Tuesday, August 6, 2013

बात अकादमियों की

बीकानेर संभाग में इन दिनों राजस्थानी या कहें मायड़ भाषा सुर्खियों में है। यह सुर्खियां मीडिया के तीन में से दो रूपों में हाल-फिलहाल अपनी रंगत बनाए हुए है। बात आगे बढ़ाने से पहले मीडिया के तीनों रूपों को खोलना ठीक रहेगा। परम्परागत रूप तो अखबार को मान लेते हैं, आधुनिक में टीवी और उत्तर आधुनिक में सोशल साइट्स यथा फेसबुक को मान सकते हैं। यह श्रेणीबद्धता सुविधा के लिए की है, ‘स्थापनाके लिए नहीं। आप अपनी भिन्न श्रेणियां बनाने-मानने को स्वतंत्र हैं।
मायड़ भाषा की सुर्खियां अखबारों और सोशल साइट्स पर तो पूरी रंगत से देख सकते हैं, लेकिन टीवी वालों को इसे ज्यादा सुर्खिया देना शायद लाभकारी नहीं लग रहा होगा।
राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का मुख्यालय अपनी स्थापना के समय से बीकानेर में है, सो यह अकादमी जबसे बनी संभवतः तभी से राजस्थानी का विकास भी इसी क्षेत्र विशेष या आस-पास में होता दिखाई दे रहा है। संगम से बनी अकादमी को तीस से ज्यादा साल हो गये हैं। सरकार से सीधे पोषित इस अकादमी का मोटा-मोट वही हाल है जो राज्य की अन्य सृजन अकादमियों का है। राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी की बात फिर कभी कर लेंगे। आज प्रदेश की इन अकादमियों कीगतके मूल की चर्चा कर लेते हैं। मान लें कि इनका गठन समूह विशेष की तुष्टिकरण के लिए किया गया तो अब तक की सभी सरकारें इन्हें ढोने की मंशा में ही दिखाई दी हैं। तभी इनकी खाली पोस्टों को भरने की कभी इजाजत नहीं दी जाती। प्रदेश की खराब आर्थिक हालात के चलते बरसों तक नई नियुक्तियों की रोक का तर्क तो फिर गले उतार लें, लेकिन 2003 के बाद तो खजाने से संबंधित सुर बदले हैं और 2008 के बाद तो यूं लगता है खजाना लबालब है। नौकरियों की घोषणाएं धड़ाधड़ हो रही हैं, लेकिन विभिन्न सृजनों से जुड़ी इन अकादमियों पर नजरें इनायत नहीं हो रही।
शासन को चलाने वाले ब्यूरोक्रेट्स की इन अकादमियों में रुचि शायद इसलिए नहीं होती कि इनमें सीधे हस्तक्षेप की गुंजाइश कम रहती है, सोसरकारकभी कुछ करना भी चाहे तो ये ब्यूरोक्रेट सौ शंकाएं खड़ी कर देते हैं। इन अकादमियों में अब तक नियुक्त अध्यक्षों में से अधिकांश ने शंकाओं को खड़ी रखने के सबूत भी छोड़े ही हैं। अधिकांश अकादमी अध्यक्ष अनुकम्पा आधार पर बनते रहे हैं सो अंगदी तेवरों में कुछ कहने की स्थिति में वे होते ही नहीं। बात यह भी है कि इन अकादमियों के किसी काम को कभी व्यापक प्रशंसा मिली हो, ऐसी कोई नजीर हाल-फिलहाल के वर्षों में दीखती नहीं।
पढ़े-लिखों के क्षेत्रों में काम करने वाली ऐसी संस्थाओं से यह उम्मीद करना तो उचित नहीं होगा कि उनके काम-काज की आलोचना ही ना हो। लेकिन इन अकादमियों के काम-काज को मोटा-मोट तुष्टी का भाव विभिन्न विचार-विधाओं के क्षेत्रों में देखा जाना जरूरी होता है, जो कम से कम राजस्थान की किसी अकादमी को लेकर अब तक देखा नहीं गया है। केन्द्र की विभिन्न अकादमियों को इस रूप में देखा-समझा जा सकता है। तब यहां के लोग केन्द्र की अकादमियों के गठन में और यहां की अकादमियों के गठन के फर्क का उल्लेख कर सकते हैं, जो वाजिब ही है। क्योंकि केन्द्र की अकादमियों जितनी स्वायत्त राजस्थान की कोई अकादमी नहीं है और इनकी बदत्तर स्थितियों के कारणों में एक इनके गठन की इस प्रक्रिया को भी मान सकते हैं। इनके सुधार के लिए या तो नेहरू जैसा कोई दृष्टी- सम्पन्न मुख्यमंत्री आए या प्रदेश की इन अकादमियों से सम्बन्धित क्षेत्रों में सक्रिय लोग एका करके सरकार को केन्द्रीय अकादमियों जैसी स्वायत्तता देने के लिए किसी भी तरह से तैयार कर लें। यदि ऐसा संभव हो तो अकादमियों के माध्यम से होने वाले सार्वजनिक धन के सदुपयोग की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। अन्यथा देखा यही गया कि इनके बजटों की अधिकांशतः कड्डी ही होती है। केन्द्रीय अकादमियों के उल्लेख का यह मतलब कतई नहीं है कि उन्हें सौ टका सौ नम्बर दिए जा रहे हैं, पर हमारे प्रदेश की अकादमियों से वे बहुत बेहतर कर रही है।

6 अगस्त, 2013

1 comment:

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सभी अकादमि‍यां एक सी ही हैं, एकदूसरे की पीठ खुजाने वालों से भरी पूरी