बात पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक की है-तब किशोर भी नहीं हुआ था-बालक ही था। लेकिन उन खुशनसीब बालकों में से था जिन्हें तब शुरू में पांच पैसा और फिर दस पैसा हाथ खर्ची मिलती थी। कभी किसी दिन अतिरिक्त पांच-दस पैसे की जरूरत कर ली तो पिता या बड़े भाई कह देते-‘लाडी, पइसा पेड़ पर कौनी लागै’ (प्यारे, पैसा पेड़ पर नहीं लगता है)। जहां रहते थे वहां आस-पास पेड़-पौधे लगभग नहीं थे-कभी पब्लिक पार्क जाना होता तो कई सारे पेड़-पौधे देखने को मिलते, तो सोचने लगते कि पैसों के पेड़ क्यों नहीं होते। इस तरह की बात साथ में खेलने वाले बच्चों के बीच भी करते। बीज से पेड़-पौधे उगने की बात सुन रखी थी। कभी कूदते-खेलते जेब में रखा पांच-दस पैसे का सिक्का गिर कर दोस्तों में अपने होने की सूचना दर्ज करा देता। कभी-कभार, ऐसा भी हुआ कि हममें से एक चालाक मित्र ने कह डाला कि तुमने कहा था न कि पैसों के पेड़ क्यों नहीं होते-अपन ट्राई करते हैं-तुम्हारे पास जो दस पैसे का सिक्का है न-उसे खड्डा खोद कर बूर देते हैं-रोजाना पानी देने की जिम्मेदारी मेरी। उम्मीदों के पंख लग गये, बो दिया सिक्का। घर लौट आया। भाई को चुपके से सब बताया-भाई चतुर थे तुरन्त कहा कि उसने तुझे उल्लू बना दिया। जाकर देख-तुम्हारे इधर आते ही वह सिक्का निकाल कर ले गया होगा-यही हुआ। पैसों के पेड़ का बीज गायब था!
कल अपने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने कहा कि पैसा पेड़ों पर तो लगता नहीं है, तो बचपन की वह घटना बाइस्कोप की तरह दिखने लगी। प्रधानमंत्री ने जो कहा वह नया नहीं था-यह डायलॉग ऐसा है जिसे लोक में कइयों ने बोला-सुना होगा। लेकिन यह बोला तभी जाता है जब आपकी जरूरतें लालच में तबदील हो जाती हैं। महात्मा गांधी ने प्रकृति के साथ अपने रिश्ते को बहुत सटीक ढंग से इसी तरह के वाक्य से व्याख्यायित किया है। ‘प्रकृति सभी की जरूरतें पूरी कर सकती हैं, पर लालच एक का भी नहीं।’
आजादी बाद से यह हो रहा है कि आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा जो बमुश्किल अब तक बीस प्रतिशत तक भी नहीं पहुंचा होगा, अपने को इतना विशिष्ट मानने लगा कि जैसे पूरे भारतीय समाज का सबकुछ तय करने का अधिकार उसे ही हासिल है। लेकिन इस विशिष्ट समूह की दूर की नजर इतनी कमजोर है कि थोड़ी दूर तक के लगभग अपने जैसे लोगों को तो वह ठीक-ठाक से देख पाता है-लेकिन ज्यों-ज्यों वह नजर उठाता है-उसकी नजर धुंधली होती चली जाती है, और समाज का वह आधा हिस्सा जो अंत में है, उस तक पहुंचते-पहुंचते उसकी नजर जवाब दे जाती है।
भारतीय शासन, प्रशासन और नीति-निर्धारक सभी उसी विशिष्ट वर्ग से हैं। जो भी योजनाएं लाते हैं अपनी नजर के हिसाब से ही लाते हैं। शुक्र है अभी तक उनमें यह अहसास तो कायम है कि उनकी नजर की पहुंच के बाहर भी एक दुनिया है। और यह भी कि उनमें कुछ के संस्कारों में पुनर्जन्म, प्रारब्ध, पुण्य जैसी कुछ युक्तियां भी विचरण करती रहती हैं। सो, टप्पे में ही सही लोककल्याणकारी योजनाएं भी ले आते हैं। पर दूर की नजर के कमजोर होने के चलते असल जरूरतमंद तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचता ‘पन्द्रह प्रतिशत’ ही है।
इसलिए प्रधानमंत्री को बात पैसों के पेड़ की नहीं-नजरिया ठीक करने की करनी चाहिए थी ताकि नजर की रोशनी बढ़ सके।
— दीपचन्द सांखला
22 सितम्बर, 2012
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