Tuesday, May 5, 2015

आज बात निजी बस सेवाओं की

मध्यप्रदेश के पन्ना में कल हुए बस हादसे में पचास मौतें हो गई हैं। बस में आग लग गई और निकासी के लिए संकटद्वार ही नहीं था। गत सप्ताह ही पंजाब में बस के ड्राइवर, कंडक्टर और एक अन्य ने चौदह वर्षीया किशोरी के साथ छेड़छाड़ की। घबराहट में चलती बस से मां-बेटी उतरीं तो बेटी की दुर्घटना में मौत हो गई। ये दुर्घटनाएं दो पड़ोसी राज्यों में संचालित निजी बस सेवाओं में हुई हैं। राजस्थान में भी बस में आग लगने और पलटने की खबरें जब-तब आती रहती हैं।
पिछले एक सप्ताह में हुई इन दो दुर्घटनाओं से यदि सबक नहीं लेते हैं तो ऐसी वारदातें अपने यहां भी हो सकती हैं। पंजाब में जिस ऑरबिट ट्रैवल्स की बस में वारदात हुई वह सूबे के मुख्यमंत्री की कम्पनी की थी। ऐसी बड़ी ट्रैवल कम्पनियों ने यहां भी कोई-न-कोई बड़ा खूंटा झाल रखा है और इसी से वे सेवा में बरती जाने वाली लापरवाही की छूट हासिल कर लेते हैं।
पिछली सदी के सातवें दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम का गठन किया गया और सन्देश दिया गया कि इसके माध्यम से प्रदेश के यात्रियों को ढंग की सेवाएं मिलेंगी, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे उपक्रमों से भी बदतर हुए इस निगम के अधिकांश अधिकारियों और कर्मचारियों ने इसे लूट का माध्यम बना लिया। सरकार चाहे कोई दल की आए नेताओं का भ्रष्टवाड़ा ऐसे सभी उपक्रमों को बजाय सुधारने के, छुटकारे की जुगत तलाशने में ही लगा रहता है। निगम के अधिकारी-कर्मचारी यदि इसे अपना उपक्रम समझते तो ऐसी गत नहीं होती।
नेताओं के भी हित अब किसी-न-किसी तरह से ट्रैवल एजेन्सियां साधती हैं। ऐसे में उन्हें अपने और अपनों की सुध ही रहती है, यात्रा करने वाला आम-अवाम जाये भाड़ में।
निजी बसें चाहे लग्जरी हों या सामान्य, उनकी स्थितियां बिन्दुवार यहां बता देते हैं। यद्यपि यह अच्छी तरह पता है कि ट्रैवल्स मालिक और बस संचालक इतने बेधड़क हैं कि उन पर इसका कोई असर नहीं होने वाला।
ˆसबसे पहले आग की स्थिति को देखें तो निजी क्षेत्र की लगभग सभी बसों में संकटद्वार ही नहीं होता, ड्राइवर के कैबिन में भी मात्र डेढ़ दरवाजे होते हैं, उनमें आधा ड्राइवर के लिए और एक यात्रियों के उतरने-चढ़ने के लिए। इनमें भी वे बसें ज्यादा खतरनाक हैं जिनकी खिड़कियां वातानुकूलित के चलते फिक्स होती हैं। नहीं पता बिना संकटद्वार वाली बसों में परिवहन विभाग के सुरक्षा मानक कैसे निर्धारित होते हैं।
ˆसुरक्षा के हिसाब से बात करें तो ड्राइवरों की सभी तरह की जांचें कभी होती भी हैं, नहीं पता। कई बार यह भी देखा गया है कि भरी बस की स्टेयरिंग नौसिखिए को सौंप दी जाती है।
ˆजिन बसों में खिड़कियां फिक्स नहीं हैं, उनके आधी खिड़कियों के लॉक शायद ही कभी सही रहते हैं, सर्दियों में ये बेहद मारक हो जाते हैं, इस तरह की रिपेयरिंग की व्यवस्था नियमित तो छोड़ दें, सप्ताह-महीनों में भी नहीं करवाई जाती।
ˆआजकल स्लीपर बसें चलती हैं, जिसके गद्दों पर यात्री अमूमन खाना खाकर गंदगी बिखेर देते हैं, बच्चे टट्टी-पेशाब कर देते हैं। बारिश में खिड़की खुली रह गई तो सीट गीली हो जाती है। ऐसे में अगली यात्रा के लिए आने वाले यात्री को ही इसे भुगतना होता है। इसकी शिकायत की जाय तो तमीज से जवाब देने वाले कंडक्टर कम ही होते हैं।
ˆमिड-वे पर जहां ये बसें रुकती हैं वहां महिलाओं के लिए यूरिनल है कि नहीं, और है तो सुरक्षित स्थान पर है कि नहीं, इसका कतई ध्यान नहीं रखा जाता। निजी बसों के मिड-वे ड्राइवर-कंडक्टर ही तय करते हैं और वे ऐसा हमेशा केवल अपना हित देखकर ही करते हैं। मिड-वे के अधिकांश दुकानदार एमआरपी दर से डेढ़ा-दुगुना वसूलते हैं। इससे टूर ऑपरेटर का कोई लेना-देना नहीं होता।
ˆऔर तो और, मिड-वे से बस रवाना होने पर यह तहकीकात ही नहीं की जाती कि सभी यात्री लौट भी आये हैं कि नहीं। दो मिनट के अंतराल में हॉर्न बजाएंगे और फुर्र हो जायेंगे।
ˆशहर से गुजरते हैं तो गलत दिशा से बेधड़क गुजरते संकोच नहीं करतेˆसामने कोई आये तो फूटे उसके! हड़बड़ाकर सामने वाला चाहे गिर ही जाए।
ˆलग्जरी बसों को अंधाधुंध भरने और ऐसा करने के लिए उतारने-चढ़ाने में कितना ही समय खराब करते हों मगर यात्री कोई अपनी जरूरत बता दे तो ड्राइवर-कंडक्टर, दोनों के तेवर चढ़ जाते हैं। कई बार तो ये बहुत बदतमीजी भी करते हैं। ऑपरेटर को लगेज ज्यादा मिल जाये तो उसे यात्रियों की असुविधा की परवाह किए बिना गेलेरी में रखवा दिया जाता है।
ˆएक सीट को दो-दो को देने के मामले भी अकसर देखे जाते हैं। इसमें भी भुगतना एक यात्री को ही होता है।
ˆनिजी क्षेत्र की सेवाओं का समर्थन करने वालों का तर्क होता है कि ये लोग प्रतिस्पर्धा में बेहतर सेवाएं देंगे लेकिन अपने यहां होता इससे उलट है। ये निजी बस ऑपरेटर यात्रियों के खिलाफ सिंडीकेट की तरह काम करते हैं। गुजरात-महाराष्ट्र में जो निजी ऑपरेटर हैं वे ज्यादा व्यावहारिक हैं। उनकी सेवाएं न केवल चाक-चौबंद हैं, बसों की भी नियमित जांच होती है। ड्राइवर-कंडक्टर बहुत ही शालीन होते हैं। रास्ते में सवारियां नहीं चढ़ाते तो उतारने की जरूरत भी नहीं होती। किराया भी देखें तो राजस्थान से कम ही होता है। वे ऐसा कैसे संभव कर पाते हैं यह यहां के ऑपरेटरों को समझना चाहिए।
ˆनिजी क्षेत्र के बढ़ावे में पिसेगा उपभोक्ता ही, जो पिस भी रहा है। गैर लग्जरी निजी सेवाओं का हाल और भी बुरा है। उन्हें गरज सवारी के चढ़ने तक ही होती है, बाद में यात्री गरीब होता है और कंडक्टर उनके साथ वैसा व्यवहार करता है जो शायद वह अपने पालतू कुत्ते के साथ भी नहीं करता होगा। पैसे यात्री देता है और अहसान की भाषा कन्डक्टर बोलता है।
ˆअच्छे बस ऑपरेटरों से उम्मीद की जाती है कि वह न केवल ड्राइवर-कन्डक्टरों को लगातार शिक्षित-प्रशिक्षित करें बल्कि उनकी सुविधाओं का भी पूरा ध्यान रखें। बसों को ढंग से रखने और सवारियों का सम्मान करने-करवाने आदि में खर्चा पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं आना है जिसकी पूर्ति अच्छी सेवा मिलने पर ज्यादा यात्री मिलने से आराम से हो जाती है। जो यात्री लोभ करेगा वह दुर्व्यवहार भी भुगतेगा और असुविधा भी।
यहां इससे भी इनकार नहीं है कि कुछ यात्री भी बदतमीज होते हैं तो कुछ गंदगी भी करते हैं। ऐसों से प्रेम से निबटा जा सकता है। फिर भी नहीं मानें तो व्यापार कर रहे हो तो कुछेक को भुगतना भी पड़ेगा।
अन्त में न केवल बस ऑपरेटरों से बल्कि परिवहन विभाग से यही उम्मीद की जाती है कि वे यात्रियों के जान-माल और सम्मान से समझौता नहीं करें। व्यापार और नौकरी का धर्म आप चाहे ना मानें, जो कि मानना ही चाहिए। हो सकता है कभी किसी दुर्घटना और दुर्व्यवहार का शिकार आपका प्रिय और परिजन भी हो जाए।

5 मई, 2015

No comments: