Friday, April 21, 2017

भारतीय प्रशासनिक/पुलिस सेवा : चयन प्रक्रिया और ट्रेनिंग? (29 सितम्बर, 2011)

खबर है कि बुधवार की देर रात राज्य सरकार ने गोपालगढ़ में हुई हिंसा को लेकर भरतपुर के तत्कालीन कलक्टर औ़र एस पी को निलम्बित कर दिया है। इन दोनों ही अधिकारियों को घटना के बाद से उनके पदों से हटाकर सरकार ने पद स्थापन की प्रतीक्षा में कर रखा था। अब भरतपुर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक को भी उनकी वर्तमान सेवा से हटा कर पद स्थापन की प्रतीक्षा में रख दिया है। मुख्यमंत्री पहले ही गोपालगढ़ हिंसा को  प्रशासनिक विफलता मान चुके हैं।
निलम्बन के ऐसे प्रशासनिक निर्णय होना एक राजकीय प्रक्रिया का हिस्सा हैं जो एक सिरे तक पूरी हो चुकी है। यह तीनों ही भारतीय प्रशासनिक/पुलिस सेवा के अधिकारी हैं, बहुत गंभीर विचारणीय मुद्दा यह है कि जिस परीक्षा चयन प्रक्रिया और ट्रेनिंग से निकलकर यह अधिकारी आते हैं उसके बावजूद उनमें ऐसी बदनीयति (यदि साबित होती है) या लापरवाही कैसे संभव हो सकती है। क्या यह घटना भारतीय प्रशासनिक सेवा की पूरी चयन प्रक्रिया और ट्रेनिंग पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाती?
इससे पूर्व भी 2002 के गुजरात दंगों में इन्हीं सेवाओं के कई अधिकारी जेल में हैं और कई आरोपी हैं। केन्द्र की सरकार को इस पूरी चयन प्रक्रिया की बहुत बारीक समीक्षा करवाने की जरूरत समझनी चाहिए। उक्त दोनों ही हिंसाएं क्या सबक सिखाने की मैली मानसिकता से प्रेरित नहीं रहीं? इस तरह की मैली मानसिकता केवल किसी संप्रदाय विशेष के खिलाफ ही हो जरूरी नहीं। वह किसी जाति और समूह विशेष के खिलाफ भी इसी तरह से काम कर सकती है।
भारत में भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के दोषी अधिकारियों को सजा के बहुत कम उदाहरण मिलते ह्ंैरक्योंकि समय निकलने पर वे इससे बच निकलने का रास्ता भी बना लेते हैं। कहा भी जाता है किसमरथ को नहीं दोष गुंसाई तुलसीदास की इस इतनी ही पंक्ति का उक्ति के रूप में प्रयोग जिन अवसरों पर होता है, उस होने पर अपनी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंकुश लगाने की जरूरत है।
आने वाला समय
प्रणव मुखर्जी और पी. चिदम्बरम के बीच शीत युद्ध जैसा कुछ है भी या नहीं इस पर हमें विचार करने की जरूरत नहीं है। विचारणीय यह है कि उच्च स्तर पर एक बड़े वित्तीय मामले में इस तरह से जानबूझ कर सबकुछ होने देने या अपने सहयोगियों को पूर्ण स्वतंत्रता से काम करने देने के नाम पर अनावश्यक टोका-टोकी से बचने की मानसिकता क्या पद की शपथ का उल्लंघन नहीं है। क्या इसी तरह की अनदेखी या लापरवाहियां होने देने की मानसिकता रक्षा मामलों में संभव है? अब तो इससे भी पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता।
सूचना का अधिकार और संचार माध्यमों की सक्रियता से इन सब पर विचार होने लगा है, गहरी चिंताओं के साथ इसे शुभ संकेतों के रूप में भी देखा जाना चाहिए। शायद आने वाला समय कुछ सुधारों के साथ आयेगा।

वर्ष 1 अंक 35, गुरुवार, 29 सितम्बर, 2011

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