Thursday, August 29, 2013

रुपये की गत

लगभग सप्ताह भर पहले जब आसाराम और भारतीय मुद्रा-रुपये के गिरने के समाचार लगातार रहे थे और यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि रुपया डॉलर के मुकाबले सत्तर पार जा सकता है तब एक फेसबुक यूजर ने चुटकलानुमा स्टेटस डाला कि जब बहत्तर की उम्र में आसाराम गिर सकते हैं तो रुपया सत्तर तक क्यों नहीं गिर सकता। चुटकला क्रूर साबित होता लग रहा है, गिरावट की रफ्तर यही रही तो रुपया आज सत्तर पार जा सकता है और राजस्थान सरकार ने लिहाज छोड़ दिया तो आसाराम कल नहीं तो परसों तक हवालात में होंगे। इस बीच जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी ने आज एक चुटकला डाला कि पाकिस्तान में जाली भारतीय मुद्रा छपनी इसलिए बन्द हो गई कि लागत ज्यादा रही है पोसावत नहीं रही है।
आसाराम का इतिहास और करतूतें अखबारों में शाया हो रही हैं, रुपयों के इतिहास की संक्षिप्त जानकारी साझा कर लेते हैं। रुपया शब्द संस्कृत के रुप्यम् से बना है और रुप्यम रुप्य से बना जिसका मतलब होता है सुन्दर आकृति। संस्कृत कोश में रूप्यम का पहला अर्थ चांदी दिया गया है। वस्तु विनिमय युग के बाद संभवतः व्यापार के लिए सबसे पहले चांदी के टुकड़े पर दबाव से कुछ अंकित करके बनाई गई मुद्रा को वस्तु की एवज में उसे दिया जाने लगा। भारत में इसका उल्लेख ईसा से लगभग छह शताब्दी पूर्व यानि लगभग ढाई हजार साल पहले का मिलता है।
मोर्य शासक चन्द्रगुप्त का भारतीय भू-भाग में शासनकाल ईसा पूर्व 340-290 माना जाता है। चन्द्रगुप्त के महामात्य (प्रधानमंत्री) चाणक्य की लिखी पुस्तकअर्थशास्त्रमें चार तरह की मुद्राओं का उल्लेख मिलता है-स्वर्णरूपा (सोने की मुद्रा) रुप्यारूपा (चांदी की मुद्रा) ताम्ररूपा (तांबे की मुद्रा) और सीसारूपा (सीसे की मुद्रा)
पिछले पांच सौ वर्षों में मुद्रांकित चान्दी सिक्के का उल्लेख अफगानी शासक शेरशाह सूरी (.सं. 1540-1545) के जमाने का मिलता है जिसे रुपिया सम्बोधित किया गया। इसके बाद मुगलों, मराठों और अंग्रेजों के शासन के दौरान भी चान्दी के रुपियों का चलन था। कागज का रुपया अब जो चलन से बाहर है, इसकी शुरूवात हमारे इस भारतीय भू-भाग में सन् 1770 के बाद की मानी जाती है। तब और उसके बाद बैंक ऑफ हिन्दुस्तान, जनरल बैंक ऑफ बंगाल एण्ड बिहार और बंगाल बैंक ने कागज की मुद्रा जारी की जिसे रुपिया ही कहा जाता था। आजाद भारत के कागज के एक रुपये के नोट की कीमत आजकल कहते हैं बत्तीस से पैंतीस रुपये तक पहुंच गई यानि 100 की गड्डी बत्तीस सौ से पैंतीसों तक मिल जाती है। पिछले पांच सौ वर्षों में विभिन्न भारतीय शासकों ने विभिन्न अवसरों पर सोने की मुद्रा भी जारी की थी।
पिछले पच्चीस वर्षों में एक रुपये के धातु के सिक्के का वजन और धातु की गुणवता लगातार कम होती गई-इसके बावजूद यह जरूरत अनुसार नहीं मिलता। बैंक तक पहुंच रखने वाले बैंक से थैलियां ले आते हैं शेष जरूरतमंद इन्हें काटे से ही हासिल कर पाते हैं यानि सौ रुपये में 80 से लेकर 95 सिक्कों तक।
चलन के रुपये के बद से बदतर होते इस हालात से आम आदमी की वाकफियत है पर अन्तरराष्ट्रीय बाजार में उसकी गत से ना तो वह वाकिफ है और ना ही उसे यह समझ कि यह कैसे और क्यों हो रहा है। पता तो शायद दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्री और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को भी नहीं है और है तो वे स्थितप्रज्ञ क्यों हैं। बढ़िया प्रशासक की छाप लिए वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम के भी हाथ-पांव फूले हुए हैं। सरकारी नौकरी-पैसे वाले और धंधेबाजों पर तो गर्त में जाते रुपये का कोई असर नहीं होना है। आम मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग ही मारा जाएगा, क्योंकि उसकी ना तो सुनवाई है और ना ही उसके पास गिरते रुपये से बढ़ती महंगाई का कोई उपाय। गरीब और ज्यादा गरीब को तो खाद्य सुरक्षा योजना भूखों नहीं मरने दे।

29 अगस्त, 2013

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