Tuesday, May 12, 2015

जयललिता और सलमान के बहाने

सलमान को सजा होने के दो घण्टे में जमानत और जयललिता का बरी होना, न्यायपालिका का कौनसा चेहरा जाहिर करता है? केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद गुजरात में मोदी की मंत्री रहीं और 2002 के दंगों की आरोपी माया कोडनानी से लेकर आइपीएस बंजारा तक को जमानतें मिलना भी संशय के ताक पर है। ऐसे सभी मामलों का केवल फैसलों के आधार पर आकलन करेंगे तो उचित नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि सभी जांच एजेंसियां अपने आकाओं के इशारों पर चाहे चले चले, इशारों को समझती जरूर हैं। अलावा इसके किसी मुकदमें का फैसला केवल और केवल जजविशेष की मंशा पर पूरी तरह शायद ही निर्भर करता हो। जांच की चाल, गवाहों का आगे-पीछे होना, यहां तक कि मुकदमें के नेपथ्य के लोग भी फैसले को कम प्रभावित नहीं करते। इसके मानी ये कतई नहीं हैं कि भारतीय न्याय-व्यवस्था दूध की धुली है, जजों की पदोन्नति रुकना, जजों को स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति लेने का कहना, नहीं कहने पर जबरन घर भेजने जैसे उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि न्याय-व्यवस्था में सब-कुछ पूरी तरह ठीक नहीं है।
पिछले पचीस-तीस सालों में ऊपर की कमाई करने वालों को हिकारत से देखना, भ्रष्टाचार को प्रतिष्ठा देना ही है। ऐसे में समाज और व्यवस्था के वे सभी अंग जिनके पास कोई कोई सामथ्र्य है, वे अपनी-अपनी स्थिति अनुसार कमोबेश संक्रमित होने से बच नहीं पा रहे हैं। इन परिस्थितियों में न्याय-व्यवस्था से शत-प्रतिशत उम्मीद करने वाला समाज अपने किए-धरे की छूत को कम करके आंक रहा है।
सलमान के मामले की बात करें तो इसमें अपनी छवि के विपरीत पुलिस ने मुस्तैदी दिखाई, वहीं न्याय-व्यवस्था में शिथिलता या लिहाज जैसा कुछ झांकता मिल जायेगा। सलमान समर्थकों की इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इस मामले में 'सेलिब्रिटी' फंसा नहीं होता तो मामला सैट हो जाता। आए दिन के ऐसे मामले देखें तो उनका कहना गलत नहीं लगेगा। लेकिन, जो सलमान सेलिब्रिटी होने के सुख भोग रहा है उसके दु: भी उसे ही भोगने होंगे। मामला उच्च न्यायालय में कुछ वर्ष चलेगा, फिर उच्चतम न्यायालय है ही। हो सकता तब तक सलमान की उम्र सेवानिवृत्ति को हासिल हो लेगी।
इसी तरह जयललिता का मामला है। सभी जानते हैं कि अधिकांश बड़े राजनेताओं के पास अकूत संपत्ति होती है। वे उसे किस तरह सहेज कर रखते हैं, यह उनके अपने-अपने तौर-तरीके हैं। जयललिता को इस कठघरे में खड़े करने वाले सुब्रमण्यम स्वामी भी कितने विश्वसनीय हैं, जानकारी रखने वाले जानते हैं। वे बजाय विश्वसनीयता के सनसनी में विश्वास रखते रहे हैं, वही उनके सार्वजनिक अस्तित्व की पूंजी है। मौल-भाव में उन्हें पारंगत माना जाता है। स्वामी का यह माजना लगभग जाहिर हो गया है। इसलिए उनकी पावली की कीमत अब पावली ही रह गयी है। हो सकता है वे जल्द ही पुन: भाजपा से बाहर नजर आएं। जयललिता पर पहले जब विशेष न्यायालय का फैसला आया, उस पर आश्चर्य इसलिए हुआ था कि सुब्रमण्यम स्वामी ने यह क्रेडिट कैसे संभव कर दिखाई। इसी तरह गुजरात दंगों के आरोपियों और वहां की झूठी मुठभेड़ों के आरोपियों पर जांच एजेंसियों का शिकंजा धीरे-धीरे खुलने लगा है तो ऐसा इस राज में नहीं होता तो कब होता। कांग्रेस भी ऐसा करती आयी है। आम-अवाम ऐसों को जिता कर राज सौंपती है तो उसे इन सब पर अंगुली उठाने का हक भी नहीं है। क्षेत्र या समूह विशेष को छोड़ दें तो आम-अवाम को इन सब से कोई फर्क नहीं भी पड़ता। फर्क पड़े, ऐसी हैसियत ना उन्हें समर्थ समाज ने दी और ही चाही। ऐसा हो जाय तो आम-अवाम भेड़चाल अवस्था से मुक्त हो लेगी और मुक्त हो लेगी तो संभवत स्वतंत्र रूप से विचारने लगे और विचारने लगेगी तो शायद समर्थों, समृद्धों और दबंगों की दाल गलनी बंद हो जायेगी। आम-अवाम समझ-बूझकर वोट करने लगे, ऐसा तो कोई चाहता है और ही इसके लिए संगठित तौर पर सक्रिय है। इसलिए लालू, जयललिता, माया कोडनानी, राजा, कलमाड़ी, सलमान, संजय दत्त, बंजारा आदि-आदि को ज्यादा भयभीत होने की जरूरत नहीं है।

12 मई, 2015

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