Thursday, September 18, 2014

'शिव सैनिक' हेमामालिनी

उत्तर प्रदेश के मथुरा से सांसद हैं हेमामालिनी। इन राजनीतिक पार्टियों को मतदाताओं को भरमाने के लिए कुछ चमकदार चेहरों की जरूरत इसलिए पडऩे लगी कि आम-आवाम के लिए कुछ खास किया-धरा तो होता नहीं है, जिसके नाम पर वे वोट मांग सकें। इसीलिए कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियां ऐसे चमकदार चेहरों की तलाश में रहती हैं जिनके चिलके से वह मतदाताओं में अपने पक्ष में चौंध पैदा कर सके। लगभग विलासिता का जीवन जीने वाले ऐसे लोगों को भी समय गुजारने के लिए कुछ ऐसी व्यस्तता चाहिए होती है जिनमें उन्हें करना तो कुछ नहीं पड़े और उनकी विलासिता और समृद्ध हो जाए।
बीकानेर के लोग धर्मेन्द्र को सांसद के रूप में भुगत चुके हैं। यहां के लोगों ने उनकी फजीती भी कम नहीं की इसीलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति से तोबा कर ली, लेकिन मात्र उनकी यह तोबा बीकानेर को सक्रिय सांसदी के पांच वर्ष तो लौटा नहीं सकती। हेमामालिनी धर्मेन्द्र की दूसरी पत्नी है, चूंकि हिन्दू विवाह कानून में एक जीवन साथी के रहते वैधानिक तौर पर दूसरा विवाह नहीं किया जा सकता सो अस्थाई तौर पर इन दोनों ने धर्म परिवर्तन कर इस्लाम अपनाया और निकाह करके इस्लाम को खूंटी टांग दिया। धर्मेन्द्र चूंकि जाट समुदाय से आते हैं, इसी वजह से उन्हें बीकानेर जैसे जाट बहुल संसदीय क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी ने उम्मीदवार बनाया था। चूंकि जन्म से ब्राह्मण हेमामालिनी इस्लाम से गुजरकर जाट धर्मेन्द्र से शादी करके जाट हो गई। इस जाट होने की बदौलत ही पिछले लोकसभा चुनावों में जाट बहुल संसदीय क्षेत्र मथुरा से उन्हें उम्मीदवार बनाया गया और वह उन दिग्गज जाट चरणसिंह के पोते जयन्त चौधरी को हरा कर लोकसभा में पहुंच गईं जिनकी कभी आसपास के सभी संसदीय क्षेत्रों में तूती बोलती थी।
हेमामालिनी के लिए बात करने की जरूरत कल के उनके उस बयान के बाद समझी गई जिसमें उन्होंने अधिकांशत: बंगाल और बिहार से मृत्युपर्यन्त प्रवास पर वृन्दावन आने वाली विधवाओं के आने पर एतराज जताया था। वृन्दावन उनके संसदीय क्षेत्र में आता है। उनके पूरे संसदीय क्षेत्र को हिन्दू समाज में पुण्य भूमि माना जाता रहा है। भारतीय समाज में स्त्रियां सामान्यत: दोयम हैसियत का जीवन जीने को मजबूर होती हैं। पुरुष प्रधान समाज में व्यवस्थाएं इस तरह की बना दी गई हैं कि स्त्री यदि उच्च कुल की है तो उसकी हैसियत तो दोयम होती ही है और यदि ऐसे कुलों में विधवा हो जाए तो अन्य कुलों की स्त्रियों की तरह उच्च कुलों की स्त्री की हैसियत का दर्जा कहां तक गिर कर रुकेगा कह नहीं सकते। यह सब अधिकांशत: कुल के दंभ और धर्म की आड़ में किया जाता रहा है। बहुत-सी जातियों में विधवा विवाह वर्जित है। ऐसे में स्त्री को या तो वेश्यावृत्ति के नरक को भोगने को मजबूर होना होता है या फिर थोपे गये वैधव्यिक अभिशाप से मुक्ति के लिए वृन्दावन चले जाना होता है। जो स्त्रियां प्रसवकाल और प्रसव वेदना भोग कर अपनी सन्तानों को जन्म देती हैं, अपना जी काट कर पालती-पोसती हैं उसी स्त्री की जब जरूरत नहीं होती तब उसे बोझ मान लिया जाता है। दूसरे समाजों का तो पता नहीं भारतीय समाज की तसवीर ऐसी ही है। हो सकता है कुछ लोग अपवाद गिनाने लगें पर उन्हें फिर बता दें कि अपवाद अवधारणा की पुष्टि के लिए ही होते हैं। अधिकांश घरों में विधवाओं को रखा भी जाता है तो या तो वह खुद अपनी सामाजिक हैसियत दूसरे-तीसरे दर्जे की मान लेती हैं या उसे इसके लिए मजबूर कर दिया जाता है।
'अभिशाप मुक्ति' के लिए वृन्दावन का चुनाव वहां जाने वाली स्त्रियों ने किया और ही बिहार-बंगाल जैसे प्रान्तों ने। यह सब कुछ तथाकथित पुरुष प्रधान समाज द्वारा अपनी अनुकूलता के लिए थोपी गई व्यवस्थाएं हैं जिनमें स्त्रियां वृन्दावन जैसे धार्मिक क्षेत्र में पोषण के नाम पर शोषित होती रहती है। होना तो यह चाहिए था कि हेमामालिनी यह बीड़ा उठाती कि जिन क्षेत्रों से या जिन कुलों से इन स्त्रियों को ठेल दिया जाता है उस समाज की मानसिकता को बदलती लेकिन ऐसे 'टफ टास्क' उन जैसा विलासी जीवन जीने वाली के ऐजेन्डे में कैसे हो सकता है। वृन्दावन में प्रवास करने वाली विधवाएं न्यूनतम जरूरतों के अभाव में तो जीवन यापन करती ही हैं उससे भी ज्यादा वह ऐसी मानसिक यंत्रणा भी भोगती हैं जिसमें वह अपने जीवित परिजनों के सान्निध्य को तरसती रहती हैं। कोई संवेदनशील उनकी इन संवेदनाओं को कुरेदने और जुम्बिश पैदा करने में सफल होता है तो वह उसके आगे फट और फफक भी पड़ती हैं।
हेमामालिनी के उक्त बयान ने उनकी केवल भोथरी संवेदनाओं को ही जाहिर किया है बल्कि उनकी मानसिकता भी उन समर्थ परिवारों की स्त्रियों सी है जो पुरुष प्रधानता को पोषण करने में उपकरण की भूमिका निभाती है।

18 सितम्बर, 2014

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