Thursday, December 6, 2018

जनसुनवाई या फिजूलखर्ची (23 फरवरी, 2012)

पूरे प्रदेश में जनसुनवाई चल रही है। कल बीकानेर में भी थी। प्रभारी मंत्री, महापौर, न्यास अध्यक्ष और जिला कलक्टर सभी अपने लवाजमे के साथ उपस्थित थे, कमी थी तो जन की। तो क्या रामराज्य आने को है जो जनता की सभी समस्याओं का निबटारा लगभग हो गया है या फिर जनता का इन आयोजनों में भरोसा समाप्त हो गया है। पहली बात तो यह कि सभी सार्वजनिक कार्यालयों में यदि समयबद्ध, निष्ठा और ईमानदारी से काम होने लगे तो इस तरह के आयोजनों की जरूरत ही क्यों हो। दूसरी बात इन जनसुनवाई आयोजनों में कार्यरत उन्हीं लोगों से ही यदि आमजन को दो-चार होना है जिनसे आम दिनों में सम्बन्धित कार्यालयों में होता है तो वे ही कर्मी उन्हीं कामों को अपने कार्यालयों में ही क्यों नहीं अंजाम तक पहुंचा देते।
पिछली और इस जनसुनवार्ई के प्रति लोगों की उत्साहहीनता यह संदेश देने को पर्याप्त है कि इस भारी फिजूलखर्ची को बंद कर दिया जाना चाहिए। यदि इन आयोजनों पर होने वाले खर्च का हिसाब मांगा जाय तो इस स्तर के होने वाले निजी आयोजनों से कई गुना बैठेगा!
अशोक गहलोत यदि अपनी सरकार को आमजन की सरकार होने का दावा करते हैं और मंशा भी यदि सचमुच वैसी ही है तो पूरे प्रशासनिक ढांचे में न केवल आमूल परिवर्तन की जरूरत है बल्कि इन अधिकारियों और कर्मियों के मन भी बदलने की जरूरत है। पूरे प्रशासनिक ढांचे का मन बदलाव और कायाकल्प होगा तभी सरकार आमजन की कहलाएगी और ऐसी इच्छाशक्ति अब अशोक गहलोत में नजर नहीं आती है। शायद वे इस व्यवस्था में यह सब करना असंभव मान चुके हैं।
-- दीपचंद सांखला
23 फरवरी, 2012

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