अंग्रेज मैकाले की डिजाइन
की गई शिक्षा पद्धति को जब तब भुंडाते रहते हैं। लेकिन आजादी बाद बने शिक्षा आयोगों की रिपोर्टों पर भी देश की सरकारों ने खास ध्यान नहीं दिया। जब देश आजाद हुआ तब का शुरुआती दौर हर क्षेत्र में उत्साहजनक था। शिक्षा पद्धति चाहे कैसी भी थी पर जहां, जितनी और जैसी
भी थी ठीक-ठाक थी। हालांकि तब न
साक्षरता के आंकड़े बताने योग्य थे और न ही स्कूली ढांचा देश के प्रत्येकजन को सुलभ था। स्कूली ढांचे के विकास की योजनाएं बनी और प्रत्येक उस आबादी क्षेत्र तक स्कूली शिक्षा पहुंचाने की मुहिम सिरे चढऩे ही लगी थी कि अन्य क्षेत्रों में पांव पसारते भ्रष्टाचार, हरामखोरी और लापरवाही
शैक्षिक ढांचे में भी आ गए। तब देश में शिक्षा का ढांचा जितना भी था, अधिकांश सरकारी था। धीरे-धीरे
गड़बडिय़ां शुरू हुईं, सरकारी स्कूलों की प्रतिष्ठा
कम होती गई, विकल्प के तौर
पर निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई। राजस्थान की बात करें तो सरकारी तनख्वाहें पाने वालों में सबसे बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों के कारकूनों का ही है, लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता
को कुछ ऐसे समझ लें कि सरकारी स्कूलों के अधिकांश कारकूनों के बच्चे पढऩे के लिए निजी स्कूलों में ही भेजे जाते हैं। सरकारी और निजी, दोनों तरह के स्कूलों
की असलियत के बारे में 'विनायक' इसी
कालम में एकाधिक बार लिख चुका है। आज उन्हें दोहराने की बजाय केन्द्र की ओर से आगामी पांच सितम्बर, शिक्षक दिवस पर कार्यक्रम
सम्बन्धी निकाले गये फरमान की बात कर लेते हैं। सभी जानते हैं केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार है। उनकी कार्यशैली से भी सभी वाकिफ होंगे। उनकी इसी कार्यशैली से ही उम्मीदें बांध कर देश ने उनको पूर्ण बहुमत के साथ शासन सौंपा है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हर कार्यशैली के अपने गुण-अवगुण होते हैं। मोदी गुजरात में राज केन्द्रीकृत करके चलाते थे,
अपने मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों को सामान्यत: वे तनाव
मुक्त रखते थे। ज्यादा से ज्यादा यह कि वह यथावसर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दे, ऐसा ही कुछ
उन्होंने केन्द्र की सरकार में आजमाना शुरू कर दिया है। लेकिन केन्द्र में अपने को उसी तरह प्रतिष्ठ-करने की उनकी
लालसा कितने दिन खिंच पाएगी कह नहीं सकते।
शिक्षक दिवस के लिए
उन्होंने जो फरमान जारी करवाया है उसमें हर छोटी-से-छोटी बात ऊपर से ही तय करवा दी है। यानी पूरे प्रशासनिक बेड़े पर निर्णय का बोझ न आए, उन्हें तो केवल
क्रियान्वित भर करना है। मोदी पांच सितम्बर को दोपहर बाद जब विद्यार्थियों के मुखातिब होंगे तब पूरे देश के स्कूलों में भरी दुपहरी वह दृश्य होगा जो तीस-चालीस साल पहले स्कूलों में प्रार्थनासभाओं का हुआ
करता था—अन्तर केवल इतना ही—प्रार्थना सभा में सब खड़े रहते थे, इस मोदी
सभा में सब अनुशासित होकर बैठेंगे, मुंह सामने रखवाए टीवी पर होगा।
कहने को पूरे देश में यह अद्भुत दृश्य होगा और हो सकता है मकसद गिनीज बुक में दर्ज करवाना भी हो! वैसे शिक्षक दिवस पर सम्बोधन
की औपचारिकता मोदी शिक्षकों के साथ पूरी कर लेते तो बाल दिवस पर विद्यार्थिवृन्द को सम्बोधन का अवसर और मिल जाता। पर हड़बड़ी में गड़बडिय़ां ऐसे ही होती हैं। लेकिन मोदी गलत को सही साबित करना बखूबी जानते हैं।
मोदी विद्यार्थियों से अच्छी-अच्छी बातें कहेंगे। हो सकता है अध्यापकों और शिक्षाधिकारियों को ज्ञान देंगे—नसीहत देंगे, हो
सकता है वे हड़काएं भी। क्योंकि मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था कैसी है। जैसाकि ऊपर कहा गया—वे यह
भी जानते होंगे कि सरकारी अध्यापकों और शिक्षा अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढऩे इसलिए नहीं जाते क्योंकि वहां पढऩे-पढ़ाने का माहौल
ही नहीं होता। करोड़ों-अरबों रुपये अतिरिक्त फूंक कर इस
तरह विद्यार्थियों को सम्बोधन का रिकार्ड बनाया जा सकता है। क्योंकि टीवी, रेडियो, जनरेटर,
इन्वर्टर सभी अधिकांशत: किराये पर ही
लाने होंगे, स्कूलों के स्टॉक
रजिस्टर में ये सब उपकरण दर्ज होंगे भी तो सुचारु कुछ नहीं मिलना है। हो सकता है कुछ विद्यार्थी मोदी की बातों में आकर उन जैसा बनना चाहें। पर यह तय है कि इन स्कूलों का ढर्रा इसलिए नहीं सुधरना क्योंकि यह संभव ही नहीं है कि बाकी सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार, हरामखोरी चलती रहे और स्कूलों
में न चले। और यह ढंग-ढाळा केवल प्रधानमंत्री के यह
कहने भर से नहीं सुधरना कि 'ना मैं
खाऊंगा और ना खाने दूंगा'। प्रधानमंत्री
ये जानते हैं कि सामान्यत: खाया खाद्य ही जा
सकता है, धन नहीं।
वे यह भी जानते हैं कि बिना धन न राजनीति चल सकती है और न ही राजनीतिक पार्टियां। मोदी इस राजनीति ढंग-ढाळे में बदलाव की मंशा
जताते तो मान भी सकते थे कि भ्रष्टाचार ऊपर से खत्म होना शुरू हो गया जिसकी सम्भावना राईरत्ती भी नहीं दीख रही। 'अच्छे दिनों के सपने' का हश्र भी पिछली सदी के आठवें दशक के इन्दिरा गांधी के नारे 'गरीबी हटाओ' से
कम बुरा नहीं होना है। तब भी गरीबी कुछेक की हटी थी तो अब की 'अच्छे दिन'
कुछेक के आ लेंगे, बस।
2 सितम्बर,
2014
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