गरीब को लक्ष्य करता एक मजाक लोक में प्रचलित है : परेशान गरीब एक पंडित के
पास पहुंचा और ग्रहयोग ठीक करवाने के उपाय पूछे। पंडित ने कहा, शनि तुम पर कठोर है, शनि का दान करना होगा। शनिवार को शनिभक्त डाकोत को तेल का दान
करे। गरीब बोला, तेल तो घर में
खाने को भी नहीं है। पंडित ने कहा, घर में काले तिल
तो होंगे, उसी का दान कर दो। गरीब
ने उत्तर दिया कि ऐसा होता तो उन्हें ही चबा कुछ भूख मिटा लेता। पंडित ने लगभग
खीजते हुए पूछा, घर में कोरा काला
कपड़ा तो होगा, सकुचाते गरीब ने 'ना' में गर्दन हिलाई। पंडित ताव में आ गया फिर तो मुझे देने को तेरे पास दक्षिणा
भी नहीं होगी! जा मजा कर! तेरा शनि तो क्या शनि का बाप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
गोविन्द मेघवाल द्वारा डॉ. अम्बेडकर जयन्ती पर दिए भाषण से कुछ धर्मधारकों का
विरोध है और इसके चलते देवी-देवताओं के अपमान को लेकर गोविन्द मेघवाल के खिलाफ कई
थानों में कई-कई एफआईआर भी दर्ज करवा दी गई हैं। उपरोक्त उल्लेखित मजाक के सन्दर्भ
में गोविन्द मेघवाल के प्रकरण को देखें तो देवी-देवताओं के लिए हम इस तरह की भाषा
जब-तब कहते सुनते ही आए हैं। हां, ऐसा कहने वाले समाज के तथाकथित उच्च वर्ग से ही आते हैं। मतलब इतना ही कि रोष में
भी देवी-देवताओं से तू-तड़ाक करने की छूट दलितों को नहीं है।
तू-तड़ाक की बात पर एक वाकिआ और याद आता है। राजस्थानी के एक नामी दिवंगत
साहित्यकार लक्ष्मीनाथजी के भक्त थे। तकलीफ में होते तो मंदिर पहुंच लक्ष्मीनाथ के
मुखातिब होते और सीधे तू-तड़ाक पर उतर आते। और तो और, काले पत्थर के लक्ष्मीनाथ को नाराजगी में वह कालिया सम्बोधन
से संवाद करने से भी नहीं चूकते। मान-सम्मान को हम एक अन्य नजरिये से भी देख सकते
हैं। परम्परागत परिवारों में मां के लिए किसी सम्मान सूचक संबोधन की जरूरत नहीं
समझी जाती। परिवार के दूसरे बड़ों से अलग मां के साथ तू-तड़ाक के साथ ही सामान्यत:
संवाद सुना गया है। बावजूद इसके पुत्र-पुत्रियों में मां के प्रति सम्मान में कोई
कमी बरामद नहीं होती।
उपरोक्त तीनों उदाहरणों का मकसद गोविन्द मेघवाल को सार्वजनिक तौर पर मंच से
कहे से बचाना नहीं माना जाए। लेकिन भारतीय समाज जो विभिन्न आस्तिक-नास्तिक हजारों
धाराओं में बंटा है, जहां पढ़े-लिखे
या कह सकते हैं समर्थों और उच्च जातीय वर्गों को खुलेआम कुछ भी कहने की छूट है,
पिछड़े और दलित समुदायों का कैसा भी उपयोग करने,
उन्हें कुछ भी कहने-दुत्कारने का हक आजादी के
सत्तर वर्षों बाद भी कब्जाए रखा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस प्रकरण का इस तरह
लम्बा खिंचना अन्तत: समर्थों और दलितों के बीच फांक को बढ़ाना ही है।
इस प्रकरण से गोविन्द मेघवाल को कोई चुनावी लाभ मिलेगा, नहीं लगता। लेकिन पिछली दो चुनावी पराजयों के बाद वे
हाशिए पर चले गये थे, उक्त प्रकरण के
बाद उन्हें लगातार सुर्खियां जरूर मिलने लगी हैं। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की
राजनीति के उफान के चलते भले ही गोविन्दराम कांग्रेसी उम्मीदवार के रूप में आगामी चुनाव फिर भले ही हार जाएं, लेकिन जिस तरह की
लड़ाकाई राजनीति गोविन्दराम करते आए हैं ऐसे में उन्हें कम करके नहीं आंका जाना
चाहिए।
नोखा विधानसभा क्षेत्र से भाजपाई उम्मीदवार के रूप में 2003 का चुनाव जीतने के बाद 2008 के चुनाव में खाजूवाला सुरक्षित सीट पर
निर्दलीय उम्मीदवारी के बावजूद वे कांग्रेसी प्रत्याशी को तीसरे नम्बर पर धकेलते
हुए मात्र 867 वोटों से ही
हारे। 2013 के चुनाव में कांग्रेस
को उन्हें अपना उम्मीदवार बनाना पड़ा और इस चुनाव में भी उन्होंने भाजपा के डॉ.
विश्वनाथ को अच्छी खासी टक्कर फिर देते हुए खाजूवाला विधानसभा क्षेत्र से 53,476 वोट हासिल किये और जबरदस्त भाजपाई लहर में भी
वे मात्र 8,357 वोटों से हारे।
आरक्षित सीटों के उम्मीदवारों की हैसियत यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में कैसी है,
उसे नोखा आरक्षित क्षेत्र से चार बार विधायक
रहे चुन्नीलाल इंदलिया को विधायकी मिलने के बाद के उनके तौर-तरीकों से अच्छे से समझा जा
सकता हैं। कहते हैं, वे जब समर्थों के
गांवों में जाते थे तो बिना चटाई के जमीन पर बैठ जाते जब कि समर्थ ग्रामीण खाट पर
बैठते। इतना ही नहीं, खाने का यदि समय
होता तो वे अपनी 'औकात' (इस शब्द के प्रयोग लिए क्षमा चाहता हूं) का भान
रखने को भी मजबूर होते, वे अपना
तश्तरी-लोटा अपने थैले से निकालते और खाना परोसवाने को आगे रख लेते। उत्तर भारत की
दलित राजनीति के इस बेचारगी भरे दृश्य में गोविन्दराम जैसे दबंग राजनेता के लिए
होना तो यह चाहिए था कि सम्पूर्ण दलित समाज उनके पीछे आ खड़ा होता, लेकिन ऐसा कई कारणों से संभव नहीं दीखता।
ऐतिहासिक कारण तो यह है दक्षिण मध्य और धुर दक्षिण भारत में पिछड़ों और दलितों को
ज्योतिबा फूले, पेरियार और डॉ.
अम्बेडकर जैसों का जुझारू नेतृत्व गुलामी के संध्याकाल में मिला। इसी के चलते वहां
के पिछड़ों और दलितों में आत्मविश्वास और आत्मबल उत्तर भारत के दलितों और पिछड़ों
की तुलना में कुछ सम्मानजनक देखा जाता है।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसा व्यक्तित्व भी दक्षिण मध्य भारत में इसीलिए उभर पाया
कि उनसे पहले वहां ज्योतिबा फूले ने उस क्षेत्र में ऐसे लोगों के उभरने की अनुकूल
जमीन पहले तैयार में ही कर दी थी। यही कारण है कि जैसा आत्मबल और आत्मविश्वास
महाराष्ट्र और उसके आसपास के दलितों-पिछड़ों में देखा जाता है वैसा उत्तर भारत में
नहीं पाया जाता। अलावा इसके राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो गोविन्द मेघवाल जिस
दलित समुदाय मेघवंश से आते हैं उस समुदाय को दलितों में भी उच्च वर्ग में इसलिए
माना जाने लगा कि इस समुदाय की रूढ़ सामाजिक स्थिति अन्य दलित समुदायों के मुकाबले
ठीक-ठाक थी और है। इसी के चलते दलितों का
यह मेघवाल समुदाय ना केवल आरक्षण से ज्यादा लाभांवित हुआ बल्कि सूबे की राजनीति
में भी यही समुदाय प्रभावी है। इसीलिए समान विचार रखने वाले मुझ से कई अनुसूचित जाति और
जनजातियों के आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करने की जरूरत बताते रहे हैं। दलित
समुदायों में आई ऐसी फांक के चलते ही अक्सर यह होता है कि चुनाव में दोनों
उम्मीदवार यदि मेघवाल समुदाय से हों तो अन्य दलित केवल दलित के नाम पर उस तरह
से सक्रिय नहीं होते जैसे मेघवाल उम्मीदवार के लिए मेघवाल समुदाय के लोग होते हैं।
रूढ भारतीय समाज की ऊंच-नीच भी बड़ी विचित्र तरीके से गुंथी हुई है, जिसे हम इस स्थानीय गूंथ से समझ सकते हैं। शहर
के मुहल्लों और गलियों की सफाई करने वाले परिवार तय हैं। इन सफाईकर्मी परिवारों का
खान-पान, पहनावा और हिन्दू धार्मिक
आस्था तक (चाहे छुआछूत के चलते धार्मिक स्थलों में उनका प्रवेश भले ही वर्जित हो)
उनसे प्रभावित होती है जिन मुहल्लों-गलियों के बाशिन्दों का खान-पान, पहनावा हिंदू धार्मिक आस्थामय होता है। यही वजह
है कि हाल ही तक वे सफाईकर्मी परिवार सामान्यत: शाकाहारी देखे गए हैं जिनका
सफाई-कर्म शाकाहारी बाशिन्दों के मोहल्लों में होता है।
ऐसे माहौल में गोविन्द मेघवाल यह उम्मीद करें कि ज्योतिबा फूले, पेरियार और डॉ. अम्बेडकर की तरह वे भी
देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाकर राजनीतिक लाभ उठा सकते हैं तो भूल कर रहे है। अगर
उन्हें सत्ता की राजनीति करनी है तो राजनीतिक चतुराई बरतनी होगी अन्यथा महाराष्ट्र
जैसे दलितों-पिछड़ों के अनुकूल क्षेत्र में भी डॉ. भीमराव अम्बेडकर जैसे 1952 का आम चुनाव और फिर 1954 का उपचुनाव, दोनों लोकसभाओं के चुनाव हार गये थे।
गोविन्द मेघवाल द्वारा कही बातों को बिना तर्क के खारिज नहीं किया जा सकता
लेकिन सच यह भी है कि ऐसी बातों से व्यावहारिक या कहें सफल चुनावी राजनीति वे नहीं
कर सकते। अगर इसी तरह मेघवाल को बोलना है तो उन्हें सामाजिक परिवर्तन का झण्डा उठा लेना चाहिए और ज्योतिबा
फूले, पेरियार और डॉ. अम्बेडकर
की परम्परा को आगे बढ़ाने में लग जाना चाहिए। वर्तमान में जब धर्म की आड़ में रूढ सामाजिक
तौर-तरीकों को पुनर्स्थापित करने वालों को समय अनुकूल लगने लगा है ऐसे में
दलितों-पिछड़ों के आत्मबल को बनाए रखने के लिए गोविन्द मेघवाल जैसों की जरूरत
ज्यादा है। लगता है पूरे देश में फिलहाल चल रहे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के दूसरे चरण में तथाकथित उच्च हिन्दुत्वी जाति समूहों को पुनर्प्रतिष्ठ करने के प्रयास किए जाएंगे.
वैसे ऊपर जिस गुत्थम-गुत्था भारतीय सामाजिक संरचना का जिक्र बीकानेरी-मुहल्लों
के उदाहरण से किया है, उसे देखते हुए
क्या यह नहीं लगता कि गांधी की आदर्श सामाजिक व्यवस्था ही भारत के लिए सर्वाधिक
अनुकूल है।
दीपचन्द सांखला
27 अप्रेल, 2017
No comments:
Post a Comment