Monday, August 19, 2013

लोकतंत्र से उम्मीदें और उसके लिए जतन

देश चुनावी रंगत में गया है, अगले नौ महीनों में पांच प्रदेशों में विधानसभाओं और उनके बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। राजस्थान की बात करें तो अगले तीन वर्ष चुनावी हैं, विधानसभा, लोकसभा के बाद पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों की चहल-पहल रहेगी। लेकिन आगामी नौ माह में जो कुछ होगा उसी रंग का असर पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों में भी देखा जाएगा।
मरता क्या नहीं करता की तर्ज पर भाजपा के सभी शीर्ष नेताओं द्वारा अपनी-अपनी आकांक्षाओं को होम कर मोदी को लगभग खेवणहार मान लिए। बावजूद ये जानने के कि मोदी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के आड़े आने वाले किसी भी व्यक्तित्व को मटियामेट करने से नहीं चूकेंगे, ऐसा शायद इसलिए हुआ कि शेष सभी शीर्ष नेता अपने को व्यापक वोट जुगाड़ू हैसियत में नहीं पाते हैं और इस बार सत्ता नहीं मिली तो राजनीतिक जीवन ही नहीं जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि पांच साल बाद ये सभी शीर्षनेता अपनी वर्तमान हैसियत को भी बनाये रख सकेंगे कि नहीं इसका भरोसा किसी को नहीं है। आडवाणी जैसे तपे-तपाए के हश्र को वे देख रहे हैं, उनके तप का आधा भी किसी अन्य भाजपाई नेता के खाते में नहीं है।
मोदी भीअभी नहीं तो कभी नहींकी मुद्रा में हैं और चुनाव अभियान समिति के प्रमुख होने के बाद से ही लाभ लेने का कोई भी मौका छोड़ने के मूड में वे लगते नहीं है। इसके लिए वे लोकतान्त्रिक परम्पराओं और मानवीय मूल्यों को ताक पर रखने से भी नहीं चूकेंगे। 15 अगस्त का उनका भाषण और भाषण से पहले की उनकी मुनादी और बिहार जम्मू के हाल ही के साम्प्रदायिक दंगे इस बात का संकेत दे चुके हैं।
पिछले दस वर्षों से संप्रग शीर्षक से केन्द्र की सत्ता पर काबिज कांग्रेस लगता है कि भाजपा के मोदी दावं से हतप्रभ है। एक ही परिवार को नेतृत्व योग्य मानना शायद उनकी सबसे बड़ी कमी है। राहुल गांधी ने अपने दस साल के राजनीतिक अनुभवों से शायद कुछ नहीं सीखा, हो सकता है क्षमता ही ना हो अन्यथा किसी भी प्रशिक्षण के लिए दस साल का समय जरूरत से ज्यादा ही माना जा सकता है और राहुल के मामले में कह सकते हैं कांग्रेस नेसेर में सवासेर ऊरनेका अवसर ही लिया था। जब तक कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार की ओर मुंह बाए खड़ी रहेगी तब तक शायद बार-बार उसे ऐसे ही दौर से गुजरना हो सकता है। ऐसी-सी स्थिति संघ को लेकर भाजपा की भी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय राजनीति को संघ जैसे संगठनों और नेहरू-गांधी जैसे परिवारों से मुक्ति की जरूरत है। इसके बिना वह किसी लोकतान्त्रिक मुकाम को हासिल नहीं कर पाएगी।
देश की जनता अब तो इस असमंजस की स्थिति में भी है कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह किस मनःस्थिति में हैं, वह प्रधानमंत्री पद पर रहने की मानसिकता में हैं भी कि नहीं। पिछले पांच वर्षों में जितने बड़े घोटालों के आते समाचार, बड़े अर्थशास्त्री मनमोहनसिंह के प्रधानमंत्री रहते भारतीय अर्थव्यवस्था की लगातार डांवाडोल होती स्थिति, लगातार बढ़ती महंगाई आदि के चलते सक्रिय आमजन का केन्द्र सरकार से उठता जा रहा भरोसा। ऐसे पर्याप्त कारण बनते हैं कि मतदाता कांग्रेस के विकल्प पर गम्भीरता से विचारें। भारतीय मतदाता अभी भी किसी चमत्कारी व्यक्तित्व की तलाश में रहता है और हो सकता है मतदाताओं का एक बड़ा समूह ऐसा व्यक्तित्व नरेन्द्र मोदी में देखने लगे। अगर ऐसी संभावना बनती है तो मोदी का जैसा रिकार्ड और छवि रही है उसके चलते यह लोकतान्त्रिक मूल्यों के लिए उचित नहीं रहेगा। संभव है इन दोनों (भाजपा-कांग्रेस) पार्टियों और सुप्रीमों आधारित क्षेत्रीय पार्टियों के बाद परिपक्व लोकतान्त्रिक मूल्यों में भरोसा रखने वाली राजनीतिक पार्टियां आएं। ऐसा होने में समय लग सकता है, पर होगा तभी जब जतन और उम्मीदें कायम रहेंगी।

19 अगस्त, 2013

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