कल अपने बीकानेर की कोलायत तहसील की देवड़ों की ढाणी में एक दर्दनाक हादसे को अंजाम दिया गया। पुरानी रंजिश में सुलह के लिए कुछ लोग दोनों पक्षों के साथ जब अपने प्रयासों के अंतर्गत इकट्ठा हुए तो बजाय बात बनने के ऐसी बिगड़ी की तीन लोग मौत के घाट उतार दिये गये। अब इस मानसिकता को आदिम कहें या कबायली, दोनों ही उपमाएं उन युगों के नागरिकों के अपमान की श्रेणी में ही आयेंगी, वह इसलिए कि आदिम युग के बाशिंदों और कबायलियों के पास आज की तरह संवेदनशील जीवन-जीने और विवेक सम्मत सोचने-विचारने के अवसर न्यूनतम थे या फिर थे ही नहीं। जीवन-यापन की पूर्ण सामान्य सुविधाएं ना सही लेकिन व्यापक सामाजिक हित में अच्छा-बुरा सोचने-समझने का अवसर तो सभ्यता के इस मुकाम पर सभी को हासिल है ही। इसके बावजूद हम बदले के नाम पर या इज्जत के नाम पर पाशविक हो जाते हैं। नहीं पता किनने ऐसी हत्याओं को जिन्हें आजकल ऑनर किलिंग नाम दे दिया है और जिनमें युवक-युवती द्वारा बिना पारिवारिक सहमति के सहजीवन का निर्णय कर लिए जाने पर उनमें से किसी एक के या कभी दोनों के परिजनों द्वारा उन्हें मार दिया जाने लगा है।
ऑनर और इज्जत या इन्हीं के जैसे सकारात्मक समानार्थक शब्द जिन के साथ जीवन में आनन्द का, खुशियों का आभास होना चाहिए, लेकिन पता नहीं क्यों बदला, हत्या, किलिंग जैसे शब्दों की बेमेल जुगलबन्दी का चलन हो गया है।
इस तरह से होने वाली हत्याएं ऐसे अपराध हैं जिनमें पीड़ित और आरोपी दोनों ही परिवारों का अमन-चैन हमेशा के लिए छिन जाता है। विडम्बना यह कि यह सब होता इज्जत और ऑनर जैसे शब्दों के नाम पर है जो सामान्यतः सुकून देने के निमित्त बने हैं। क्या हमारे सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी विकास की प्रक्रिया में ही कोई खामी है जिसके चलते लगभग सभ्य कहे जाने वाले इस युग में आज भी इस तरह की घटनाओं के लिए गुंजाइश निकल आती है?
-- दीपचंद सांखला
3 मार्च, 2012
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