Wednesday, May 20, 2015

टी-24 बाघ के सबक

मीडिया द्वारा उठाए मुद्दों को अखबार, खबरिया चैनल का आम पाठक-दर्शक किस तरह लेता है, इस पर भी कोई दिलचस्प सर्वेक्षण हो सकता है। टारगेट रेटिंग पॉइण्ट यानी टीआरपी और प्रसार-पाठक संख्या का आंकड़ा देने वाली एजेसियां तो हैं ही। किसी सार्वजनिक मुद्दे को पाठक-दर्शक किस तरह लेते हैं? स्वयं वह मीडिया समूह जो अपने द्वारा ही की गई रायशुमारी को कई बार पढ़ाता-दिखाता है, उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध मानी जाती है।
रणथम्भौर अभयारण्य के बाघ टी-24 का मुद्दा दैनिक भास्कर ने उठाया है। इसे मीडिया की सकारात्मक पहल कह सकते हैंस्वार्थ के संकीर्णतम वलय की ओर अग्रसर समर्थ मनुष्य समाज को सिवाय खुद के कोई दीखता ही नहीं है। प्रकृति के साथ आए दिन की उसकी मुठभेड़ों ने प्राकृतिक विषमताएं इतनी खड़ी कर ली हैं कि जंगल खत्म होने लगे हैं, नदियां या तो नालों में तबदील हो गई हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। अभयारण्य कुछ जंगल बचाए भी रखें हैं तो उन्हें भी हम अपने तरीके से हांकना चाहते हैं। टी-24 बाघ का मामला कुछ वैसा-सा ही लग रहा है। इस मामले का आश्चर्यजनक पहलू तो यह है कि शासन-प्रशासन भी आपस में एक राय नहीं हैं। मंत्री कुछ कह रहे हैं तो सम्बन्धित अधिकारी कुछ जुदा। और तो और वाइल्ड लाइफ के सदस्य तो बहुत ही हास्यास्पद अवस्था में नजर आए। समाज से लिए जाने वाले ऐसे लोगों से उम्मीद यह होती है कि सरकारी कारकुन कुछ ज्यादा मशीनी हो रहे हों तो उन पर अंकुश रह सके। भास्कर में आज की रिपोर्टिंग से लग रहा है, बोर्ड के ये सभी सदस्य सम्बन्धित या जिम्मेदार अधिकारियों को ही बचाने में जुटे हैं। इससे जाहिर हो रहा है कि इन अपात्र लोगों को अपनी नियुक्तियों के मकसद से मतलब ही नहीं है।
जंगली पशु-पक्षियों के प्राकृतिक ठिकानों पर मनुष्य लगातार अवैध और अप्राकृतिक, दोनों तरह की, घुसपैठ करते रहे हैं। सरकारें भी अब ऐसे कुकृत्यों को वैधानिकता की आड़ देने का काम करने लगी है। जिन पशुओं और पक्षियों को हम चलताऊ में हिंस्र कहते हैं, दरअसल वह इनके जिन्दा रहने का जरूरी स्वभाव है। यह स्वभाव जिस भी नस्ल का कारगर नहीं रहेगा उसके समाप्त होते देर नही लगेगी। पिछले सौ वर्षों के हुए अध्ययनों को देखें तो इस तरह कई नस्लों के लुप्त होने और लुप्तप्राय होने के अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैंगोडावण, गिद्ध, जंगली बिल्ली और लोमडिय़ों की विशेष किस्में आदि-आदि तो अपने इस मरु क्षेत्र का सन्दर्भ देकर ही गिनाए जा सकते हैं। गिद्ध पर तो पिछले ही दिनों भास्कर, बीकानेर की आंखें खोल देने वाली रिपोर्टिंग थी।
तथाकथित हिंस्र पशु-पक्षियों का अध्ययन यह बतलाता है कि ये हिंस्र तभी होंगे जब इन्हें अपनी असुरक्षा का भान होगा और जिससे होगा उसे भयभीत करने के लिए ये हिंस्र मुद्रा में लेते हैं। ऐसे में सामने वाले की बचाव मुद्रा भी उन्हें कई बार आक्रमणकारी की लग सकती है। तब वे अपने बचाव में उस पर हमला बोल देते हैं। लगातार ऐसी रिपोर्टें भी आती हैं कि बढ़ते शहरीकरण और आबादी में वृद्धि के चलते जंगल सिमटते जा रहे हैं जिसके चलते प्राणी सहअस्तित्व की धारणा का संतुलन बिगड़ रहा है।
मनुष्य यह भूल जाता है कि खुद उसके जीवन के लिए प्राकृतिक संतुलन जरूरी हैऔर प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-पहाड़ आदि-आदि। हम अपनी संख्या बढ़ाते और शेष सभी को घटाते रहेंगे तो ऐसे में खुद का अस्तित्व भी कितने' दिन बचा कर रख सकेंगे?
अब भी समय हैहमें चीन की तरह 'एक दम्पती एक संतान' पर गंभीरतापूर्वक विचारना चाहिए। अन्यथा टी-24 बाघ के लिए जंगल तो क्या, खुद के विचरण के लिए बनाए ये 'शहरी जंगल' नहीं बचा पाएंगे।

20 मई, 2015

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