Friday, September 5, 2014

सम्मान किन शिक्षकों का?

आज शिक्षक दिवस है, स्कूली विद्यार्थियों को इसका भान औपचारिक सूचनात्मक आयोजन के माध्यम से प्रतिवर्ष करवाया ही जाता है। इस वर्ष इसकी चर्चाविशेष इसलिए भी है क्योंकि अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तर्ज पर हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पूरे देश के विद्यार्थियों को एक साथ अपना भाषण सुनाने की ठान ली है। सो जैसे-तैसे भी और जितनों को भी सुनाना है, हिदायत अनुसार उसके प्रामाणिक आंकड़े भी इकट्ठे किए जाने हैंसंभवत: इसी बहाने वे अपना नाम भी गिनीज और लिम्का वल्र्ड रिकार्ड की पुस्तकों में दर्ज करवाना चाहते हों।
पिछली सदी से शुरू हुए या किए-करवाए ऐसे दिनों का मात्र प्रतीकात्मक महत्त्व है। यदि भारतीय दृष्टि से विचारें तो दिन उनका मनाया जाता है जिन्हें हमने खो दिया हो और किसी दिन विशेष के बहाने उसकी याद को नया-पुराना करके कुछ प्रेरणा पाएं। आजादी बाद जब कुछ उत्सवी दिन तय किए गये उनमें शिक्षक दिवस भी एक था। जिन्हें तारीख मुकर्रर करने का काम सौंपा होगा उन्हें डॉ. राधाकृष्णन के जन्म की तारीख सबसे उचित लगी होगी। राज के लोगों को भी यह ठीक सूझा होगा सो तय कर लिया। इसके तय होने की आधी शताब्दी बाद समाज का एक वर्ग इसे उचित नहीं मान रहा। उनका तर्क है कि तय करने वाले यदि थोड़ा भी इधर-उधर झांकते तो शिक्षा के क्षेत्र में उनसे बड़ा योगदान देने वाले नाम उनको मिल जाते। ऐसे लोग मराठा क्षेत्र के ज्योतिराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई का नाम सुझाते हैं जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध की प्रतिकूल परिस्थितियों में शिक्षा-क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किया है। स्त्री शिक्षा की अलख जगाने के लिए निपट अकेले दम पर भारतीय भू-भाग की पहली ऐसी कन्या पाठशाला की शुरुआत की जिसमें बिना भेदभाव समाज के सभी वर्गों की कन्याओं को पढऩे का समान अवसर उपलब्ध था। उन्होंने इसके लिए दी गई हर तरह की प्रताडऩा की भी परवाह नहीं की और कई एक स्कूलों के माध्यम से इसे अभियान की शक्ल दे दी। खैर, यह भी एक पक्ष तो है ही।
हालांकि, ऐसे प्रतीकात्मक दिनों का महत्त्व इसलिए नहीं माना जाना चाहिए कि वह किस वजह से तय किया गया बल्कि महत्त्व इस बात को दिया जाना चाहिए कि इस दिन के बहाने सम्बन्धित समूह और संस्थाओं में क्या दुरुस्तगी संभव कर पाते हैं या क्या कुछ ऐसा कर पाते हैं जिससे सम्बन्धितों में ऐसी स्फूर्ति का संचार हो जिससे समाज को कुछ विशेष हासिल हो सके। लेकिन रस्म अदायगी भर रह गये ऐसे दिवसों को लीक पीटना भर ही कह सकते हैं।
देश की स्कूली शिक्षा बहुत बुरे वक्त से गुजर रही हैभ्रष्टाचार, हरामखोरी और लापरवाही की बढ़ती सामाजिक प्रवृत्तियों ने शिक्षा को भी धंधा बना दिया है। सरकारी स्कूलों की स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि खुद शिक्षक इन स्कूलों को अपने बच्चों को पढ़ाने लायक नहीं मानते। निजी स्कूल अध्यापकों का शोषण करते है और विद्यार्थियों को पैसे कमाने की मशीन बनाने के असफल केन्द्र साबित हो रहे हैं, क्योंकि इन स्कूलों से निकले विद्यार्थियों के आंकड़े इकट्ठे किए जाएं तो कुछ विद्यार्थियों का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा ही होगा जो पैसा कमाने के दक्ष उपकरण में परिवर्तित हुए हों।
अलावा इसके इस दिन शिक्षकों को राष्ट्रीय, प्रदेश और स्थानीय तक सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर सम्मानित करने की जो परम्परा चल निकली है उसमें इन सम्मानितों की सूची की पड़ताल करें तो आधे भी सम्मान योग्य शिक्षक नहीं होते हैं। जैसी तिकड़मों से अपना कॅरिअर ये चलाते हैं वैसे ही तिकड़मों से ये शिक्षक ऐसे पुरस्कारों और सम्मानों का जुगाड़ बिठा लेते हैं। कुछ संस्थाओं द्वारा तो चयन की असुविधाओं से बचने के लिए कुछेक शिक्षकों को ही बार-बार सम्मानित किया जाता रहता है। इनमें वे स्कूल मालिक भी सम्मानित होने से नहीं रहते जिन पर धंधेबाजों की सभी तरह की करतूतें अपनाने के आरोप लगते रहते हैं।
कुछ तो अच्छा हो रहा है इस बिना पर आलोचना करने का लिहाज समाज पर भारी ही पड़ता है क्योंकि जो शिक्षक सचमुच निष्ठावान और कर्तव्यपरायण हैं, वे धीरे-धीरे निराश होकर अपनी ड्यूटी के प्रति उदासीन होने लग जाते हैं। इसलिए जो पात्र हैं सम्मान उन्हीं का किया जाना चाहिए और चयन प्रक्रिया चाक चौबन्द होनी चाहिए। अन्यथा इस समाज को गर्त में जाने से कोई भी नहीं रोक सकेगा।

5 सितम्बर, 2014

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