Thursday, July 27, 2023

महंगाई पर इतनी हायतौबा क्यों

 कल जैसे ही यह घोषणा हुई कि डीजल पांच रुपये लिटर महंगा होगा और रियायती दर पर मिलने वाले एलपीजी सिलेण्डर अब एक परिवार को साल में : ही मिलेंगे वैसे ही टीवी के स्टिंगर सड़कों पर गये और लगे प्रतिक्रियाएं लेने। एक तो इन स्टिंगरों का तरीका ही ऐसा होता है कि वे प्रश्न इस तरह करते हैं कि मन माफिक उतर मिले। मोटा-मोट मकसद होता है सरकार को भुंडाने का, चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो। सो कल शाम से रात तक यह सब खूब चला- सुबह के अखबारों का भी मोटा-मोट मकसद यही था। टीवी से हमारा आशय यहां खबरिया चैनलों से ही है।

टीवी-अखबार वालों की अपनी एक दुनिया है और अपना एक दर्शक-पाठक वर्ग है। उन्हीं को उद्वेलित करना मकसद होता है-और उन्हीं से सुर्खियां पाते हैं। हमारी यह दुनिया देश की कुल आबादी की आधी भी नहीं है। और शेष आधी से हम टीवी-अखबार वालों का कोई खास लेना-देना नहीं है।

रही बात पेट्रोल-डीजल गैस के दाम बढ़ने की और साथ ही अन्य सभी चीजों-जिन्सों में आई महंगाई की तो इसकी छूट तो सरकारों ने जनता से 1984 से ही ले रखी है-जब उन्होंने समाजवाद कोफाइनलीतिलाञ्जलि देकर नई व्यापारिक-औद्योगिक नीति अपना ली। और इसी नई नीति के पोषण के लिए एक तरफ कॉरपोरेट जगत् को बढ़ावा देकर बड़े-बड़े पैकेज की नौकरियों के अवसर दिलवाए और सरकारी सेवाओं में एक के बाद एक चौथे-पांचवें और छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू कर तनख्वाहें बढ़ाईं। दूसरी तरफ जो गरीब तबका है उनके लिए केवल सब्सिडी के द्वार खुले रखे बल्कि मनरेगा जैसी कई योजनाएं शुरू कर दी। सरकार का शायद यह मानना हो सकता है कि अधिकांश जिन्सें जो महंगी हो रही है उससे प्रभावितों को हम तनख्वाहें बढ़ा कर, व्यापार में अंधाधुंध छूटें देकर और गरीबों को सब्सिडी देकर, लोककल्याण की योजनाएं चला कर और यात्रा के लिए साधारण किराये की गाड़ियां चला कर राहत तो दे ही रहे हैं। और जब यह सब होगा तो महंगाई तो बढ़ेगी ही बढ़ेगी। अब यह बात अलग है कि सरकार की इन लोककल्याणकारी योजनाओं से असल जरूरतमंद गरीब कितना लाभान्वित होता है। इससे बहुत ज्यादा लेना-देना हम टीवी-अखबारों वालों का भी नहीं है क्योंकि तो यह तबका हमारा विज्ञापनदाता है और ही उपभोक्ता। क्योंकि पाठक तो कहना ही हमने बंद कर दिया है। हां, निम्न मध्यवर्ग का वह तबका जो बीपीएल में है यूपीएल में। यूपीएल मतलब बड़ा व्यापारी नहीं है या सरकार में या कॉरपोरेट के यहां नौकरी नहीं करता है। यूपीएल उसे कह सकते हैं जो अपना छोटा-मोटा व्यवसाय करता है या किसी निजी व्यवसाय में नौकरी करता है-आबादी का यह हिस्सा जो अपने से सभी उच्चवर्गियों से थोड़ा ही ज्यादा है। और यही तबका इस तरह की बढ़ोतरियों से ज्यादा प्रभावित होता है।

रही बात इन राजनीतिक दलों की तो आप यह भी समझ लें कि सन् 1984 जब से नई नीतियां देश में लागू हुईं तब से केन्द्र में अधिकांशत कांग्रेस, बीजेपी और तीसरे मोर्चे की सरकारें रह चुकी हैं। इन सभी ने अपनी-अपनी सरकारों के रहते उन नीतियों का ही पोषण किया है। और यह भी कि इन सभी पार्टियों के नेताओं ने बस पड़ते अपने को और अपनी पार्टियों को समृद्ध किया!!

सभी पार्टियों की चाल और चरित्र एक ही है। फर्क सिर्फ रफ्तार और डिग्री का ही है। या पार्टी की सरकार बनने पर-लूटने के अवसर मिलने का। इस प्रकार कांग्रेस के कृत्यों को भुंडाने का नैतिक अधिकार बीजेपी को है सपा को और ही बसपा या अन्य पार्टियों को। बंगाल में राज के बत्तीस साल देखें तो मार्क्सवादियों को भी नहीं?

जरूरत इतनी ही है कि देश का नागरिक एक लोकतान्त्रिक देश के नागरिक के रूप में शिक्षित हों ताकि वह केवल वोट करना सीखे बल्कि सामूहिक हित में ही अपना हित देखने लगे।

दीपचन्द सांखला

14 सितम्बर, 2012


No comments: