Monday, September 8, 2014

कटारिया-सर्राफ उवाच

इस बार का शिक्षक दिवस केवल इसलिए अजूबा नहीं था कि देश के प्रधानमंत्री ने विद्यार्थियों के साथ ठिठोली करने के लगभग तुगलकी आदेश निकलवाए बल्कि, इसलिए भी कि अपने राजस्थान में इस दिन जयपुर में आयोजित प्रदेश स्तरीय समारोह में दो मंत्रियों और एक आइएएस अधिकारी ने बर के छते को शब्दों से भेदने की कोशिश की। इस समारोह की बू जैसे-जैसे फैलने लगी वैसे-वैसे प्रदेश के शिक्षकों में रस्म अदायगी विरोध शुरू हो गया। कुछ सम्मानितों ने यहां तक घोषणा की कि मंत्री और अधिकारी अपने कहे की क्षमा नहीं मांगेंगे तो सम्मान लौटा भी सकते हैं।
सभी जानते हैं कि इस अवसर के लिए सरकारी तौर पर कुछ शिक्षकों का चयन राष्ट्रीय सम्मान के लिए होता है तो कुछ का प्रादेशिक सम्मान के लिए, और इसी दिन नई दिल्ली और प्रादेशिक राजधानियों में उन्हें सम्मानित किया जाता है। इस बार प्रादेशिक समारोह में मुख्यमंत्री तो नहीं पहुंची पर ग्रामीण एवं पंचायतीराज मंत्री गुलाबचन्द कटारिया और शिक्षामंत्री कालीचरण सर्राफ सम्मानित करने वालों में थे, विभाग के उच्च अधिकारी अतिरिक्त मुख्य सचिव श्याम एस. अग्रवाल मेजबान के तौर पर। अवसर तो सम्मानित करने का था लेकिन इन तीनों के बोल अपमानित करने वाले ही थे बल्कि श्याम एस. अग्रवाल तो अतिश्योक्ति पर ही उतर आए।
सर्राफ ने शिक्षामंत्री रहते हुए यहां की शिक्षा व्यवस्था की यह कह कर खिल्ली उड़ाई कि प्रदेश में शिक्षा ग्रहण करने वाला कभी टॉपर नहीं हो सकता, प्रदेश से टॉपर रहने वाले सभी बाहर जाकर अध्ययन करने वाले ही हैं। वहीं कटारिया ने सरकारी महकमों के भ्रष्टाचार को यह कह नंगा कर किया कि ये मास्टर लोग अपने पारिवारिक मरने-परने के खर्चे भी स्कूल के बजट से निकालते हैं। श्याम एस. अग्रवाल ने तो हद ही कर दी कि राजस्थानियों में कोई योग्य नहीं मिलता, वे इन राजस्थानियों में से किसी को भी अपना सहयोगी नहीं रखना चाहते।
कहने को कह सकते हैं मंत्रियों के कहे में सचाई है। लेकिन प्रश्न यह है कि इन बदतर हालात के लिए क्या केवल शिक्षक ही जिम्मेदार हैं। सर्राफ और कटारिया दोनों भूल जाते हैं कि ऐसी परिस्थितियां के लिए जिम्मेदार भ्रष्टाचार और हरामखोरी को अनुकूलताएं किन्होंने दीं। राजनेताओं और उच्च अधिकारियों की मिलीभगत का ही यह नतीजा है जिसे ये बयान कर रहे हैं। 1949 में प्रदेश बने राजस्थान में 1977 बाद के इन छत्तीस वर्षों में सोलह वर्ष इन्हीं का राज रहा है। इसलिए भूंड केवल कांग्रेस पर भी नहीं डाल सकते। दोनों ही पार्टियों के नियन्ता कमोबेश समान रूप से जिम्मेदार हैं। इस अवसर पर अच्छा तो यह होता कि ये दोनों महानुभाव ऐसे कुछ शासकीय उपायों की घोषणा करते जिनसे शिक्षकीय पेशा पुन: प्रतिष्ठित होता, मास्टरों को हड़काने का हक नेता तभी हासिल कर सकते हैं जब वे खुद दूध के धुले हों। इस तरह की बयानबाजी से वे बचे-खुचे निष्ठावान शिक्षक आहत होते हैं जिन्होंने अपनी निष्ठा से इस पेशे की मान-मर्यादा को थोड़ा बहुत बचाए रखा है। सम्मानितों में आजकल अधिकांश वे तिकड़मी शिक्षक ही होते हैं जिन्हें सामान्यत: अपनी असल ड्यूटी से जी चुराते देखा जाता है। इसीलिए शायद मंत्री द्वय ने भी सुनाने का असली अवसर सम्मान समारोह को माना। सुधार नीचे से नहीं ऊपर से शुरू होगा तभी प्रभावी होगा। मंत्री जी चाहें कि उनका धंधापाणी और करतूतें तो वैसे ही चलती रहे और नीचे के सभी ईमानदार और निष्ठावान हो जाएं। ऐसी उम्मीदों को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। रही बात अतिरिक्त मुख्य सचिव महोदय की बात की तो अफसराना सनक में कही पर चर्चा करना जरूरी नहीं होता। ऐसे अफसरों का दिमाग ठीक रखने की जिम्मेदारी इन नेताओं की होती है, और नेता ऐसे कम रह गये हैं जिनमें इन अफसरों की लगाम कसने की कुव्वत हो। इन बयानों पर शिक्षकों का रोष पानी के बुलबुले के समान है, जिन्हें समय लेकर फूटना ही है।

8 सितम्बर, 2014

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