चार दशक बाद सूरसागर की सड़ांध से 2008 में मुक्ति मिली थी-भाजपाई इसकी क्रेडिट अपनी जमाबही में बता रहे हैं तो कांग्रेसी अपनी में। कांग्रेस तो इस बिना पर कि इसकी योजना और बजट उनके राज में बने और जारी हुए थे। भाजपाइयों के राज में तो यह काम हुआ है-सो आमजन तो इसका क्रेडिट भाजपा राज को ही देगा। वसुन्धरा को रुपया बजाना आता है, शायद गहलोत को यह अटकल आती नहीं है। गहलोत ही क्यों स्थानीय कांग्रेसियों को भी इससे कोई मतलब नहीं है कि पिछले तीन वर्षों में शहर में कितना रुपया खर्च हुआ है और कितने काम हुए हैं! एक तो कांग्रेस में पहले से ही कई गुट हैं फिर इन्होंने मुठभेड़ के लिए जिला कलक्टर को भी गुट मान लिया है। डॉ. पृथ्वी के व्यवहार से भी लगता है कि वह 'आइएएस' होने को ढोये ही फिरते हैं-उन्हें शायद ज्ञात नहीं है कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुने हुए प्रतिनिधियों की क्या अहमियत है। यह भी कि केवल लालबत्ती और नामपट्ट हटाने भर से यह जाहिर नहीं होता है कि आईएएस होने का भार सिर से उतार दिया है। अखबारों में आये दिन छपने वाली फोटुओं में जिला कलक्टर चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच अपनी सुपरमैसी जाहिर करने से नहीं चूकते हैं। मीटिंगों में इनकी कुर्सी हमेशा चुने हुए प्रतिनिधियों की कुर्सी से विशिष्ट स्थिति में होती है-ऐसे ही हमारे यह जनप्रतिनिधि हैं, जो जिला कलक्टर को उनकी हैसियत से वाकिफ कराने से बचते रहते हैं या इन जनप्रतिनिधियों को अपनी हैसियत का भान नहीं है।
खैर, बात हम सूरसागर की कर रहे थे। उस सूरसागर की जिसके लिए अपने को मगरे का इकलौता शेर घोषित कर चुके देवीसिंह ने कभी कहा था कि या तो सूरसागर रहेगा है या मैं। उनकी इस दहाड़ के करीब एक दशक तक यह सूरसागर वैसी ही बेनूरी के साथ रहा और देवीकृपा से देवीसिंह भी।
सूरसागर के जीर्णोद्धार की योजना बनी तभी कुछ गुणीजनों ने कहा था कि इसे बरसाती पानी से भरना तो उचित होता (जो इसकी आगोर खत्म होने के बाद अब सम्भव नहीं है) लेकिन इसे कुओं या नहर के पानी से भरना इस रेगिस्तानी भू-भाग में विलासिता से कम नहीं होगा। लेकिन तब ऐसा कहने वालों को भी यह अंदाज नहीं था कि इतनी बड़ी इस झील को कुओं और कैनाल से भरे रखना भी संभव नहीं है-चार साल गुजर रहे हैं-इन कृत्रिम साधनों से कभी चार फुट पानी भी भरा नहीं जा सका इस सूरसागर में। ऊपर से कोढ़ में खाज यह कि आये दिन पास से गुजर रहे नाले और सीवर का गन्दा पानी अपना रास्ता इस ओर कर लेते हैं।
कल भाजयुमो ने भी इसकी सफाई की रस्म अदायगी की। कुछ कड़ाहियां भरी और न्यास सचिव की टेबल पर उंडेल आये। उन्हें राजनीति करनी है तो इस तरह के सुर्खी बटोरू काम भी करने होते हैं-सुर्खी मिल भी गईं-लेकिन क्या इस तरह की हरकत को जायज कहा जा सकता है। जवाब होता है कि इसके बिना यह अफसर सुनते ही नहीं हैं। यह भी सही है-अन्यथा प्रशासन सूरसागर को लेकर हाथ क्यों नहीं खड़े कर देता और कह दें कि इसे पुराने रूप में सहेजना सम्भव नहीं है। नयी योजना लाओ। इसे पार्क या ड्राई पार्क में विकसित करो शायद पार पड़ जाये-वैसे प्रशासन के कुछ लोग पैसे बनाने के लिए पैसे लगाने को तत्पर रहते हैं-फिर उसे सहेजना इनकी जिम्मेदारी में नहीं है। कभी लाखों रुपये म्यूजिकल फाउन्टेन पर लगा दिये-वह बंद पड़ा है-तो कभी करोड़ों क्राफ्ट बाजार में लगा दिये वह भी बंद पड़ा है। ऐसे दसियों उदाहरण दिये जा सकते हैं।
—दीपचन्द सांखला
29 मई, 2012
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