Friday, April 28, 2017

बदन और मगज की मुश्किलों का फर्क (19 अक्टूबर, 2011)

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से खबर है कि वहां के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी अपने ही देश के एक विज्ञान विश्वविद्यालय के जश् में शिरकत करने गये थे। अब प्रधानमंत्री हैं तो ऐसे आयोजनों में आये दिन ही जाना होता है।
केवल इस बिना पर ही किसी पड़ोसी मुल्क के एक दैनिक का हिस्सा तो यह खबर बन नहीं सकती थी्रहुआ यह कि उस समारोह में गिलानी साहब को खड़ा तो रहना नहीं था। डॉयस होगा, कुर्सियां भी होगी और एक कुर्सी उनके बैठने के वास्ते मुकर्रर भी होगी, बैठे भी। सब जानते हैं कि पाकिस्तान जैसे मुल्क में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना कितना मुश्किल होता है और जब मुश्किल होता है तो बैठने वाला लगातार इस मशक्कत में होता है कि उसे आसान कैसे बनाया जाय। इसी कोशिश में वो हिलता-डुलता भी है। वैसे भी किसी मुश्किल में होने वाला कोई व्यक्ति भी थोड़ी देर कहीं पर बैठे तो वह भी अपने बदन की मुश्किलें आसान करने के वास्ते कमर को हिलाता और कंधे उचकाता है। गिलानी ठहरे प्रधानमंत्री! वो भी पाकिस्तान के, एक जान को हजार मुश्किले्ंरउनकी यह मुश्किलें जब बदन से मगज तक का सफर तय करती हैं तो हजार मुकाम से गुजरना होता है उन्हें। पाकिस्तानी सेना, आईएसआई, नवाज शरीफ, मुशर्रफ, बेनजीर की रूह, अलकायदा और वैसे ही सैकड़ों गुट, अमेरिका, चाइना आदि-आदि।
तो कल गिलानी साब जब जश् में शामिल हुए तो वो हजार मुश्किलें भी साथ ही होंगी और रहेंगी भी। हर शख्स जानता है कि बदन को हिलाने-डुलाने से केवल बदन की मुश्किलें ही आसान होती हैं, मगज की नहीं। बावजूद इस जानकारी के गिलानी साब बदन के साथ मगज की मुश्किलें आसान करने को कुछ ज्यादा ही हिले-डुले होंगे। कुर्सी तो बेचारी कुर्सी होती है, और ऐसी स्थिति में लकड़ी की कुर्सी की तो और भी बुरी शामत्रटूट गई। एडीसी ने तुरत उनके बदन को सम्हाल लिया। एडीसी बदन की मुश्किलें तो सम्हाल सकता है, मगज की मुश्किलें तो जब गिलानी के भी बस की नहीं तो एडीसी क्या करेगा बेचारा!

वर्ष 1 अंक 52, बुधवार, 19 अक्टूबर, 2011

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