कल शिक्षक दिवस था। शिक्षा से सम्बन्धित सभी आलयों में इसे मनाने की रस्म अदायगी हुई-इसी बहाने शिक्षण का काम अधिकांशत: स्थगित रहा। भारत में तो दिन उन्हीं का मनाने की परम्परा रही है जो बिछुड़ गये या चले गये! पश्चिम ने इनमें उन्हें भी शामिल कर लिया जिन्हें भूल जाने का खतरा उन्हें समझ में आने लगा है। चूंकि इस काल में बहुत कुछ हम पश्चिम से आयात कर रहे हैं इसलिए बहुत सारे ‘डे’ हमारे यहां भी मनाये जाने लगे हैं। यद्यपि भारतीय जीवन में तकनीक ने पश्चिम जितनी घुसपैठ अभी नहीं की है कि हम सामूहिक विस्मृति के शिकार हों-लेकिन लोक में कैबत है कि ऊँट कूदे सो कूदै-पलाण पहले कूदने लगता है। इसी के चलते मां-बाप-भाई-बहन-मित्र-शिक्षक आदि को हम भूलने लगे कि नहीं पर दिन इन सबके जरूर मनाने लगे हैं। संस्कृतियों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों और खान-पानों आदि-आदि की आपसी आवा-जाही सदियों से जारी है, इसलिए अपनी इन खूबियों को कोई दूसरा अपना रहा है तो उस पर मुग्ध नहीं होना चाहिए और हमें किन्हीं दूसरों की खूबियों को अपनाते हुए हीन भावना भी नहीं लानी चाहिए।
बात शिक्षक दिवस की कर रहे थे-जिन्हें अब अतिशयोक्ति में गुरु भी कहा जाने लगा है और शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्थाओं के चलते शिक्षाकर्मी भी। हमारे कुछ पत्रकार मित्र और कुछ मंचीय संयोजक तो इन्हें शिक्षाविद् कहने में भी संकोच नहीं करते। सभी समृद्ध भाषाओं की तरह हिन्दी में भी प्रत्येक पात्र के लिए उसका शब्द तय है। इसलिए कम से कम पत्रकार मित्रों को तो इसकी सावधानी बरतनी चाहिए। अन्यथा कहा जाता है कि शब्दों के अत्यधिक दुरुपयोग से वे अपना अर्थ खो देते हैं और सचमुच में कभी उस शब्द की जरूरत होगी तब क्या करेंगे?
अभी हाल ही में 2 सितम्बर को अनिल बोर्दिया का निधन हो गया। हमारे प्रदेश के बोर्दिया ने न केवल अपने देश और प्रदेश के लिए बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी शिक्षा से सम्बन्धित बहुत काम किया है। ‘विनायक’ को खबर लगानी थी तो उनके लिए कोई विशेषण तत्काल नहीं सूझा-तब हमने उनको मिले सम्मान पद्मभूषण से काम चलाया। लेकिन ‘जनसत्ता’ को देखा तो मित्र ओम थानवी ने अनिल बोर्दिया के लिए बहुत ही सटीक विशेषण काम में लिया ‘शिक्षाकर्मी अनिल बोर्दिया नहीं रहे’। अनिल बोर्दिया कभी शिक्षक नहीं रहे लेकिन वे आजीवन शिक्षा के लिए काम करते रहे, इसीलिए उनके लिए शिक्षाकर्मी शब्द ही उचित था। बोर्दिया को दिये सम्बोधन से इस शब्द की न केवल गरिमा बढ़ी बल्कि उसका सही अर्थों में उपयोग भी किया गया।
शिक्षक का सम्मान समाज में लगातार कम होता जा रहा है-इसके लिए समाज के साथ-साथ स्वयं शिक्षक भी जिम्मेदार है-सरकारी स्कूलों के बहुत से शिक्षक या तो स्कूलों में जाते ही नहीं और जाते हैं तो कक्षाएं नहीं लेते, और कक्षाएं लेते हैं तो मनोयोग से पढ़ाते नहीं है। अच्छी खासी तनख्वाहों के बावजूद अगर ऐसा है तो यह बहुत ही धिक्कार और चिन्ता की बात है। इस सबके बावजूद ऐसे शिक्षक तिकड़मों से न केवल जिला स्तर का बल्कि प्रदेश और देश स्तर पर सम्मान करवाते और पा लेते हैं। इससे ठीक उलट स्थिति निजी विद्यालयों की है। वहां अधिकतर शिक्षक ‘अनक्वालिफाइड’ हैं और बहुत कम तनख्वाह में पढ़ाने को भी मजबूर हैं। उक्त सब कमियों की पूर्ति हेतु ‘ट्यूशन’ और ‘कोचिंग क्लासों’ का धन्धा दिन-दूना रात चौगुना फल-फूल रहा है। और इन्हीं सब के बीच शिक्षक दिवस भी हम बड़े स्तर पर मनाते हैं। उन्हें गुरु भी कहते हैं और हमारे टीवी अखबार उन्हें ‘शिक्षाविद्’ कहने से नहीं चूकते!
इस पूरे परिदृश्य में कुछ ऐसे सचमुच के शिक्षक भी होंगे, और हैं जो पूरी निष्ठा से अपनी ‘ड्यूटी’ को अंजाम देते हैं। ऐसे सभी शिक्षकों को विनायक का प्रणाम!
— दीपचन्द सांखला
06 सितम्बर, 2012
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