वकीलों की रोजी तर्क की रोजी है। जो ज्यादा अच्छे और अच्छी तरीके से तर्क दे सकता है उसे अच्छा वकील माना जाता है। कुछ आरोपी या अपीलार्थी अच्छा वकील उसे भी मानते हैं जो ‘चेम्बर प्रेक्टिस’ में माहिर हो पर इसमें भी हौसले की जरूरत तो होती ही है और हौसला बिना तर्कों-कुतर्कों के संभव नहीं है। वकीलों की बात आज इसलिए कर रहे हैं कि लगभग एक माह से ये वकील बीकानेर में हाईकोर्ट बेंच की मांग को लेकर फिर आंदोलनरत हैं, पहले भी रहे पर धाप कर इसे महीने में एक दिन पर सीमित कर दिया था। ठीक उसी तर्ज पर जिस पर जोधपुर के वकील जयपुर बेंच के खुलने के बाद से प्रति माह एक दिवसीय हड़ताल की रस्म अदायगी पर आज तक डटे हैं।
हड़ताल का अभी का नया सिलसिला उदयपुर में हाईकोर्ट बेंच की सुगबुगाहट के बाद शुरू हुआ। इस मामले में जयपुर-जोधपुर के वकीलों से बीकानेर के वकीलों ने ज्यादा शालीनता दिखाई, ये उनकी तरह उदयपुर बेंच के विरोध पर नहीं उतरे बल्कि इन्होंने अपने लिए अलग से बेंच की मांग करना ही उचित समझा। दरअसल हो यह गया है कि अधिकांश मांगों का जाहिर एजेन्डा व्यापक हित का होता है लेकिन प्रेरक छिपा एजेन्डा स्वार्थ का ही होता है। इसके प्रमाण में पूछा जा सकता है कि जिले के तहसील न्यायालयों के शुरू होने की घोषणा के समय स्थानीय वकीलों के विरोध का क्या तर्क था। संभाग के उन आम लोगों के जिनके मामले हाईकोर्ट में लम्बित हैं उनकी सुविधा का तर्क देने वाले आन्दोलनकारियों से पूछा जाना चाहिए कि तहसील कोर्ट खुलने के समय सम्बन्धित तहसीलों के लोगों को मिलने वाली सुविधा से एतराज क्या केवल इसलिए नहीं था कि धंधा पानी कम हो जायेगा। जोधपुर के वकीलों द्वारा जयपुर की बेंच के बाद से हर माह लीक पीटना और जयपुर का उदयपुर बेंच के बाद आन्दोलित होने के कारण क्या केवल निहित स्वार्थ ही नहीं है। अन्यथा क्षेत्र विशेष के लोगों को मिलने वाली सुविधाओं को सहर्षता से स्वीकार क्यों नहीं किया जाता।
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अगस्त, 2013
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