खाने के शौकीन अपने शहरी लाल मिर्च के तीखेपन और घी के भारीपन के तोड़ को इस तरह बताते हैं कि लाल मिर्च के तीखेपन को घी मारता है और घी के भारीपन को लाल मिर्च हलका कर देती है। इसलिए यहां की गोठों में इन दोनों का भरपूर उपयोग होता रहा है। लगातार समस्याओं से घिरे अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शायद कुछ इसी तरह समस्याओं से निकलने की जुगत में हैं। कोयले की खंख से निकलने को डीजल-गैस में कूदे और डीजल-गैस से निकलने के लिए प्रत्यक्ष पूंजी निवेश में!
आर्थिक मसलों के जानकार इस सब को लेकर जो कहते रहे हैं-उन पर कान लगाएं तो मकसद न राजनीतिक पार्टियों का पूरा होता है और न ही टीवी-अखबार वालों का। क्योंकि आर्थिक मसलों के जानकार लगातार यह कहते रहे हैं कि वैश्विक बाजार और खुली अर्थ-व्यवस्था के चलते यह सब तो होगा ही-अभी तो डीजल के भाव पूरी तरह बाजार के हवाले होंगे तो रियायती दामों में एक भी सिलेण्डर नहीं मिलेगा-खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश आना ही था सो आ रहा है। 1984 के बाद नई आर्थिक नीतियों के चलते बकरी ने जिस मेमने को जन्म दिया था उसे अंतत: कटना ही है-बकरी के खैर मनाने भर से काम चलने वाला नहीं है। सभी राजनीतिक पार्टियों को भी पता है कि यह सब होगा। अगर वे कहती हैं कि नहीं पता तो फिर उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए।
1984 के बाद बारी-बारी से सभी विचारों की या उनके समर्थन की सरकारें रही हैं। सभी ने हमेशा खुली अर्थ-व्यवस्था के मार्ग को प्रशस्त करने का ही काम किया या मौन स्वीकृति दी है-अब जो विरोध कर रहे हैं वह या तो राजनीति है या फिर आम-आवाम के साथ धोखा! रही बात हम टीवी-अखबार वालों की तो हम सब तो उन तमाशबीनों में शामिल हो गये हैं जिनका जुमला ही यह हो कि ‘घोड़ा पड़े तो एक मजा और सवार पड़े तो दो मजा’।
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अब आज एक चुटकी भी....
टीवी-अखबारों के लिए अपराध समाचारों की बीट देखने वाले पत्रकार इन दिनों चकर-घिन्नी हैं-वो इसलिए कि उनके कान अचानक सूंघने का काम करने लगे हैं-उन्हें इस बात की खुशबू आने लगी है कि चोर-लुटेरे और अपराधी किसी बड़े आयोजन की फिराक में हैं-हां, आयोजन की ही, अपराध की नहीं। वे सब मिल कर शहर के पूरे पुलिस प्रशासन का आभार स्वीकारते हुए अभिनन्दन करना चाहते हैं-उनका मानना है कि इस तरह ‘खुला खेलने’ की छूट तो उन्हें आज तक नहीं मिली।
— दीपचन्द सांखला
15 सितम्बर, 2012
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