Wednesday, September 24, 2014

टिमटिमाती उम्मीदों को भी कब तक सहेज कर रख पाएंगे

आजादी बाद जिस स्कूली शिक्षा प्रणाली का विकास किया गया वह तीस-पैंतीस वर्ष बीतते-बीतते लकवाग्रस्त हो गई। अच्छी-खासी सरकारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को नाकारा माने जाना लगा और निजी स्कूल प्रतिष्ठा पाने लगे। जबकि तब भी और अब भी सरकारी स्कूल के शिक्षक और निजी स्कूल शिक्षक के वेतन, छुट्टियों अन्य सुविधाओं में भारी अन्तर है और पेंशन जैसी बुढ़ापे में आत्म सम्मान देने वाली व्यवस्था निजी क्षेत्र में है ही नहीं। सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा को भ्रष्टाचार और हरामखोरी का ग्रहण आजादी के थोड़े वर्षों बाद ही लगना शुरू हो गया था।
प्रदेश की निजी शिक्षण संस्थाओं की वेतन विसंगतियों पर उच्च न्यायालय, जोधपुर ने गंभीर चिन्ता जताई है। मामला बीकानेर में निजी क्षेत्र के एकाधिक स्कूल चलाने वाले प्रदेश के बड़े शिक्षण समूह से सम्बन्धित है। निजी क्षेत्र के सभी स्कूल किसी पंजीकृत संस्था के माध्यम से संचालित इसलिए किए जाते हैं कि कागजों में वह दुकान लगे लेकिन देखा यही गया है कि चाहे उसे कोई संस्था चला रही हो-वह चलाया दुकान की तरह ही जाता है। बल्कि किसी दुकान को चलाने से भी ज्यादा घटिया और अनैतिक तरीकों से। शिक्षकों को पूरा वेतन नहीं दिया जाता, जितना दिया जाता है, किए गये भुगतान से दुगुने-तिगुने पर हस्ताक्षर करवाएं जाते हैं-काम ज्यादा घण्टे लिया जाता है, शैक्षणेत्तर कार्य करवाना और छुट्टियों का वेतन नहीं देना आम बात है।
स्कूली दुकानें चलाने वाली इन शिक्षण संस्थाओं की पड़ताल करें तो इसमें से कई उन सरकारी अध्यापकों के निकलेंगे जिन्होंने स्कूल और कक्षाओं से 'फरलो' कर केवल अपने स्कूल स्थापित किए बल्कि पढ़ाते हुए भी वेतन सहित सभी लाभ भी उन्होंने हासिल किए
भ्रष्टाचार ने जैसा कबाड़ा देश की सार्वजनिक सेवाओं का किया है जिसके समानांन्तर कोई अन्य उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिले। सरकारी कर्मचारियों की अकर्मण्यता, लेटलतीफी, लापरवाही और अच्छी खासी तनख्वाह पाने के बावजूद बिना रिश्वत के काम करने की नीयत से सामान्य मानवाधिकारों का हनन पग-पग पर होता है। हक के हर काम के लिए आमजन को केवल गिड़गिड़ाना पड़ता है बल्कि रिश्वत देकर भी चक्कर लगाने पड़ते हैं। जिन कामों को करना 'ड्यूटी' या कर्तव्य माना जाना चाहिए था वह सब कब 'एहसान' में तबदील हो गये पता ही नहीं चला।
कह सकते हैं इसमें दोष केवल सरकारी कर्मचारियों का ही नहीं, जिन्हें गलत करवाना होता है दोष उनका भी है, अर्थात् शासक और शासन के लोगों के साथ वे सब भी दोषी हैं जो समृद्ध और सामथ्र्यवान हैं।
लेकिन इस सब को रोकने में महती भूमिका वे संगठित समूह निभा सकते थे जो अपने-अपने सामूहिक हकों के लिए संगठित हुए। इनमें कर्मचारी संघ, शिक्षक संघ, अधिकारी संघ, व्यापारी संघ सहित उन सभी समूहों से सकारात्मक उम्मीदें की जा सकती थी और है। लेकिन हुआ क्या? इन सभी संगठनों ने केवल अपने-अपने हितों की बात की। यानी जिन अपनों के हितों की बात ये समूह करते रहे हैं इनमें से किसी संगठन ने भी अपने सदस्यों को कर्तव्य निर्वहन के लिए बाध्य करना तो दूर प्रेरणा भी दी हो, उदाहरण नहीं मिलता। यह सभी संगठन गिरोह में तबदील हो चुके हैं। गिरोह में तबदील हुए तो काउण्टर में सामने दूसरा गिरोह खड़ा हुआ, फिर तीसरा और चौथा गिरोह! ये संगठन इस तरह अराजक हुए नजर आने लगे हैं कि इन्हें चलाने के लिए भी वे सभी करतूतें होने लगी जिनके खिलाफ ये संगठन खड़े किए गये। ऐसे किसी भी संगठन की प्रतिष्ठा शायद ही बची है। ऐसी कर्तव्य-निर्वहनता के अभाव में आम नागरिक को आए दिन हकों के हनन और इससे उपजी हताशा से दो-चार होना पड़ता है। यहां तक कि इन सभी तरह के संघों में 'काबिजों' को भी जब-तब ऐसी ही हताशा का सामना करते देखा जा सकता है।
न्यायालय का जमीर अभी पूरी तरह चुका नहीं। जब-तब वह टिमटिमाता है, न्यायालय आदेश भी देते हैं लेकिन इनका क्रियान्वयन इस भ्रष्ट और नाकारा व्यवस्था को ही करना है ऐसे में अकेले न्याय व्यवस्था से भी उम्मीदें कब तक रख पाएंगे, कहा नहीं जा सकता।

24 सितम्बर, 2014

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