Friday, May 15, 2015

चीन के बहाने देश की बात

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी तीन दिवसीय यात्रा पर चीन में हैं। वहां के टीवी चैनल ने जो स्वागत कार्यक्रम दिखाए उनमें भारत के नक्शे में जम्मू और कश्मीर था और ही अरुणाचल प्रदेश। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि चीन का मीडिया निजी क्षेत्र जैसा कुछ नहीं है, अखबार हों या टीवी चैनल, सभी पर सरकार का नियंत्रण है। बिना जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के उस नक्शे को लेकर छिट-पुट मोदी विरोधी सोशल मीडिया कल से ही छप्पन इंच के सीने को ललकार रहा है। यद्यपि इस ललकार में वह तीव्रता नहीं है जो मनमोहनसिंह के प्रधानमंत्री रहते ऐसा घटित होने पर होती। तथाकथित राष्ट्रवादियों द्वारा केवल सोशल साइट्स पर अभद्रता की जाती बल्कि देश के खबरिया चैनलों पर भी मौखिक गंदगी की बाढ़ जाती। ऐसे सभी राष्ट्रवादियों को फिलहाल सांप सूंघ गया लगता है।
खैर, यह सब किसी उकसावे के लिए नहीं बल्कि यह अहसास करवाने के लिए बताया जा रहा है कि द्वि-राष्ट्रीय मुद्दों की चरम स्थिति तक धैर्य की जरूरत होती है। दो राष्ट्रों के बीच विवादों के पीछे दोनों पक्षों के भावनात्मक, व्यावहारिक और ऐतिहासिक सभी तरह के कारण अलग-अलग होते हैं। इन्हें समझदारी और चतुराई से यदि नहीं निबटाया जाता है तो उसकी भारी कीमत दोनों ही देशों को दशकों-सदियों तक चुकानी होती है। चीन के बरअक्स देखें तो भारत जैसे विकासशील देश के लिए ऐसे विवाद बड़े महंगे साबित होते हैं।
मोदी की इस चीन यात्रा के ऐजेन्डे में सीमा विवाद है भी नहींचूंकि मोदी मानते हैं कि व्यापार गुजराती के डीएनए में है इसलिए वे शुद्ध व्यापाराना अन्दाज में ही चीन गये हैं। यह बात अलग है कि चीन जैसे अति चतुर व्यापारी देश से लाभ के कैसे सौदे करने में सफल होते हैं। व्यापार के मामले में चीन के बारे में यह धारणा है कि चाकू और खरबूजे में से चीन स्थाई तौर पर चाकू की भूमिका में होता है। दाता की भूमिका में कहीं दिखाई भी दे तो अपने को तत्काल झकझोर लेना चाहिए, क्योंकि उस भूमिका में भी वह कुछ हासिल कर लेगा।
प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी चीन से बहुत उम्मीदें बनाए हुए हैं। उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि चीन की शासन मानसिकता और नरेन्द्र मोदी की शासन मानसिकता में बड़ा साम्य हैमानवीयता की कीमत पर परिणाम केन्द्रित होना। पूरी दुनिया जानती है कि चीन में मनुष्य की हैसियत मशीन से ज्यादा नहीं। उसके अनुत्पादक होते, वहां जीवन के अधिकार स्थगित हो जाते हैं। परिणामों के मामले में मोदी भी लगभग वैसे ही आग्रही हैं। बल्कि ज्यादा खतरनाक यह है कि चीन में समान मानसिकता वालों का एक समूह सब कुछ तय करता है जबकि मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में ग्यारह माह की कार्यशैली और गुजरात का बारह साल का उनका मुख्यमंत्रित्व काल उन्हें लगभग 'एकलखोरे' के रूप में स्थापित कर चुका है। अपने मंत्रिमंडल को तो उन्होंने ठिकाने ही लगा रखा है। उनकी इस कार्यशैली में बड़ी बाधाएं संसदीय लोकतंत्र और उच्चतम न्यायालय हैं। देखते हैं वे इन्हें ठिकाने लगाने की कोशिश करते हैं या बच कर अपनी कार्यशैली का पोषण करते रहते हैं।
'विनायक' के पाठकों के साथ चीन के साथ सीमा विवाद पर बात की जा चुकी है। लेकिन अब जब तथाकथित राष्ट्रवादियों को सांप सूंघा हुआ है तब मोदी चाहें तो इस विवाद को निबटा कर तनाव और भारी खर्चे के इस स्थाई मुद्दे को खत्म कर सकते हैं। चीन जैसे अमानवीय और धंधेबाज देश के लिए ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। लेकिन भारत के लिए इसे निबटाना बहुत जरूरी है। अरुणाचल प्रदेश का मामला कूटनीतिक है लेकिन शेष सीमा विवाद मात्र बीस किलोमीटर चौड़ाई का दुर्गम-निर्जन पहाड़ी इलाका है जिसे मिल-बैठ कर निबटाया जाए। दिखाई देने वाले कागजी और डिजिटल नक्शों की लाइनों में आए ऐसे बदलाव इतने सूक्ष्म होंगे कि हम पकड़ ही नहीं पाएंगे। हो सकता है इस सकारात्मकता से चीन कश्मीर और अरुणाचल के भारतीय दावों को मान्यता दे दे। हां, विरोधियों की सरकार आने पर तथाकथित राष्ट्रवादियों से हाका करने का यह अवसर जरूर छिन जायेगा। हालांकि ऐसे हाकेबाजों को तथ्यों और तर्कों से लेना-देना कम होता है। ऐसे में वे तो हाकों के अवसर दूसरे तलाश लेंगे। हो सकता है तब देश अपनी उत्तरी सीमा पर सुकून महसूसने लगे।

15 मई, 2015

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