चारों ने अपने-अपने क्षेत्र में भिन्न-भिन्न कारणों से अपनी हैसियत बनाई और इस हैसियत के चलते ही इनमें से किसी के व्यवहार में अहम् और किसी के स्वभाव में अक्खड़पन देखने को मिलता है। इनमें से गोविन्दराम मेघवाल विधायक रहते लगातार अपनी पार्टी की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के लिए परेशानी का सबब भी बने रहे। 2008 के चुनावों में तब की मुख्यमंत्री वसुंधरा ने अपने सामंती मिजाज के चलते प्रदेश में लगभग पार्टी सुप्रीमों की हैसियत पा ली थी। वसुंधरा के सामंती मिजाज में सुराना, नाई, व्यास और मेघवाल विभिन्न कारणों से रड़क रहे थे।
आत्मविश्वास से लबरेज मोहतरमा ने सुराना और नाई को इनलोद के बहाने तो मेघवाल को परिसीमन के बहाने किनारे किया और नन्दलाल व्यास के आड़े गोपाल जोशी आ गये। लेकिन इसके यह मानी नहीं है कि गोपाल जोशी में अहम् नहीं है! कांग्रेस से नाउम्मीदगी का एक कारण अशोक गहलोत से उनके अहम् का टकराव भी था लेकिन यहां वसुंधरा के सामने अपने अहम् को इसलिए पुचकारे रखा कि उन्हें पुराना हिसाब चुकता करने का एक अवसर दीख रहा था। कहते हैं जीभ का घाव जल्दी भरता है पर जीभ का दिया घाव शायद ही कभी भरता हो। शहर की सीट एक और कांग्रेस से दावेदार दो। एक रिश्ते में बहनोई (गोपाल जोशी) तो दूसरे रिश्ते में साले डॉ. बीडी कल्ला।
क्रमशः
दीपचंद सांखला
26 मार्च, 2012

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